॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान् की
पटरानियों के साथ द्रौपदी की बातचीत
श्रीशुक उवाच
तथानुगृह्य भगवान्गोपीनां स गुरुर्गतिः
युधिष्ठिरमथापृच्छत्सर्वांश्च सुहृदोऽव्ययम् १
त एवं लोकनाथेन परिपृष्टाः सुसत्कृताः
प्रत्यूचुर्हृष्टमनसस्तत्पादेक्षाहतांहसः २
कुतोऽशिवं त्वच्चरणाम्बुजासवं
महन्मनस्तो मुखनिःसृतं क्वचित्
पिबन्ति ये कर्णपुटैरलं प्रभो
देहंभृतां देहकृदस्मृतिच्छिदम् ३
हित्वात्म धामविधुतात्मकृतत्र्यवस्थाम्
आनन्दसम्प्लवमखण्डमकुण्ठबोधम्
कालोपसृष्टनिगमावन आत्तयोग
मायाकृतिं परमहंसगतिं नताः स्म ४
श्रीऋषिरुवाच
इत्युत्तमःश्लोकशिखामणिं जनेष्व्
अभिष्टुवत्स्वन्धककौरवस्त्रियः
समेत्य गोविन्दकथा मिथोऽगृणंस्
त्रिलोकगीताः शृणु वर्णयामि ते ५
श्रीद्रौपद्युवाच
हे वैदर्भ्यच्युतो भद्रे हे जाम्बवति कौशले
हे सत्यभामे कालिन्दि शैब्ये रोहिणि लक्ष्मणे ६
हे कृष्णपत्न्य एतन्नो ब्रूत वो भगवान्स्वयम्
उपयेमे यथा लोकमनुकुर्वन्स्वमायया ७
श्रीरुक्मिण्युवाच
चैद्याय मार्पयितुमुद्यतकार्मुकेषु
राजस्वजेयभटशेखरिताङ्घ्रिरेणुः
निन्ये मृगेन्द्र इव भागमजावियूथात्
तच्छ्रीनिकेतचरणोऽस्तु ममार्चनाय ८
श्रीसत्यभामोवाच
यो मे सनाभिवधतप्तहृदा ततेन
लिप्ताभिशापमपमार्ष्टुमुपाजहार
जित्वर्क्षराजमथ रत्नमदात्स तेन
भीतः पितादिशत मां प्रभवेऽपि दत्ताम् ९
श्रीजाम्बवत्युवाच
प्राज्ञाय देहकृदमुं निजनाथदैवं
सीतापतिं त्रिनवहान्यमुनाभ्ययुध्यत्
ज्ञात्वा परीक्षित उपाहरदर्हणं मां
पादौ प्रगृह्य मणिनाहममुष्य दासी १०
श्रीकालिन्द्युवाच
तपश्चरन्तीमाज्ञाय स्वपादस्पर्शनाशया
सख्योपेत्याग्रहीत्पाणिं योऽहं तद्गृहमार्जनी ११
श्रीमित्रविन्दोवाच
यो मां स्वयंवर उपेत्य विजित्य भूपान्
निन्ये श्वयूथगं इवात्मबलिं द्विपारिः
भ्रातॄंश्च मेऽपकुरुतः स्वपुरं श्रियौकस्
तस्यास्तु मेऽनुभवमङ्घ्र्यवनेजनत्वम् १२
श्रीसत्योवाच
सप्तोक्षणोऽतिबलवीर्यसुतीक्ष्णशृङ्गान्
पित्रा कृतान्क्षितिपवीर्यपरीक्षणाय
तान्वीरदुर्मदहनस्तरसा निगृह्य
क्रीडन्बबन्ध ह यथा शिशवोऽजतोकान् १३
य इत्थं वीर्यशुल्कां मां
दासीभिश्चतुरङ्गिणीम्
पथि निर्जित्य राजन्यान्
निन्ये तद्दास्यमस्तु मे १४
श्रीभद्रोवाच
पिता मे मातुलेयाय स्वयमाहूय दत्तवान्
कृष्णे कृष्णाय तच्चित्तामक्षौहिण्या सखीजनैः १५
अस्य मे पादसंस्पर्शो भवेज्जन्मनि जन्मनि
कर्मभिर्भ्राम्यमाणाया येन तच्छ्रेय आत्मनः १६
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्ण ही गोपियोंको शिक्षा देनेवाले हैं और वही उस शिक्षाके द्वारा प्राप्त
होनेवाली वस्तु हैं। इसके पहले, जैसा कि वर्णन किया गया है,
