सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वेदस्तुति

 

वेदस्तुति -

 

श्रीपरीक्षिदुवाच -

ब्रह्मन् ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः ।

 कथं चरन्ति श्रुतयः साक्षात् सदसतः परे ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानां असृजत् प्रभुः ।

 मात्रार्थं च भवार्थं च आत्मनेऽकल्पनाय च ॥ २ ॥

 सैषा ह्युपनिषद्‌ ब्राह्मी पूर्वेशां पूर्वजैर्धृता ।

 श्र्रद्धया धारयेद् यस्तां क्षेमं गच्छेदकिञ्चनः ॥ ३ ॥

 अत्र ते वर्णयिष्यामि गाथां नारायणान्विताम् ।

 नारदस्य च संवादं ऋषेर्नारायणस्य च ॥ ४ ॥

 एकदा नारदो लोकान् पर्यटन् भगवत्प्रियः ।

 सनातनमृषिं द्रष्टुं ययौ नारायणाश्रमम् ॥ ५ ॥

 यो वै भारतवर्षेऽस्मिन् क्शेमाय स्वस्तये नृणाम् ।

 धर्मज्ञानशमोपेतं आकल्पादास्थितस्तपः ॥ ६ ॥

 तत्रोपविष्टं ऋषिभिः कलापग्रामवासिभिः ।

 परीतं प्रणतोऽपृच्छद् इदमेव कुरूद्वह ॥ ७ ॥

 तस्मै ह्यवोचद्‌भगवान् ऋषीणां श्रृणतामिदम् ।

 यो ब्रह्मवादः पूर्वेषां जनलोकनिवासिनाम् ॥ ८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

स्वायम्भुव ब्रह्मसत्रं जनलोकेऽभवत् पुरा ।

 तत्रस्थानां मानसानां मुनीनां ऊर्ध्वरेतसाम् ॥ ९ ॥

 श्वेतद्वीपं गतवति त्वयि द्रष्टुं तदीश्वरम् ।

 ब्रह्मवादः सुसंवृत्तः श्रुतयो यत्र शेरते ।

 तत्र हायमभूत्प्रश्नस्त्वं मां यमनुपृच्छसि ॥ १० ॥

 तुल्यश्रुततपःशीलाः तुल्यस्वीयारिमध्यमाः ।

 अपि चक्रुः प्रवचनं एकं शुश्रूषवोऽपरे ॥ ११ ॥

 

 श्रीसनन्दन उवाच -

स्वसृष्टमिदमापीय शयानं सह शक्तिभिः ।

 तदन्ते बोधयां चक्रुः तल्लिङ्गैः श्रुतयः परम् ॥ १२ ॥

 यथा शयानं सम्राजं वन्दिनस्तत्पराक्रमैः ।

 प्रत्यूषेऽभेत्य सुश्लोकैः बोधयन्त्यनुजीविनः ॥ १३ ॥

 

 श्रीश्रुतय ऊचुः -

जय जय जह्यजामजित दोषगृभीतगुणां

     त्वमसि यदात्मना समवरुद्धसमस्तभगः ।

 अगजगदोकसामखिलशक्त्यवबोधक ते

     क्वचिदजयाऽऽत्मना च चरतोऽनुचरेन्निगमः ॥ १४ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! ब्रह्म कार्य और कारणसे सर्वथा परे है। सत्त्व, रज और तमये तीनों गुण उसमें हैं ही नहीं। मन और वाणीसे सङ्केतरूपमें भी उसका निर्देश नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर समस्त श्रुतियोंका विषय गुण ही है। (वे जिस विषयका वर्णन करती हैं उसके गुण, जाति, क्रिया अथवा रूढिका ही निर्देश करती हैं) ऐसी स्थितिमें श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्मका प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं ! क्योंकि निर्गुण वस्तुका स्वरूप तो उनकी पहुँचके परे है ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! (भगवान्‌ सर्वशक्तिमान् और गुणोंके निधान हैं। श्रुतियाँ स्पष्टत: सगुणका ही निरूपण करती हैं, परन्तु विचार करनेपर उनका तात्पर्य निर्गुण ही निकलता है। विचार करनेके लिये ही) भगवान्‌ने जीवोंके लिये बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणोंकी सृष्टि की है। इनके द्वारा वे स्वेच्छासे अर्थ, काम धर्म अथवा मोक्षका अर्जन कर सकते हैं। (प्राणोंके द्वारा जीवन-धारण, श्रवणादि इन्द्रियोंके द्वारा महावाक्य आदिका श्रवण, मनके द्वारा मनन और बुद्धिके द्वारा निश्चय करनेपर श्रुतियोंके तात्पर्य निर्गुण स्वरूपका साक्षात्कार हो सकता है। इसलिये श्रुतियाँ सगुणका प्रतिपादन करनेपर भी वस्तुत: निर्गुणपरक हैं) ॥ २ ॥ ब्रह्मका प्रतिपादन करनेवाली उपनिषद्का यही स्वरूप है। इसे पूर्वजोंके भी पूर्वज सनकादि ऋषियोंने आत्मनिश्चय के द्वारा धारण किया है। जो भी मनुष्य इसे श्रद्धापूर्वक धारण करता है, वह बन्धनके कारण समस्त उपाधियोंअनात्मभावों से मुक्त होकर अपने परम- कल्याणस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ॥ ३ ॥ इस विषय में मैं तुम्हें एक गाथा सुनाता हूँ। उस गाथा के साथ स्वयं भगवान्‌ नारायण का सम्बन्ध है । वह गाथा देवर्षि नारद और ऋषिश्रेष्ठ नारायण का संवाद है ॥ ४ ॥

