॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान् की
पटरानियों के साथ द्रौपदी की बातचीत
श्रीलक्ष्मणोवाच
ममापि राज्ञ्यच्युतजन्मकर्म
श्रुत्वा मुहुर्नारदगीतमास ह
चित्तं मुकुन्दे किल पद्महस्तया
वृतः सुसम्मृश्य विहाय लोकपान् १७
ज्ञात्वा मम मतं साध्वि पिता दुहितृवत्सलः
बृहत्सेन इति ख्यातस्तत्रोपायमचीकरत् १८
यथा स्वयंवरे राज्ञि मत्स्यः पार्थेप्सया कृतः
अयं तु बहिराच्छन्नो दृश्यते स जले परम् १९
श्रुत्वैतत्सर्वतो भूपा आययुर्मत्पितुः पुरम्
सर्वास्त्रशस्त्रतत्त्वज्ञाः सोपाध्यायाः सहस्रशः २०
पित्रा सम्पूजिताः सर्वे यथावीर्यं यथावयः
आददुः सशरं चापं वेद्धुं पर्षदि मद्धियः २१
आदाय व्यसृजन्केचित्सज्यं कर्तुमनीश्वराः
आकोष्ठं ज्यां समुत्कृष्य पेतुरेकेऽमुनाहताः २२
सज्यं कृत्वापरे वीरा मागधाम्बष्ठचेदिपाः
भीमो दुर्योधनः कर्णो नाविदंस्तदवस्थितिम् २३
मत्स्याभासं जले वीक्ष्य ज्ञात्वा च तदवस्थितिम्
पार्थो यत्तोऽसृजद्बाणं नाच्छिनत्पस्पृशे परम् २४
राजन्येषु निवृत्तेषु भग्नमानेषु मानिषु
भगवान्धनुरादाय सज्यं कृत्वाथ लीलया २५
तस्मिन्सन्धाय विशिखं मत्स्यं वीक्ष्य सकृज्जले
छित्त्वेषुणापातयत्तं सूर्ये चाभिजिति स्थिते २६
दिवि दुन्दुभयो नेदुर्जयशब्दयुता भुवि
देवाश्च कुसुमासारान्मुमुचुर्हर्षविह्वलाः २७
तद्रङ्गमाविशमहं कलनूपुराभ्यां
पद्भ्यां प्रगृह्य कनकोज्वलरत्नमालाम्
नूत्ने निवीय परिधाय च कौशिकाग्र्ये
सव्रीडहासवदना कवरीधृतस्रक् २८
उन्नीय वक्त्रमुरुकुन्तलकुण्डलत्विड्
गण्डस्थलं शिशिरहासकटाक्षमोक्षैः
राज्ञो निरीक्ष्य परितः शनकैर्मुरारेर्
अंसेऽनुरक्तहृदया निदधे स्वमालाम् २९
तावन्मृदङ्गपटहाः शङ्खभेर्यानकादयः
निनेदुर्नटनर्तक्यो ननृतुर्गायका जगुः ३०
एवं वृते भगवति मयेशे नृपयूथपाः
न सेहिरे याज्ञसेनि स्पर्धन्तो हृच्छयातुराः ३१
मां तावद्रथमारोप्य हयरत्नचतुष्टयम्
शार्ङ्गमुद्यम्य सन्नद्धस्तस्थावाजौ चतुर्भुजः ३२
दारुकश्चोदयामास काञ्चनोपस्करं रथम्
मिषतां भूभुजां राज्ञि मृगाणां मृगराडिव ३३
तेऽन्वसज्जन्त राजन्या निषेद्धुं पथि केचन
संयत्ता उद्धृतेष्वासा ग्रामसिंहा यथा हरिम् ३४
ते शार्ङ्गच्युतबाणौघैः कृत्तबाह्वङ्घ्रिकन्धराः
निपेतुः प्रधने केचिदेके सन्त्यज्य दुद्रुवुः ३५
ततः पुरीं यदुपतिरत्यलङ्कृतां
रविच्छदध्वजपटचित्रतोरणाम्