भगवान् श्रीकृष्णने उनपर महान् अनुग्रह किया। अब उन्होंने धर्मराज
युधिष्ठिर तथा अन्य समस्त सम्बन्धियोंसे कुशल-मङ्गल पूछा ॥ १ ॥ भगवान्
श्रीकृष्णके चरणकमलोंका दर्शन करनेसे ही उनके सारे अशुभ नष्ट हो चुके थे। अब जब
भगवान् श्रीकृष्णने उनका सत्कार किया, कुशल-मङ्गल पूछा,
तब वे अत्यन्त आनन्दित होकर उनसे कहने लगे— ॥
२ ॥ ‘भगवन् ! बड़े-बड़े महापुरुष मन-ही-मन आपके चरणारविन्दका
मकरन्दरस पान करते रहते हैं। कभी-कभी उनके मुखकमलसे लीला- कथाके रूपमें वह रस छलक
पड़ता है। प्रभो ! वह इतना अद्भुत दिव्य रस है कि कोई भी प्राणी उसको पी ले तो वह
जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाली विस्मृति अथवा अविद्याको नष्ट कर देता है। उसी
रसको जो लोग अपने कानोंके दोनोंमें भर-भरकर जी-भर पीते हैं, उनके
अमङ्गलकी आशङ्का ही क्या है ? ॥ ३ ॥ भगवन् ! आप एकरस
ज्ञानस्वरूप और अखण्ड आनन्दके समुद्र हैं। बुद्धि- वृत्तियोंके कारण होनेवाली जाग्रत्,
स्वप्न, सुषुप्ति—ये
तीनों अवस्थाएँ आपके स्वयंप्रकाश स्वरूप- तक पहुँच ही नहीं पातीं, दूरसे ही नष्ट हो जाती हैं। आप परमहंसोंकी एकमात्र गति हैं। समयके फेरसे
वेदोंका ह्रास होते देखकर उनकी रक्षाके लिये आपने अपनी अचिन्त्य योगमायाके द्वारा
मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है। हम आपके चरणोंमें बार-बार नमस्कार करते हैं’
॥ ४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जिस समय दूसरे
लोग इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति कर रहे थे, उसी
समय यादव और कौरव-कुलकी स्त्रियाँ एकत्र होकर आपसमें भगवान्की त्रिभुवन-विख्यात
लीलाओंका वर्णन कर रही थीं। अब मैं तुम्हें उन्हींकी बातें सुनाता हूँ ॥ ५ ॥
द्रौपदीने कहा—हे रुक्मिणी, भद्रे,
हे जाम्बवती, सत्ये, हे
सत्यभामे, कालिन्दी, शैव्ये, लक्ष्मणे, रोहिणी और अन्यान्य श्रीकृष्णपत्नियो !
तुमलोग हमें यह तो बताओ कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने अपनी मायासे लोगोंका अनुकरण
करते हुए तुमलोगोंका किस प्रकार पाणिग्रहण किया ? ॥ ६-७ ॥
रुक्मिणीजीने
कहा—द्रौपदीजी ! जरासन्ध आदि सभी
राजा चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपालके साथ हो; इसके लिये
सभी शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित होकर युद्धके लिये तैयार थे। परन्तु भगवान् मुझे वैसे
ही हर लाये, जैसे सिंह बकरी और भेड़ोंके झुंडमेंसे अपना भाग
छीन ले जाय। क्यों न हो—जगत्में जितने भी अजेय वीर हैं,
उनके मुकुटोंपर इन्हींकी चरणधूलि शोभायमान होती है। द्रौपदीजी !
मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान् के वे ही समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्योंके आश्रय
चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करनेके लिये प्राप्त होते रहें, मैं उन्हींकी सेवा में लगी रहूँ ॥ ८ ॥
सत्यभामा ने
कहा—द्रौपदीजी ! मेरे पिताजी अपने
भाई प्रसेनकी मृत्युसे बहुत दुखी हो रहे थे, अत: उन्होंने
उनके वधका कलङ्क भगवान्पर ही लगाया। उस कलङ्कको दूर करनेके लिये भगवान्ने
ऋक्षराज जाम्बवान्पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिताको दे दिया। अब तो
मेरे पिताजी मिथ्या कलङ्क लगानेके कारण डर गये। अत: यद्यपि वे दूसरेको मेरा
वाग्दान कर चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तकमणिके साथ
भगवान्के चरणोंमें ही समर्पित कर दिया ॥ ९ ॥
जाम्बवतीने
कहा—द्रौपदीजी ! मेरे पिता
ऋक्षराज जाम्बवान् को इस बातका पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान् सीतापति हैं।
इसलिये वे इनसे सत्ताईस दिनतक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान् राम ही हैं, तब
इनके चरणकमल पकडक़र स्यमन्तक- मणि के साथ उपहारके रूपमें मुझे समर्पित कर दिया। मैं
यही चाहती हूँ कि जन्म-जन्म इन्हींकी दासी बनी रहूँ ॥ १० ॥
कालिन्दीने
कहा—द्रौपदीजी ! जब भगवान् को यह
मालूम हुआ कि मैं उनके चरणोंका स्पर्श करनेकी आशा-अभिलाषासे तपस्या कर रही हूँ,
तब वे अपने सखा अर्जुनके साथ यमुना-तटपर आये और मुझे स्वीकार कर
लिया। मैं उनका घर बुहारनेवाली उनकी दासी हूँ ॥ ११ ॥
मित्रविन्दाने
कहा—द्रौपदीजी ! मेरा स्वयंवर हो
रहा था। वहाँ आकर भगवान्ने सब राजाओंको जीत लिया और जैसे सिंह झुंड-के-झुंड
कुत्तोंमेंसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी
द्वारकापुरीमें ले आये। मेरे भाइयोंने भी मुझे भगवान्से छुड़ाकर मेरा अपकार करना
चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा
चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्म उनके पाँव पखारनेका सौभाग्य प्राप्त होता रहे ॥ १२ ॥
सत्याने कहा—द्रौपदीजी ! मेरे पिताजीने मेरे स्वयंवरमें
आये हुए राजाओंके बल-पौरुषकी परीक्षाके लिये बड़े बलवान् और पराक्रमी, तीखे सींगवाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलोंने बड़े- बड़े वीरोंका घमंड
चूर-चूर कर दिया था। उन्हें भगवान्ने खेल-खेलमें ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बाँध दिया; ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरीके बच्चोंको पकड़ लेते हैं ॥ १३ ॥ इस प्रकार
भगवान् बल-पौरुषके द्वारा मुझे प्राप्तकर चतुरङ्गिणी सेना और दासियोंके साथ
द्वारका ले आये। मार्गमें जिन क्षत्रियोंने विघ्र डाला, उन्हें
जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवाका अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त
होता रहे ॥ १४ ॥
भद्राने कहा—द्रौपदीजी ! भगवान् मेरे मामाके पुत्र हैं।
मेरा चित्त इन्हींके चरणोंमें अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजीको यह बात मालूम
हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान्को बुलाकर अक्षौहिणी सेना
और बहुत-सी दासियोंके साथ मुझे इन्हींके चरणोंमें समर्पित कर दिया ॥ १५ ॥ मैं अपना
परम कल्याण इसीमें समझती हूँ कि कर्मके अनुसार मुझे जहाँ-जहाँ जन्म लेना पड़े,
सर्वत्र इन्हींके चरणकमलोंका संस्पर्श प्राप्त होता रहे ॥ १६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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