॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छियासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
सुभद्राहरण और
भगवान् का मिथिलापुरी में राजा जनक
और श्रुतदेव
ब्राह्मण के घर एक ही साथ जाना
श्रीराजोवाच -
ब्रह्मन् वेदितुमिच्छामः स्वसारं रामकृष्णयोः ।
यथोपयेमे विजयो या
ममासीत् पितामही ॥ १ ॥
श्रीशुक उवाच -
अर्जुनस्तीर्थयात्रायां पर्यटन् अवनीं प्रभुः ।
गतः
प्रभासमश्रृणोन् मातुलेयीं स आत्मनः ॥ २ ॥
दुर्योधनाय
रामस्तां दास्यतीति न चापरे ।
तल्लिप्सुः स
यतिर्भूत्वा त्रिदण्डी द्वारकामगात् ॥ ३ ॥
तत्र वै वार्षिकान्
मासान् अवात्सीत् स्वार्थसाधकः ।
पौरैः
सभाजितोऽभीक्ष्णं रामेणाजानता च सः ॥ ४ ॥
एकदा गृहमानीय
आतिथ्येन निमंत्र्य तम् ।
श्रद्धयोपहृतं
भैक्ष्यं बलेन बुभुजे किल ॥ ५ ॥
सोऽपश्यत्तत्र
महतीं कन्यां वीरमनोहराम् ।
प्रीत्युत्फुल्लेक्षणस्तस्यां भावक्षुब्धं मनो
दधे ॥ ६ ॥
सापि तं चकमे
वीक्ष्य नारीणां हृदयंगमम् ।
हसन्ती
व्रीडितापाङ्गी तन्न्यस्तहृदयेक्षणा ॥ ७ ॥
तां परं
समनुध्यायन् नन्तरं प्रेप्सुरर्जुनः ।
न लेभे शं
भ्रमच्चित्तः कामेनातिबलीयसा ॥ ८ ॥
महत्यां
देवयात्रायां रथस्थां दुर्गनिर्गतां ।
जहारानुमतः पित्रोः
कृष्णस्य च महारथः ॥ ९ ॥
रथस्थो धनुरादाय
शूरांश्चारुन्धतो भटान् ।
विद्राव्य क्रोशतां
स्वानां स्वभागं मृगराडिव ॥ १० ॥
तच्छ्रुत्वा
क्षुभितो रामः पर्वणीव महार्णवः ।
गृहीतपादः कृष्णेन
सुहृद्भिश्चानुसाम्यत ॥ ११ ॥
प्राहिणोत्पारिबर्हाणि वरवध्वोर्मुदा बलः ।
महाधनोपस्करेभ
रथाश्वनरयोषितः ॥ १२ ॥
श्रीशुक उवाच -
कृष्णस्यासीद् द्विजश्रेष्ठः श्रुतदेव इति श्रुतः ।
कृष्णैकभक्त्या
पूर्णार्थः शान्तः कविरलम्पटः ॥ १३ ॥
स उवास विदेहेषु
मिथिलायां गृहाश्रमी ।
अनीहयागताहार्य
निर्वर्तितनिजक्रियः ॥ १४ ॥
यात्रामात्रं
त्वहरहः दैवाद् उपनमत्युत ।
नाधिकं तावता
तुष्टः क्रिया चक्रे यथोचिताः ॥ १५ ॥
तथा तद्राष्ट्रपालोऽङ्ग
बहुलाश्व इति श्रुतः ।
मैथिलो निरहम्मान
उभावप्यच्युतप्रियौ ॥ १६ ॥
तयोः प्रसन्नो
भगवान् दारुकेणाहृतं रथम् ।
आरुह्य साकं
मुनिभिः विदेहान् प्रययौ प्रभुः ॥ १७ ॥
नारदो
वामदेवोऽत्रिः कृष्णो रामोऽसितोऽरुणिः ।
अहं बृहस्पतिः
कण्वो मैत्रेयश्च्यवनादयः ॥ १८ ॥
तत्र तत्र
तमायान्तं पौरा जानपदा नृप ।
उपतस्थुः
सार्घ्यहस्ता ग्रहैः सूर्यमिवोदितम् ॥ १९ ॥
आनर्तधन्वकुरुजाङ्गलकङ्कमत्स्य
पाञ्चालकुन्तिमधुकेकयकोशलार्णाः ।
अन्ये च
तन्मुखसरोजमुदारहास
स्निग्धेक्षणं
नृप पपुर्दृशिभिर्नृनार्यः ॥ २० ॥
तेभ्यः
स्ववीक्षणविनष्टतमिस्रदृग्भ्यः
क्षेमं
त्रिलोकगुरुरर्थदृशं च यच्छन् ।
श्रृणवन्
दिगन्तधवलं स्वयशोऽशुभघ्नं
गीतं
सुरैर्नृभिरगात् शनकैर्विदेहान् ॥ २१ ॥
तेऽच्युतं प्राप्तमाकर्ण्य पौरा जानपदा नृप ।
अभीयुर्मुदितास्तस्मै गृहीतार्हणपाणयः ॥ २२ ॥
दृष्ट्वा त
उत्तमःश्लोकं प्रीत्युत्फुलाननाशयाः ।
कैर्धृताञ्जलिभिर्नेमुः श्रुतपूर्वान् तथा मुनीन्
