॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छियासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
सुभद्राहरण और
भगवान् का मिथिलापुरी में राजा जनक
और श्रुतदेव ब्राह्मण
के घर एक ही साथ जाना
श्रीबहुलाश्व उवाच -
भवान्हि सर्वभूतानां आत्मा साक्षी स्वदृग् विभो ।
अथ
नस्त्वत्पदाम्भोजं स्मरतां दर्शनं गतः ॥ ३१ ॥
स्ववचस्तदृतं
कर्तुं अस्मद्दृग्गोचरो भवान् ।
यदात्थैकान्तभक्तान् मे नानन्तः श्रीरजः प्रियः
॥ ३२ ॥
को नु त्वच्चरणाम्भोजं
एवंविद् विसृजेत् पुमान् ।
निष्किञ्चनानां
शान्तानां मुनीनां यस्त्वमात्मदः ॥ ३३ ॥
योऽवतीर्य
यदोर्वंशे नृणां संसरतामिह ।
यशो वितेने
तच्छान्त्यै त्रैलोक्यवृजिनापहम् ॥ ३४ ॥
नमस्तुभ्यं भगवते
कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
नारायणाय ऋषये
सुशान्तं तप ईयुषे ॥ ३५ ॥
दिनानि कतिचिद्
भूमन् गृहान् नो निवस द्विजैः ।
समेतः पादरजसा
पुनीहीदं निमेः कुलम् ॥ ३६ ॥
इत्युपामन्त्रितो
राज्ञा भगवान् लोकभावनः ।
उवास कुर्वन्
कल्याणं मिथिलानरयोषिताम् ॥ ३७ ॥
श्रुतदेवोऽच्युतं
प्राप्तं स्वगृहाञ्जनको यथा ।
नत्वा मुनीन्
सुसंहृष्टो धुन्वन् वासो ननर्त ह ॥ ३८ ॥
तृणपीठबृषीष्वेतान्
आनीतेषूपवेश्य सः ।
स्वागतेनाभिनन्द्याङ्घ्रीन् सभार्योऽवनिजे मुदा
॥ ३९ ॥
तदम्भसा महाभाग
आत्मानं सगृहान्वयम् ।
स्नापयां चक्र
उद्धर्षो लब्धसर्वमनोरथः ॥ ४० ॥
फलार्हणोशीरशिवामृताम्बुभिः
मृदा सुरभ्या तुलसीकुशाम्बुजैः
।
आराधयामास
यथोपपन्नया
सपर्यया
सत्त्वविवर्धनान्धसा ॥ ४१ ॥
स तर्कयामास कुतो
ममान्वभूद्
गृहान्धकुपे
पतितस्य सङ्गमः ।
यः
सर्वतीर्थास्पदपादरेणुभिः
कृष्णेन
चास्यात्मनिकेतभूसुरैः ॥ ४२ ॥
सूपविष्टान् कृतातिथ्यान् श्रुतदेव उपस्थितः ।
सभार्यस्वजनापत्य
उवाचाङ्घ्र्यभिमर्शनः ॥ ४३ ॥
श्रुतदेव उवाच -
नाद्य नो दर्शनं प्राप्तः परं परमपूरुषः ।
यर्हीदं शक्तिभिः
सृष्ट्वा प्रविष्टो ह्यात्मसत्तया ॥ ४४ ॥
यथा शयानः पुरुषो
मनसैवात्ममायया ।
सृष्ट्वा लोकं परं
स्वाप्नं अनुविश्यावभासते ॥ ४५ ॥
श्रृणतां गदतां
शश्वद् अर्चतां त्वाभिवन्दताम् ।
णृणां संवदतामन्तः
हृदि भास्यमलात्मनाम् ॥ ४६ ॥
हृदिस्थोऽप्यतिदूरस्थः कर्मविक्षिप्तचेतसाम् ।
आत्मशक्तिभिरग्राह्योऽपि अन्त्युपेतगुणात्मनाम्
॥ ४७ ॥
नमोऽस्तु तेऽध्यात्मविदां परात्मने
अनात्मने
स्वात्मविभक्तमृत्यवे ।
सकारणाकारणलिङ्गमीयुषे
स्वमाययासंवृतरुद्धदृष्टये ॥ ४८ ॥
स त्वं शाधि स्वभृत्यान् नः किं देव करवाम हे ।
एतदन्तो नृणां
क्लेशो यद्भवानक्षिगोचरः ॥ ४९ ॥
श्रीशुक उवाच -
तदुक्तमित्युपाकर्ण्य भगवान् प्रणतार्तिहा ।
गृहीत्वा पाणिना
पाणिं प्रहसन् तमुवाच ह ॥ ५० ॥
श्रीभगवानुवाच -
ब्रह्मंस्तेऽनुग्रहार्थाय सम्प्राप्तान् विद्ध्यमून् मुनीन्
।
सञ्चरन्ति मया
लोकान् पुनन्तः पादरेणुभिः ॥ ५१ ॥
देवाः क्षेत्राणि
तीर्थानि दर्शनस्पर्शनार्चनैः ।
शनैः पुनन्ति कालेन
तदप्यर्हत्तमेक्षया ॥ ५२ ॥
ब्राह्मणो जन्मना
श्रेयान् सर्वेषां प्राणिनामिह ।
तपसा विद्यया
तुष्ट्या किमु मत्कलया युतः ॥ ५३ ॥
न ब्राह्मणान्मे
