॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीभगवान्
के द्वारा वसुदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश
तथा देवकी जी
के छ: पुत्रों को लौटा लाना
ऋषिरुवाच
एवं सञ्चोदितौ मात्रा रामः कृष्णश्च भारत
सुतलं संविविशतुर्योगमायामुपाश्रितौ ३४
तस्मिन्प्रविष्टावुपलभ्य दैत्यराड्
विश्वात्मदैवं सुतरां तथात्मनः
तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुताशयः
सद्यः समुत्थाय ननाम सान्वयः ३५
तयोः समानीय वरासनं मुदा
निविष्टयोस्तत्र महात्मनोस्तयोः
दधार पादाववनिज्य तज्जलं
सवृन्द आब्रह्म पुनद्यदम्बु ह ३६
समर्हयामास स तौ विभूतिभि-
र्महार्हवस्त्राभरणानुलेपनैः
ताम्बूलदीपामृतभक्षणादिभिः
स्वगोत्रवित्तात्मसमर्पणेन च ३७
स इन्द्रसेनो भगवत्पदाम्बुजं
बिभ्रन्मुहुः प्रेमविभिन्नया धिया
उवाच हानन्दजलाकुलेक्षणः
प्रहृष्टरोमा नृप गद्गदाक्षरम् ३८
बलिरुवाच
नमोऽनन्ताय बृहते नमः कृष्णाय वेधसे
साङ्ख्ययोगवितानाय ब्रह्मणे परमात्मने ३९
दर्शनं वां हि भूतानां दुष्प्रापं चाप्यदुर्लभम्
रजस्तमः स्वभावानां यन्नः प्राप्तौ यदृच्छया ४०
दैत्यदानवगन्धर्वाः सिद्धविद्याध्रचारणाः
यक्षरक्षः पिशाचाश्च भूतप्रमथनायकाः ४१
विशुद्धसत्त्वधाम्न्यद्धा त्वयि शास्त्रशरीरिणि
नित्यं निबद्धवैरास्ते वयं चान्ये च तादृशाः ४२
केचनोद्बद्धवैरेण भक्त्या केचन कामतः
न तथा सत्त्वसंरब्धाः सन्निकृष्टाः सुरादयः ४३
इदमित्थमिति प्रायस्तव योगेश्वरेश्वर
न विदन्त्यपि योगेशा योगमायां कुतो वयम् ४४
तन्नः प्रसीद निरपेक्षविमृग्ययुष्मत्
पादारविन्दधिषणान्यगृहान्धकूपात्
निष्क्रम्य विश्वशरणाङ्घ्र्युपलब्धवृत्तिः
शान्तो यथैक उत सर्वसखैश्चरामि ४५
शाध्यस्मानीशितव्येश निष्पापान्कुरु नः प्रभो
पुमान्यच्छ्रद्धयातिष्ठंश्चोदनाया विमुच्यते ४६
श्रीभगवानुवाच
आसन्मरीचेः षट्पुत्रा ऊर्णायां प्रथमेऽन्तरे
देवाः कं जहसुर्वीक्ष्य सुतं यभितुमुद्यतम् ४७
तेनासुरीमगन्योनिमधुनावद्यकर्मणा
हिरण्यकशिपोर्जाता नीतास्ते योगमायया ४८
देवक्या उदरे जाता राजन्कंसविहिंसिताः
सा तान्शोचत्यात्मजान्स्वांस्त इमेऽध्यासतेऽन्तिके ४९
इत एतान्प्रणेष्यामो मातृशोकापनुत्तये
ततः शापाद्विनिर्मुक्ता लोकं यास्यन्ति विज्वराः ५०
स्मरोद्गीथः परिष्वङ्गः पतङ्गः क्षुद्रभृद्घृणी
षडिमे मत्प्रसादेन पुनर्यास्यन्ति सद्गतिम् ५१
इत्युक्त्वा तान्समादाय इन्द्रसेनेन पूजितौ
पुनर्द्वारवतीमेत्य मातुः पुत्रानयच्छताम् ५२
तान्दृष्ट्वा बालकान्देवी पुत्रस्नेहस्नुतस्तनी
परिष्वज्याङ्कमारोप्य मूर्ध्न्यजिघ्रदभीक्ष्णशः ५३
अपाययत्स्तनं प्रीता सुतस्पर्शपरिस्नुतम्
मोहिता मायया विष्णोर्यया सृष्टिः प्रवर्तते ५४
पीत्वामृतं पयस्तस्याः पीतशेषं गदाभृतः
नारायणाङ्गसंस्पर्श प्रतिलब्धात्मदर्शनाः ५५
ते नमस्कृत्य गोविन्दं देवकीं पितरं बलम्
मिषतां सर्वभूतानां ययुर्धाम दिवौकसाम् ५६
तं दृष्ट्वा देवकी देवी मृतागमननिर्गमम्
मेने सुविस्मिता मायां कृष्णस्य रचितां नृप ५७
एवंविधान्यद्भुतानि कृष्णस्य परमात्मनः
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य सन्त्यनन्तानि भारत ५८
श्रीसूत उवाच
य इदमनुशृणोति श्रावयेद्वा मुरारेश्
चरितममृतकीर्तेर्वर्णितं व्यासपुत्रैः
जगदघभिदलं तद्भक्तसत्कर्णपूरं
भगवति कृतचित्तो याति तत्क्षेमधाम ५९
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—प्रिय परीक्षित् ! माता देवकीजीकी
यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंने योगमायाका आश्रय लेकर सुतल