॥ २३ ॥
स्वानुग्रहाय
सम्प्राप्तं मन्वानौ तं जगद्गुरुम् ।
मैथिलः श्रुतदेवश्च
पादयोः पेततुः प्रभोः ॥ २४ ॥
न्यमन्त्रयेतां
दाशार्हं आतिथ्येन सह द्विजैः ।
मैथिलः श्रुतदेवश्च
युगपत् संहताञ्जली ॥ २५ ॥
भगवान् तदभिप्रेत्य
द्वयोः प्रियचिकीर्षया ।
उभयोराविशद् गेहं
उभाभ्यां तदलक्षितः ॥ २६ ॥
श्रोतुमप्यसतां
दूरान् जनकः स्वगृहागतान् ।
आनीतेष्वासनाग्र्येषु सुखासीनान् महामनाः ॥ २७ ॥
प्रवृद्धभक्त्या
उद्धर्ष हृदयास्राविलेक्षणः ।
नत्वा तदङ्घ्रीन्
प्रक्षाल्य तदपो लोकपावनीः ॥ २८ ॥
सकुटुम्बो
वहन्मूर्ध्ना पूजयां चक्र ईश्वरान् ।
गन्धमाल्याम्बराकल्प धूपदीपार्घ्यगोवृषैः ॥ २९ ॥
वाचा मधुरया
प्रीणन् इदमाहान्नतर्पितान् ।
पादावङ्कगतौ
विष्णोः संस्पृशञ्छनकैर्मुदा ॥ ३० ॥
राजा
परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! मेरे दादा अर्जुनने
भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीकी बहिन सुभद्राजीसे, जो मेरी
दादी थीं, किस प्रकार विवाह किया ? मैं
यह जाननेके लिये बहुत उत्सुक हूँ ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—परीक्षित् ! एक बार अत्यन्त
शक्तिशाली अर्जुन तीर्थयात्राके लिये पृथ्वीपर विचरण करते हुए प्रभासक्षेत्र
पहुँचे। वहाँ उन्होंने यह सुना कि बलरामजी मेरे मामाकी पुत्री सुभद्राका विवाह
दुर्योधनके साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि
उनसे इस विषयमें सहमत नहीं हैं। अब अर्जुनके मनमें सुभद्राको पानेकी लालसा जग आयी।
वे त्रिदण्डी वैष्णवका वेष धारण करके द्वारका पहुँचे ॥ २-३ ॥ अर्जुन सुभद्राको
प्राप्त करनेके लिये वहाँ वर्षाकालमें चार महीनेतक रहे। वहाँ पुरवासियों और
बलरामजीने उनका खूब सम्मान किया। उन्हें यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं ॥ ४ ॥
एक दिन
बलरामजीने आतिथ्यके लिये उन्हें निमन्त्रित किया और उनको वे अपने घर ले आये।
त्रिदण्डी-वेषधारी अर्जुनको बलरामजीने अत्यन्त श्रद्धाके साथ भोजन-सामग्री निवेदित
की और उन्होंने बड़े प्रेमसे भोजन किया ॥ ५ ॥ अर्जुनने भोजनके समय वहाँ विवाहयोग्य
परम सुन्दरी सुभद्राको देखा। उसका सौन्दर्य बड़े-बड़े वीरोंका मन हरनेवाला था।
अर्जुनके नेत्र प्रेमसे प्रफुल्लित हो गये। उनका मन उसे पानेकी आकाङ्क्षासे
क्षुब्ध हो गया और उन्होंने उसे पत्नी बनानेका दृढ़ निश्चय कर लिया ॥ ६ ॥
परीक्षित् ! तुम्हारे दादा अर्जुन भी बड़े ही सुन्दर थे। उनके शरीरकी गठन, भाव-भङ्गी स्त्रियोंका हृदय स्पर्श कर लेती
थी। उन्हें देखकर सुभद्राने भी मनमें उन्हींको पति बनानेका निश्चय किया। वह तनिक
मुसकराकर लजीली चितवनसे उनकी ओर देखने लगी। उसने अपना हृदय उन्हें समर्पित कर दिया
॥ ७ ॥ अब अर्जुन केवल उसीका चिन्तन करने लगे और इस बातका अवसर ढूँढऩे लगे कि इसे
कब हर ले जाऊँ ! सुभद्राको प्राप्त करनेकी उत्कट कामनासे उनका चित्त चक्कर काटने