दयितं रूपमेतच्चतुर्भुजम् ।
सर्ववेदमयो विप्रः
सर्वदेवमयो ह्यहम् ॥ ५४ ॥
दुष्प्रज्ञा
अविदित्वैवं अवजानन्त्यसूयवः ।
गुरुं मां
विप्रमात्मानं अर्चादाविज्यदृष्टयः ॥ ५५ ॥
चराचरमिदं विश्वं
भावा ये चास्य हेतवः ।
मद् रूपाणीति
चेतस्य आधत्ते विप्रो मदीक्षया ॥ ५६ ॥
तस्माद् ब्रह्मऋषीनेतान् ब्रह्मन् मच्छ्रद्धयार्चय ।
एवं
चेदर्चितोऽस्म्यद्धा नान्यथा भूरिभूतिभिः ॥ ५७ ॥
श्रीशुक उवाच -
स इत्थं प्रभुनादिष्टः सहकृष्णान् द्विजोत्तमान् ।
आराध्यैकात्मभावेन
मैथिलश्चाप सद्गतिम् ॥ ५८ ॥
एवं स्वभक्तयो
राजन् भगवान् भक्तभक्तिमान् ।
उषित्वाऽऽदिश्य
सन्मार्गं पुनर्द्वारवतीमगात् ॥ ५९ ॥
राजा
बहुलाश्वने कहा—‘प्रभो ! आप समस्त
प्राणियोंके आत्मा, साक्षी एवं स्वयंप्रकाश हैं। हम
सदा-सर्वदा आपके चरणकमलोंका स्मरण करते रहते हैं। इसीसे आपने हमलोगोंको दर्शन देकर
कृतार्थ किया है ॥ ३१ ॥ भगवन् ! आपके वचन हैं कि मेरा अनन्यप्रेमी भक्त मुझे अपने
स्वरूप बलरामजी, अर्धाङ्गिनी लक्ष्मी और पुत्र ब्रह्मासे भी
बढक़र प्रिय है। अपने उन वचनोंको सत्य करनेके लिये ही आपने हमलोगोंको दर्शन दिया है
॥ ३२ ॥ भला, ऐसा कौन पुरुष है, जो आपकी
इस परम दयालुता और प्रेम-परवशताको जानकर भी आपके चरणकमलोंका परित्याग कर सके ?
प्रभो ! जिन्होंने जगत्की समस्त वस्तुओंका एवं शरीर आदिका भी मनसे
परित्याग कर दिया है, उन परम शान्त मुनियोंको आप अपनेतकको भी
दे डालते हैं ॥ ३३ ॥ आपने यदुवंशमें अवतार लेकर जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़े हुए
मनुष्योंको उससे मुक्त करनेके लिये जगत्में ऐसे विशुद्ध यशका विस्तार किया है,
जो त्रिलोकीके पाप-तापको शान्त करनेवाला है ॥ ३४ ॥ प्रभो ! आप
अचिन्त्य, अनन्त ऐश्वर्य और माधुर्यकी निधि हैं; सबके चित्तको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये आप सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म
हैं। आपका ज्ञान अनन्त है। परम शान्तिका विस्तार करनेके लिये आप ही नारायण ऋषिके
रूपमें तपस्या कर रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३५ ॥ एकरस अनन्त ! आप कुछ
दिनोंतक मुनिमण्डलीके साथ हमारे यहाँ निवास कीजिये और अपने चरणोंकी धूलसे इस
निमिवंशको पवित्र कीजिये’ ॥ ३६ ॥ परीक्षित् ! सबके जीवनदाता
भगवान् श्रीकृष्ण राजा बहुलाश्वकी यह प्रार्थना स्वीकार करके मिथिलावासी
नर-नारियोंका कल्याण करते हुए कुछ दिनोंतक वहीं रहे ॥ ३७ ॥
प्रिय परीक्षित्
! जैसे राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्ण और मुनि-मण्डलीके पधारनेपर आनन्दमग्र हो
गये थे, वैसे ही श्रुतदेव ब्राह्मण
भी भगवान् श्रीकृष्ण और मुनियोंको अपने घर आया देखकर आनन्दविह्वल हो गये; वे उन्हें नमस्कार करके अपने वस्त्र उछाल-उछालकर नाचने लगे ॥ ३८ ॥ श्रुतदेवने
चटाई, पीढ़े और कुशासन बिछाकर उनपर भगवान् श्रीकृष्ण और
मुनियोंको बैठाया, स्वागत-भाषण आदिके द्वारा उनका अभिनन्दन
किया तथा अपनी पत्नी के साथ बड़े आनन्द से सबके पाँव पखारे ॥ ३९ ॥ परीक्षित् !