कुशस्थलीं दिवि भुवि चाभिसंस्तुतां
समाविशत्तरणिरिव स्वकेतनम् ३६
पिता मे पूजयामास सुहृत्सम्बन्धिबान्धवान्
महार्हवासोऽलङ्कारैः शय्यासनपरिच्छदैः ३७
दासीभिः सर्वसम्पद्भिर्भटेभरथवाजिभिः
आयुधानि महार्हाणि ददौ पूर्णस्य भक्तितः ३८
आत्मारामस्य तस्येमा वयं वै गृहदासिकाः
सर्वसङ्गनिवृत्त्याद्धा तपसा च बभूविम ३९
महिष्य ऊचुः
भौमं निहत्य सगणं युधि तेन रुद्धा
ज्ञात्वाथ नः क्षितिजये जितराजकन्याः
निर्मुच्य संसृतिविमोक्षमनुस्मरन्तीः
पादाम्बुजं परिणिनाय य आप्तकामः ४०
न वयं साध्वि साम्राज्यं स्वाराज्यं भौज्यमप्युत
वैराज्यं पारमेष्ठ्यं च आनन्त्यं वा हरेः पदम् ४१
कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरजः श्रियः
कुचकुङ्कुमगन्धाढ्यं मूर्ध्ना वोढुं गदाभृतः ४२
व्रजस्त्रियो यद्वाञ्छन्ति पुलिन्द्यस्तृणवीरुधः
गावश्चारयतो गोपाः पदस्पर्शं महात्मनः ४३
लक्ष्मणाने
कहा—रानीजी ! देवर्षि नारद
बार-बार भगवान् के अवतार और लीलाओंका गान करते रहते थे। उसे सुनकर और यह सोचकर कि
लक्ष्मीजीने समस्त लोकपालोंका त्याग करके भगवान्का ही वरण किया, मेरा चित्त भगवान्के चरणोंमें आसक्त हो गया ॥ १७ ॥ साध्वी ! मेरे पिता
बृहत्सेन मुझपर बहुत प्रेम रखते थे। जब उन्हें मेरा अभिप्राय मालूम हुआ, तब उन्होंने मेरी इच्छाकी पूर्तिके लिये यह उपाय किया ॥ १८ ॥ महारानी !
जिस प्रकार पाण्डववीर अर्जुनकी प्राप्तिके लिये आपके पिताने स्वयंवरमें मत्स्यवेधका
आयोजन किया था, उसी प्रकार मेरे पिताने भी किया। आपके
स्वयंवरकी अपेक्षा हमारे यहाँ यह विशेषता थी कि मत्स्य बाहरसे ढका हुआ था, केवल जलमें ही उसकी परछार्ईं दीख पड़ती थी ॥ १९ ॥ जब यह समाचार राजाओंको
मिला, तब सब ओरसे समस्त अस्त्र-शस्त्रोंके तत्त्वज्ञ हजारों
राजा अपने-अपने गुरुओंके साथ मेरे पिताजीकी राजधानीमें आने लगे ॥ २० ॥ मेरे
पिताजीने आये हुए सभी राजाओंका बल-पौरुष और अवस्थाके अनुसार भलीभाँति स्वागत
सत्कार किया। उन लोगोंने मुझे प्राप्त करनेकी इच्छासे स्वयंवर-सभामें रखे हुए धनुष
और बाण उठाये ॥ २१ ॥ उनमेंसे कितने ही राजा तो धनुषपर ताँत भी न चढ़ा सके।
उन्होंने धनुषको ज्यों-का-त्यों रख दिया। कइयोंने धनुषकी डोरीको एक सिरेसे बाँधकर
दूसरे सिरेतक खींच तो लिया, परन्तु वे उसे दूसरे सिरेसे बाँध