लगा, उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी ॥ ८ ॥
एक बार
सुभद्राजी देव-दर्शनके लिये रथपर सवार होकर द्वारका-दुर्गसे बाहर निकलीं। उसी समय
महारथी अर्जुनने देवकी-वसुदेव और श्रीकृष्णकी अनुमतिसे सुभद्राका हरण कर लिया ॥ ९
॥ रथपर सवार होकर वीर अर्जुनने धनुष उठा लिया और जो सैनिक उन्हें रोकनेके लिये आये, उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। सुभद्राके
निज-जन रोते-चिल्लाते रह गये और अर्जुन जिस प्रकार सिंह अपना भाग लेकर चल देता है,
वैसे ही सुभद्राको लेकर चल पड़े ॥ १० ॥ यह समाचार सुनकर बलरामजी
बहुत बिगड़े। वे वैसे ही क्षुब्ध हो उठे, जैसे पूर्णिमाके
दिन समुद्र। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण तथा अन्य सुहृद्-सम्बन्धियोंने उनके पैर
पकडक़र उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया, तब वे शान्त हुए ॥ ११
॥ इसके बाद बलरामजीने प्रसन्न होकर वर-वधूके लिये बहुत-सा धन, सामग्री, हाथी, रथ, घोड़े और दासी-दास दहेजमें भेजे ॥ १२ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! विदेहकी राजधानी
मिथिलामें एक गृहस्थ ब्राह्मण थे। उनका नाम था श्रुतदेव। वे भगवान् श्रीकृष्णके
परम भक्त थे। वे एकमात्र भगवद्भक्तिसे ही पूर्णमनोरथ, परम
शान्त, ज्ञानी और विरक्त थे ॥ १३ ॥ वे गृहस्थाश्रममें रहते
हुए भी किसी प्रकारका उद्योग नहीं करते थे; जो कुछ मिल जाता,
उसीसे अपना निर्वाह कर लेते थे ॥ १४ ॥ प्रारब्धवश प्रतिदिन उन्हें
जीवन-निर्वाहभरके लिये सामग्री मिल जाया करती थी, अधिक नहीं।
वे उतनेसे ही सन्तुष्ट भी थे, और अपने वर्णाश्रमके अनुसार
धर्मपालनमें तत्पर रहते थे ॥ १५ ॥ प्रिय परीक्षित् ! उस देशके राजा भी, ब्राह्मणके समान ही भक्तिमान् थे। मैथिलवंशके उन प्रतिष्ठित नरपतिका नाम
था बहुलाश्व। उनमें अहङ्कारका लेश भी न था। श्रुतदेव और बहुलाश्व दोनों ही भगवान्
श्रीकृष्णके प्यारे भक्त थे ॥ १६ ॥
एक बार भगवान्
श्रीकृष्णने उन दोनोंपर प्रसन्न होकर दारुकसे रथ मँगवाया और उसपर सवार होकर
द्वारकासे विदेह देशकी ओर प्रस्थान किया ॥ १७ ॥ भगवान्के साथ नारद, वामदेव, अत्रि,
वेदव्यास, परशुराम, असित,
आरुणि, मैं (शुकदेव), बृहस्पति,
कण्व, मैत्रेय, च्यवन
आदि ऋषि भी थे ॥ १८ ॥ परीक्षित् ! वे जहाँ-जहाँ पहुँचते, वहाँ-वहाँकी
नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजाकी सामग्री लेकर उपस्थित होती। पूजा करनेवालोंको
भगवान् ऐसे जान पड़ते, मानो ग्रहोंके साथ साक्षात्
सूर्यनारायण उदय हो रहे हों ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! उस यात्रामें आनर्त, धन्व, कुरु- जांगल, कङ्क,
मत्स्य, पाञ्चाल, कुन्ति,
मधु, केकय, कोसल,
अर्ण आदि अनेक देशोंके नर- नारियोंने अपने नेत्ररूपी दोनोंसे भगवान्
श्रीकृष्णके उन्मुक्त हास्य और प्रेमभरी चितवनसे युक्त मुखारविन्दके मकरन्द-रसका