महान् सौभाग्यशाली श्रुतदेव ने भगवान् और ऋषियोंके चरणोदक से अपने घर और
कुटुम्बियोंको सींच दिया। इस समय उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये थे। वे हर्षातिरेक से
मतवाले हो रहे थे ॥ ४० ॥ तदनन्तर उन्होंने फल, गन्ध, खससे सुवासित निर्मल एवं मधुर जल, सुगन्धित मिट्टी,
तुलसी, कुश, कमल आदि
अनायास-प्राप्त पूजा-सामग्री और सत्त्वगुण बढ़ानेवाले अन्न से सब की आराधना की ॥
४१ ॥ उस समय श्रुतदेवजी मन-ही-मन तर्कना करने लगे कि ‘मैं तो
घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँमें गिरा हुआ हूँ, अभागा हूँ;
मुझे भगवान् श्रीकृष्ण और उनके निवासस्थान ऋषि-मुनियोंका, जिनके चरणोंकी धूल ही समस्त तीर्थोंको
तीर्थ बनानेवाली है, समागम कैसे प्राप्त हो गया ? ॥ ४२ ॥ जब सब लोग आतिथ्य स्वीकार करके आरामसे बैठ गये, तब श्रुतदेव अपने स्त्री-पुत्र तथा अन्य सम्बन्धियोंके साथ उनकी सेवामें
उपस्थित हुए। वे भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्पर्श करते हुए कहने लगे ॥ ४३ ॥
श्रुतदेवने
कहा—प्रभो ! आप व्यक्त-अव्यक्तरूप
प्रकृति और जीवोंसे परे पुरुषोत्तम हैं। मुझे आपने आज ही दर्शन दिया हो, ऐसी बात नहीं है। आप तो तभीसे सब लोगोंसे मिले हुए हैं, जबसे आपने अपनी शक्तियोंके द्वारा इस जगत्की रचना करके आत्मसत्ताके रूपमें
इसमें प्रवेश किया है ॥ ४४ ॥ जैसे सोया हुआ पुरुष स्वप्नावस्थामें अविद्यावश
मन-ही-मन स्वप्न-जगत्की सृष्टि कर लेता है और उसमें स्वयं उपस्थित होकर अनेक
रूपोंमें अनेक कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही आपने
अपनेमें ही अपनी मायासे जगत् की रचना कर ली है और अब इसमें प्रवेश करके अनेकों
रूपोंसे प्रकाशित हो रहे हैं ॥ ४५ ॥ जो लोग सर्वदा आपकी लीलाकथाका श्रवण-कीर्तन
तथा आपकी प्रतिमाओंका अर्चन-वन्दन करते हैं और आपसमें आपकी ही चर्चा करते हैं,
उनका हृदय शुद्ध हो जाता है और आप उसमें प्रकाशित हो जाते हैं ॥ ४६
॥ जिन लोगोंका चित्त लौकिक-वैदिक आदि कर्मोंकी वासनासे बहिर्मुख हो रहा है,
उनके हृदयमें रहनेपर भी आप उनसे बहुत दूर हैं। किन्तु जिन लोगोंने
आपके गुणगानसे अपने अन्त:करणको सद्गुणसम्पन्न बना लिया है, उनके
लिये चित्तवृत्तियोंसे अग्राह्य होनेपर भी आप अत्यन्त निकट हैं ॥ ४७ ॥ प्रभो ! जो
लोग आत्मतत्त्वको जाननेवाले हैं, उनके आत्माके रूपमें ही आप
स्थित हैं और जो शरीर आदिको ही अपना आत्मा मान बैठे हैं, उनके
लिये आप अनात्माको प्राप्त होनेवाली मृत्युके रूपमें हैं। आप महत्तत्त्व आदि
कार्यद्रव्य और प्रकृतिरूप कारणके नियामक हैं—शासक हैं। आपकी
माया आपकी अपनी दृष्टिपर पर्दा नहीं डाल सकती, किन्तु उसने
दूसरोंकी दृष्टिको ढक रखा है। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४८ ॥ स्वयंप्रकाश प्रभो
! हम आपके सेवक हैं। हमें आज्ञा दीजिये कि हम आपकी क्या सेवा करें ? नेत्रोंके द्वारा आपका दर्शन होनेतक ही जीवोंके क्लेश रहते हैं। आपके