न सके, उसका झटका लगनेसे गिर पड़े ॥ २२ ॥ रानीजी ! बड़े-बड़े
प्रसिद्ध वीर—जैसे जरासन्ध, अम्बष्ठनरेश,
शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन
और कर्ण—इन लोगोंने धनुषपर डोरी तो चढ़ा ली; परन्तु उन्हें मछलीकी स्थितिका पता न चला ॥ २३ ॥ पाण्डववीर अर्जुनने जलमें
उस मछलीकी परछार्ईं देख ली और यह भी जान लिया कि वह कहाँ है। बड़ी सावधानीसे
उन्होंने बाण छोड़ा भी; परन्तु उससे लक्ष्यवेध न हुआ,
उनके बाणने केवल उसका स्पर्शमात्र किया ॥ २४ ॥
रानीजी ! इस
प्रकार बड़े-बड़े अभिमानियोंका मान मर्दन हो गया। अधिकांश नरपतियोंने मुझे पानेकी
लालसा एवं साथ-ही-साथ लक्ष्यवेधकी चेष्टा भी छोड़ दी। तब भगवान्ने धनुष उठाकर खेल-खेलमें—अनायास ही उसपर डोरी चढ़ा दी, बाण साधा और जलमें केवल एक बार मछलीकी परछार्ईं देखकर बाण मारा तथा उसे
नीचे गिरा दिया। उस समय ठीक दोपहर हो रहा था, सर्वार्थसाधक ‘अभिजित्’ नामक मुहूर्त बीत रहा था ॥ २५-२६ ॥ देवीजी
! उस समय पृथ्वीमें जय-जयकार होने लगा और आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं।
बड़े-बड़े देवता आनन्द-विह्वल होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ २७ ॥ रानीजी ! उसी
समय मैंने रंगशालामें प्रवेश किया। मेरे पैरोंके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोल रहे थे।
मैंने नये-नये उत्तम रेशमी वस्त्र धारण कर रखे थे। मेरी चोटियोंमें मालाएँ गुँथी
हुई थीं और मुँहपर लज्जामिश्रित मुसकराहट थी। मैं अपने हाथोंमें रत्नोंका हार लिये
हुए थी, जो बीच-बीचमें लगे हुए सोनेके कारण और भी दमक रहा
था। रानीजी ! उस समय मेरा मुखमण्डल घनी घुँघराली अलकोंसे सुशोभित हो रहा था तथा
कपोलोंपर कुण्डलोंकी आभा पडऩेसे वह और भी दमक उठा था। मैंने एक बार अपना मुख उठाकर
चन्द्रमा- की किरणोंके समान सुशीतल हास्यरेखा और तिरछी चितवनसे चारों ओर बैठे हुए
राजाओंकी ओर देखा, फिर धीरेसे अपनी वरमाला भगवान्के गलेमें
डाल दी। यह तो कह ही चुकी हूँ कि मेरा हृदय पहलेसे ही भगवान्के प्रति अनुरक्त था
॥ २८-२९ ॥ मैंने ज्यों ही वरमाला पहनायी त्यों ही मृदङ्ग, पखावज,
शङ्ख, ढोल, नगारे आदि
बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। गवैये गाने लगे ॥ ३० ॥
द्रौपदीजी !