लोकमें प्रवेश किया ॥ ३४ ॥ जब दैत्यराज बलिने देखा कि जगत्के आत्मा और इष्टदेव तथा
मेरे परम स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सुतल लोकमें पधारे हैं, तब उनका हृदय उनके दर्शनके आनन्दमें निमग्र हो गया। उन्होंने झटपट अपने
कुटुम्बके साथ आसनसे उठकर भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ अत्यन्त आनन्दसे
भरकर दैत्यराज बलिने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको श्रेष्ठ आसन दिया और जब वे
दोनों महापुरुष उसपर विराज गये, तब उन्होंने उनके पाँव पखारकर
उनका चरणोदक परिवारसहित अपने सिरपर धारण किया। परीक्षित् ! भगवान्के चरणोंका जल
ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत् को पवित्र कर देता है ॥ ३६ ॥ इसके बाद दैत्यराज बलिने
बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, चन्दन,
ताम्बूल, दीपक, अमृतके
समान भोजन एवं अन्य विविध सामग्रियोंसे उनकी पूजा की और अपने समस्त परिवार,
धन तथा शरीर आदिको उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया ॥ ३७ ॥ परीक्षित्
! दैत्यराज बलि बार- बार भगवान् के चरणकमलोंको अपने वक्ष:स्थल और सिरपर रखने लगे,
उनका हृदय प्रेमसे विह्वल हो गया। नेत्रोंसे आनन्द के आँसू बहने
लगे। रोम-रोम खिल उठा। अब वे गद्गद स्वरसे भगवान् की स्तुति करने लगे ॥ ३८ ॥
दैत्यराज
बलिने कहा—बलरामजी ! आप अनन्त हैं। आप
इतने महान् हैं कि शेष आदि सभी विग्रह आपके अन्तर्भूत हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप
श्रीकृष्ण ! आप सकल जगत्के निर्माता हैं। ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनोंके प्रवर्तक
आप ही हैं। आप स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं। हम आप दोनोंको बार-बार नमस्कार
करते हैं ॥ ३९ ॥ भगवन् ! आप दोनोंका दर्शन प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है।
फिर भी आपकी कृपासे वह सुलभ हो जाता है। क्योंकि आज आपने कृपा करके हम रजोगुणी एवं
तमोगुणी स्वभाववाले दैत्योंको भी दर्शन दिया है ॥ ४० ॥ प्रभो ! हम और हमारे ही
समान दूसरे दैत्य, दानव, गन्धर्व,
सिद्ध, विद्याधर, चारण,
यक्ष, राक्षस, पिशाच,
भूत और प्रमथनायक आदि आपका प्रेमसे भजन करना तो दूर रहा, आपसे सर्वदा दृढ़ वैरभाव रखते हैं; परन्तु आपका
श्रीविग्रह साक्षात् वेदमय और विशुद्ध सत्त्वस्वरूप है। इसलिये हमलोगोंमेंसे
बहुतोंने दृढ़ वैरभावसे, कुछने भक्तिसे और कुछने कामनासे
आपका स्मरण करके उस पदको प्राप्त किया है, जिसे आपके समीप
रहनेवाले सत्त्वप्रधान देवता आदि भी नहीं प्राप्त कर सकते ॥ ४१-४३ ॥ योगेश्वरोंके
अधीश्वर ! बड़े-बड़े योगेश्वर भी प्राय: यह बात नहीं जानते कि आपकी योगमाया यह है
और ऐसी है; फिर हमारी तो बात ही क्या है ? ॥ ४४ ॥ इसलिये स्वामी ! मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी चित्त-वृत्ति आपके
उन चरणकमलोंमें लग जाय, जिसे किसीकी अपेक्षा न रखनेवाले
परमहंस लोग ढूँढ़ा करते हैं; और उनका आश्रय लेकर मैं उससे
भिन्न इस घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँसे निकल जाऊँ। प्रभो ! इस प्रकार आपके उन
चरणकमलोंकी, जो सारे जगत्के एकमात्र आश्रय हैं, शरण लेकर शान्त हो जाऊँ और अकेला ही विचरण करूँ। यदि कभी किसीका सङ्ग करना
ही पड़े तो सबके परम हितैषी संतोंका ही ॥ ४५ ॥ प्रभो ! आप समस्त चराचर जगत्के
नियन्ता और स्वामी हैं। आप हमें आज्ञा देकर निष्पाप बनाइए हमारे पापोंका नाश कर