पान किया ॥ २० ॥ त्रिलोकगुरु भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे उन लोगोंकी अज्ञानदृष्टि
नष्ट हो गयी। प्रभु-दर्शन करनेवाले नर-नारियोंको अपनी दृष्टिसे परम कल्याण और
तत्त्वज्ञानका दान करते चल रहे थे। स्थान-स्थानपर मनुष्य और देवता भगवान्की उस
कीर्तिका गान करके सुनाते, जो समस्त दिशाओंको उज्ज्वल
बनानेवाली एवं समस्त अशुभों का विनाश करनेवाली है। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण
धीरे-धीरे विदेह देशमें पहुँचे ॥२१॥
परीक्षित् !
भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमन का समाचार सुनकर नागरिक और ग्रामवासियोंके आनन्दकी
सीमा न रही। वे अपने हाथोंमें पूजाकी विविध सामग्रियाँ लेकर उनकी अगवानी करने आये
॥ २२ ॥ भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करके उनके हृदय और मुखकमल प्रेम और आनन्दसे खिल
उठे। उन्होंने भगवान्को तथा उन मुनियोंको,
जिनका नाम केवल सुन रखा था, देखा न था—हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ॥ २३ ॥ मिथिलानरेश बहुलाश्व और
श्रुतदेवने, यह समझकर कि जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण
हमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही पधारे हैं, उनके चरणोंपर
गिरकर प्रणाम किया ॥ २४ ॥ बहुलाश्व और श्रुतदेव दोनोंने ही एक साथ हाथ जोडक़र
मुनि-मण्डलीके सहित भगवान् श्रीकृष्णको आतिथ्य ग्रहण करनेके लिये निमन्त्रित किया
॥ २५ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण दोनोंकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनोंको ही प्रसन्न
करनेके लिये एक ही समय पृथक्-पृथक्-रूपसे दोनोंके घर पधारे और यह बात एक-दूसरेको
मालूम न हुई कि भगवान् श्रीकृष्ण मेरे घरके अतिरिक्त और कहीं भी जा रहे हैं ॥ २६
॥ विदेहराज बहुलाश्व बड़े मनस्वी थे; उन्होंने यह देखकर कि
दुष्ट-दुराचारी पुरुष जिनका नाम भी नहीं सुन सकते, वे ही
भगवान् श्रीकृष्ण और ऋषि- मुनि मेरे घर पधारे हैं, सुन्दर-सुन्दर
आसन मँगाये और भगवान् श्रीकृष्ण तथा ऋषि-मुनि आरामसे उनपर बैठ गये। उस समय
बहुलाश्वकी विचित्र दशा थी। प्रेम-भक्तिके उद्रेकसे उनका हृदय भर आया था।
नेत्रोंमें आँसू उमड़ रहे थे। उन्होंने अपने पूज्यतम अतिथियोंके चरणोंमें नमस्कार
करके पाँव पखारे और अपने कुटुम्बके साथ उनके चरणोंका लोकपावन जल सिरपर धारण किया
और फिर भगवान् एवं भगवत्स्वरूप ऋषियोंको गन्ध, माला,
वस्त्र, अलङ्कार, धूप,
दीप, अघ्र्य, गौ,
बैल आदि समर्पित करके उनकी पूजा की ॥ २७—२९ ॥
जब सब लोग भोजन करके तृप्त हो गये, तब राजा बहुलाश्व भगवान्
श्रीकृष्णके चरणोंको अपनी गोद में लेकर बैठ गये। और बड़े आनन्दसे धीरे-धीरे उन्हें
सहलाते हुए बड़ी मधुर वाणीसे भगवान् की स्तुति करने लगे ॥ ३० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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