जब मैंने इस प्रकार अपने स्वामी प्रियतम भगवान्को वरमाला पहना दी, उन्हें वरण कर लिया, तब
कामातुर राजाओंको बड़ा डाह हुआ। वे बहुत ही चिढ़ गये ॥ ३१ ॥ चतुर्भुज- भगवान्ने
अपने श्रेष्ठ चार घोड़ोंवाले रथपर मुझे चढ़ा लिया और हाथमें शार्ङ्गधनुष लेकर तथा
कवच पहनकर युद्ध करनेके लिये वे रथपर खड़े हो गये ॥ ३२ ॥ पर रानीजी ! दारुकने
सोनेके साज-सामानसे लदे हुए रथको सब राजाओंके सामने ही द्वारकाके लिये हाँक दिया,
जैसे कोई सिंह हरिनोंके बीचसे अपना भाग ले जाय ॥ ३३ ॥ उनमेंसे कुछ
राजाओंने धनुष लेकर युद्धके लिये सज-धजकर इस उद्देश्यसे रास्तेमें पीछा किया कि हम
भगवान्को रोक लें; परन्तु रानीजी ! उनकी चेष्टा ठीक वैसी ही
थी, जैसे कुत्ते सिंहको रोकना चाहें ॥ ३४ ॥ शार्ङ्गधनुषके
छूटे हुए तीरोंसे किसीकी बाँह कट गयी तो किसीके पैर कटे और किसीकी गर्दन ही उतर
गयी। बहुत-से लोग तो उस रणभूमिमें ही सदाके लिये सो गये और बहुत-से युद्धभूमि
छोडक़र भाग खड़े हुए ॥ ३५ ॥
तदनन्तर
यदुवंशशिरोमणि भगवान्ने सूर्यकी भाँति अपने निवासस्थान स्वर्ग और पृथ्वीमें
सर्वत्र प्रशंसित द्वारका-नगरीमें प्रवेश किया। उस दिन वह विशेषरूपसे सजायी गयी
थी। इतनी झंडियाँ, पताकाएँ और तोरण लगाये गये
थे कि उनके कारण सूर्यका प्रकाश धरतीतक नहीं आ पाता था ॥ ३६ ॥ मेरी अभिलाषा पूर्ण
हो जानेसे पिताजीको बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने हितैषी- सुहृदों, सगे-सम्बन्धियों और भाई-बन्धुओंको बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण,
शय्या, आसन और विविध प्रकारकी सामग्रियाँ देकर
सम्मानित किया ॥ ३७ ॥ भगवान् परिपूर्ण हैं—तथापि मेरे
पिताजीने प्रेमवश उन्हें बहुत-सी दासियाँ, सब प्रकारकी
सम्पत्तियाँ, सैनिक, हाथी, रथ, घोड़े एवं बहुत-से बहुमूल्य अस्त्र-शस्त्र
समर्पित किये ॥ ३८ ॥ रानीजी ! हमने पूर्वजन्ममें सबकी आसक्ति छोडक़र कोई बहुत बड़ी
तपस्या की होगी। तभी तो हम इस जन्ममें आत्माराम भगवान्की गृह-दासियाँ हुई हैं ॥
३९ ॥
सोलह हजार
पत्नियोंकी ओरसे रोहिणीजीने कहा—भौमासुरने दिग्विजयके समय बहुत-से राजाओंको जीतकर उनकी कन्या हमलोगोंको
अपने महलमें बंदी बना रखा था। भगवान्ने यह जानकर युद्धमें भौमासुर और उसकी सेनाका
संहार कर डाला और स्वयं पूर्णकाम होनेपर भी उन्होंने हमलोगोंको वहाँसे छुड़ाया तथा
पाणिग्रहण करके अपनी दासी बना लिया। रानीजी ! हम सदा- सर्वदा उनके उन्हीं
चरणकमलोंका चिन्तन करती रहती थीं, जो जन्म-मृत्युरूप संसारसे
मुक्त करनेवाले हैं ॥ ४० ॥ साध्वी द्रौपदीजी ! हम साम्राज्य, इन्द्रपद अथवा इन दोनोंके भोग, अणिमा आदि ऐश्वर्य,
ब्रह्माका पद, मोक्ष अथवा सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ—कुछ भी नहीं चाहतीं। हम केवल
इतना ही चाहती हैं कि अपने प्रियतम प्रभुके सुकोमल चरणकमलोंकी वह श्रीरज सर्वदा
अपने सिरपर वहन किया करें, जो लक्ष्मीजीके वक्ष:स्थलपर लगी
हुई केशरकी सुगन्धसे युक्त है ॥ ४१-४२ ॥ उदारशिरोमणि भगवान् के जिन चरणकमलोंका
स्पर्श उनके गौ चराते समय गोप, गोपियाँ, भीलिनें, तिनके और घास लताएँतक करना चाहती थीं,
उन्हींकी हमें भी चाह है ॥ ४३ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे
उत्तरार्धे
त्र्यशीतितमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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