दर्शनमें ही समस्त क्लेशोंकी परिसमाप्ति है ॥ ४९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! शरणागत-भयहारी
भगवान् श्रीकृष्णने श्रुतदेवकी प्रार्थना सुनकर अपने हाथसे उनका हाथ पकड़ लिया और
मुसकराते हुए कहा ॥ ५० ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—प्रिय श्रुतदेव ! ये
बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुमपर अनुग्रह करनेके लिये ही यहाँ पधारे हैं। ये अपने
चरणकमलोंकी धूलसे लोगों और लोकोंको पवित्र करते हुए मेरे साथ विचरण कर रहे हैं ॥
५१ ॥ देवता, पुण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदिके द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनोंमें
पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टिसे ही सबको
पवित्र कर देते हैं। यही नहीं; देवता आदिमें जो पवित्र
करनेकी शक्ति है, वह भी उन्हें संतोंकी दृष्टिसे ही प्राप्त
होती है ॥ ५२ ॥ श्रुतदेव ! जगत्में ब्राह्मण जन्मसे ही सब प्राणियोंसे श्रेष्ठ
हैं। यदि वह तपस्या, विद्या, सन्तोष और
मेरी उपासना—मेरी भक्तिसे युक्त हो तब तो कहना ही क्या है ॥
५३ ॥ मुझे अपना यह चतुर्भुजरूप भी ब्राह्मणोंकी अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं है।
क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय है और मैं सर्वदेवमय हूँ ॥ ५४ ॥ दुर्बुद्धि मनुष्य इस
बातको न जानकर केवल मूर्ति आदिमें ही पूज्यबुद्धि रखते हैं और गुणोंमें दोष
निकालकर मेरे स्वरूप जगद्गुरु ब्राह्मणका, जो कि उनका आत्मा
ही है, तिरस्कार करते हैं ॥ ५५ ॥ ब्राह्मण मेरा साक्षात्कार
करके अपने चित्तमें यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत्, इसके
सम्बन्धकी सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति-महत्तत्त्वादि सब-के- सब आत्मस्वरूप
भगवान्के ही रूप हैं ॥ ५६ ॥ इसलिये श्रुतदेव ! तुम इन ब्रहमर्षियोंको मेरा ही
स्वरूप समझकर पूरी श्रद्धासे इनकी पूजा करो। यदि तुम ऐसा करोगे, तब तो तुमने साक्षात् अनायास ही मेरा पूजन कर लिया; नहीं
तो बड़ी-बड़ी बहुमूल्य सामग्रियोंसे भी मेरी पूजा नहीं हो सकती ॥ ५७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्णका यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेवने भगवान् श्रीकृष्ण और उन
ब्रहमर्षियोंकी एकात्मभावसे आराधना की तथा उनकी कृपासे वे भगवत्स्वरूपको प्राप्त
हो गये। राजा बहुलाश्वने भी वही गति प्राप्त की ॥ ५८ ॥ प्रिय परीक्षित् ! जैसे
भक्त भगवान् की भक्ति करते हैं, वैसे ही भगवान् भी
भक्तोंकी भक्ति करते हैं। वे अपने दोनों भक्तोंको प्रसन्न करनेके लिये कुछ दिनोंतक
मिथिलापुरीमें रहे और उन्हें साधु पुरुषोंके मार्गका उपदेश करके वे द्वारका लौट
आये ॥ ५९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
उत्तरार्धे श्रुतदेवानुग्रहो नाम षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
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