दीजिये; क्योंकि जो पुरुष श्रद्धाके साथ आपकी आज्ञाका पालन
करता है, वह विधि-निषेधके बन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण ने कहा—‘दैत्यराज ! स्वायम्भुव
मन्वन्तरमें प्रजापति मरीचिकी पत्नी ऊर्णाके गर्भसे छ: पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे
सभी देवता थे। वे यह देखकर कि ब्रह्माजी अपनी पुत्रीसे समागम करनेके लिये उद्यत
हैं, हँसने लगे ॥ ४७ ॥ इस परिहासरूप अपराधके कारण उन्हें
ब्रह्माजीने शाप दे दिया और वे असुर-योनिमें हिरण्यकशिपुके पुत्ररूपसे उत्पन्न
हुए। अब योगमायाने उन्हें वहाँसे लाकर देवकीके गर्भमें रख दिया और उनको उत्पन्न
होते ही कंसने मार डाला। दैत्यराज ! माता देवकीजी अपने उन पुत्रोंके लिये अत्यन्त
शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं ॥ ४८-४९ ॥ अत: हम अपनी माताका शोक दूर
करनेके लिये इन्हें यहाँसे ले जायँगे। इसके बाद ये शापसे मुक्त हो जायँगे और
आनन्दपूर्वक अपने लोकमें चले जायँगे ॥ ५० ॥ इनके छ: नाम हैं—स्मर,
उद्गीथ, परिष्वङ्ग, पतङ्ग,
क्षुद्रभृत् और घृणि। इन्हें मेरी कृपासे पुन: सद्गति प्राप्त होगी’
॥ ५१ ॥ परीक्षित् ! इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो गये।
दैत्यराज बलिने उनकी पूजा की; इसके बाद श्रीकृष्ण और बलरामजी
बालकोंको लेकर फिर द्वारका लौट आये तथा माता देवकीको उनके पुत्र सौंप दिये ॥ ५२ ॥
उन बालकोंको देखकर देवी देवकीके हृदयमें वात्सल्य-स्नेहकी बाढ़ आ गयी। उनके
स्तनोंसे दूध बहने लगा। वे बार-बार उन्हें गोदमें लेकर छातीसे लगातीं और उनका सिर
सूँघतीं ॥ ५३ ॥ पुत्रोंके स्पर्शके आनन्दसे सराबोर एवं आनन्दित देवकीने उनको
स्तन-पान कराया। वे विष्णुभगवान् की उस मायासे मोहित हो रही थीं, जिससे यह सृष्टि-चक्र चलता है ॥ ५४ ॥ परीक्षित् ! देवकीजीके स्तनोंका दूध
साक्षात् अमृत था; क्यों न हो, भगवान्
श्रीकृष्ण जो उसे पी चुके थे ! उन बालकोंने वही अमृतमय दूध पिया। उस दूधके पीनेसे
और भगवान् श्रीकृष्णके अङ्गोंका संस्पर्श होनेसे उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया ॥
५५ ॥ इसके बाद उन लोगोंने भगवान् श्रीकृष्ण, माता देवकी,
पिता वसुदेव और बलरामजीको नमस्कार किया। तदनन्तर सबके सामने ही वे
देवलोकमें चले गये ॥ ५६ ॥ परीक्षित् ! देवी देवकी यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो
गयीं कि मरे हुए बालक लौट आये और फिर चले भी गये। उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि यह
श्रीकृष्णका ही कोई लीला-कौशल है ॥ ५७ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं
परमात्मा हैं, उनकी शक्ति अनन्त है। उनके ऐसे-ऐसे अद्भुत
चरित्र इतने हैं कि किसी प्रकार उनका पार नहीं पाया जा सकता ॥ ५८ ॥
सूतजी कहते
हैं—शौनकादि ऋषियो ! भगवान्
श्रीकृष्णकी कीर्ति अमर है, अमृतमयी है। उनका चरित्र जगत् के
समस्त पाप-तापों को मिटानेवाला तथा भक्तजनोंके कर्णकुहरों में आनन्दसुधा प्रवाहित
करनेवाला है। इसका वर्णन स्वयं व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी ने किया है। जो
इसका श्रवण करता है अथवा दूसरोंको सुनाता है, उसकी सम्पूर्ण
चित्तवृत्ति भगवान्में लग जाती है और वह उन्हींके परम कल्याणस्वरूप धाम को
प्राप्त होता है ॥ ५९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मृताग्रजानयनं नाम
पञ्चाशीतितमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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