एक समयकी बात है, भगवान्‌ के प्यारे भक्त देवर्षि नारदजी विभिन्न लोकोंमें विचरण करते हुए सनातनऋषि भगवान्‌ नारायणका दर्शन करनेके लिये बदरिकाश्रम गये ॥ ५ ॥ भगवान्‌ नारायण मनुष्योंके अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और परम नि:श्रेयस (भगवत्स्वरूप अथवा मोक्षकी प्राप्ति) के लिये इस भारतवर्षमें कल्पके प्रारम्भसे ही धर्म, ज्ञान और संयमके साथ महान् तपस्या कर रहे हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌! एक दिन वे कलापग्रामवासी सिद्ध ऋषियोंके बीचमें बैठे हुए थे। उस समय नारदजीने उन्हें प्रणाम करके बड़ी नम्रतासे यही प्रश्र पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो ॥ ७ ॥ भगवान्‌ नारायणने ऋषियोंकी उस भरी सभामें नारदजीको उनके प्रश्रका उत्तर दिया और वह कथा सुनायी, जो पूर्वकालीन जनलोकनिवासियोंमें परस्पर वेदोंके तात्पर्य और ब्रह्मके स्वरूपके सम्बन्धमें विचार करते समय कही गयी थी ॥ ८ ॥

भगवान्‌ नारायणने कहानारदजी ! प्राचीन कालकी बात है। एक बार जनलोकमें वहाँ रहनेवाले ब्रह्माके मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियोंका ब्रह्मसत्र (ब्रह्मविषयक विचार या प्रवचन) हुआ था ॥ ९ ॥ उस समय तुम मेरी श्वेतद्वीपाधिपति अनिरुद्ध- मूर्तिका दर्शन करनेके लिये श्वेतद्वीप चले गये थे। उस समय वहाँ उस ब्रह्मके सम्बन्धमें बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी, जिसके विषयमें श्रुतियाँ भी मौन धारण कर लेती हैं, स्पष्ट वर्णन न करके तात्पर्यरूपसे लक्षित कराती हुई उसीमें सो जाती हैं। उस ब्रह्मसत्रमें यही प्रश्र उपस्थित किया गया था, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो ॥ १० ॥ सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमारये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभावमें समान हैं। उन लोगोंकी दृष्टिमें शत्रु, मित्र और उदासीन एक-से हैं। फिर भी उन्होंने अपनेमेंसे सनन्दनको तो वक्ता बना लिया और शेष भाई सुनने के इच्छुक बनकर बैठ गये ॥ ११ ॥

सनन्दनजी ने कहाजिस प्रकार प्रात:काल होनेपर सोते हुए सम्राट्को जगानेके लिये अनुजीवी वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट्के पराक्रम तथा सुयशका गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूर्ण जगत्को अपनेमें लीन करके अपनी शक्तियोंके सहित सोये रहते हैं; तब प्रलयके अन्तमें श्रुतियाँ उनका प्रतिपादन करनेवाले वचनोंसे उन्हें इस प्रकार जगाती हैं ॥ १२-१३ ॥

श्रुतियाँ कहती हैंअजित ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आपपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो ! आप स्वभावसे ही समस्त ऐश्वर्योंसे पूर्ण हैं, इसलिये चराचर प्राणियोंको फँसानेवाली मायाका नाश कर दीजिये। प्रभो ! इस गुणमयी मायाने दोषके लियेजीवोंके आनन्दादिमय सहज स्वरूपका आच्छादन करके उन्हें बन्धनमें डालनेके लिये ही सत्त्वादि गुणोंको ग्रहण किया है। जगत् में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियाँ हैं, उन सबको जगानेवाले आप ही हैं। इसलिये आपके मिटाये बिना यह माया मिट नहीं सकती। (इस विषयमें यदि प्रमाण पूछा जाय, तो आपकी श्वासभूता श्रुतियाँ हीहम ही प्रमाण हैं।) यद्यपि हम आपका स्वरूपत: वर्णन करनेमें असमर्थ हैं, परन्तु जब कभी आप माया के द्वारा जगत् की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसको निषेध करके स्वरूपस्थिति की लीला करते हैं अथवा अपना सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीड़ा करते हैं, तभी हम यत्किञ्चित् आपका वर्णन करनेमें समर्थ होती हैं[1] ॥ १४ ॥

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[1] इन श्लोकों पर श्री श्रीधरस्वामी ने बहुत सुन्दर श्लोक लिखे हैं, वे अर्थसहित यहाँ दिये जाते है

जय जयाजित जह्यगजङ्गमावृतिमजामुपनीतमृषागुणाम्॥

न हि भवन्तमृते प्रभवन्त्यमी निगमगीतगुणार्णवता तव॥१॥

अजित ! आपकी जय हो; जय हो ! झूठे गुण धारण करके चराचर जीवको आच्छादित करनेवाली इस मायाको नष्ट कर दीजिये। आपके बिना बेचारे जीव इसको नहीं मार सकेंगेनहीं पार कर सकेंगे। वेद इस बातका गान करते रहते हैं कि आप सकल सद्गुणोंके समुद्र हैं।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



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