॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
वेदस्तुति
बृहदुपलब्धमेतदवयन्त्यवशेषतया
यत उदयास्तमयौ
विकृतेर्मृदि वाविकृतात् ।
अत ऋषयो दधुस्त्वयि
मनोवचनाचरितं
कथमयथा भवन्ति
भुवि दत्तपदानि नृणाम् ॥ १५ ॥
इति तव
सूरयस्त्र्यधिपतेऽखिललोकमल
क्षपणकथामृताब्धिमवगाह्य तपांसि जहुः ।
किमुत पुनः
स्वधामविधुताशयकालगुणाः
परम भजन्ति ये
पदमजस्रसुखानुभवम् ॥ १६ ॥
दृतय इव
श्वसन्त्यसुभृतो यदि तेऽनुविधा
महदहमादयोऽण्डमसृजन् यदनुग्रहतः
पुरुषविधोऽन्वयोऽत्र चरमोऽन्नमयादिषु यः
सदसतः परं
त्वमथ यदेष्ववशेषमृतम् ॥ १७ ॥
उदरमुपासते य
ऋषिवर्त्मसु कूर्पदृशः
परिसरपद्धतिं
हृदयमारुणयो दहरम् ।
तत उदगादनन्त तव
धाम शिरः परमं
पुनरिह
यत्समेत्य न पतन्ति कृतान्तमुखे ॥ १८ ॥
स्वकृतविचित्रयोनिषु विशन्निव हेतुतया
तरतमतश्चकास्स्यनलवत् स्वकृतानुकृतिः ।
अथ
वितथास्वमूष्ववितथां तव धाम समं
विरजधियोऽनुयन्त्यभिविपण्यव एकरसम् ॥ १९ ॥
स्वकृतपुरेष्वमीष्वबहिरन्तरसंवरणं
तव पुरुषं
वदन्त्यखिलशक्तिधृतोंऽशकृतम् ।
इति नृगतिं विविच्य
कवयो निगमावपनं
भवत उपासतेऽङ्घ्रिमभवम्भुवि
विश्वसिताः ॥ २० ॥
इसमें सन्देह नहीं कि हमारे द्वारा इन्द्र, वरुण आदि देवताओंका भी वर्णन किया जाता है, परन्तु हमारे (श्रुतियोंके) सारे मन्त्र अथवा सभी मन्त्रद्रष्टा ऋषि प्रतीत
होनेवाले इस सम्पूर्ण जगत् को ब्रह्मस्वरूप ही अनुभव करते हैं। क्योंकि जिस समय यह
सारा जगत् नहीं रहता, उस समय भी आप बच रहते हैं। जैसे घट,
शराव (मिट्टीका प्याला—कसोरा) आदि सभी विकार
मिट्टीसे ही उत्पन्न और उसीमें लीन होते हैं, उसी प्रकार
सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय आपमें ही होती है। तब क्या आप पृथ्वीके समान
विकारी हैं ? नहीं-नहीं, आप तो एकरस—निर्विकार हैं। इसीसे तो यह जगत् आपमें उत्पन्न नहीं, प्रतीत है। इसलिये जैसे घट, शराव आदिका वर्णन भी
मिट्टीका ही वर्णन है, वैसे ही इन्द्र, वरुण आदि देवताओंका वर्णन भी आपका ही वर्णन है। यही कारण है कि विचारशील
ऋषि, मनसे जो कुछ सोचा जाता है और वाणीसे जो कुछ कहा जाता है,
उसे आपमें ही स्थित, आपका ही स्वरूप देखते
हैं। मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे—र्ईंट, पत्थर या काठपर—होगा वह पृथ्वीपर ही; क्योंकि वे सब पृथ्वीस्वरूप ही हैं। इसलिये हम चाहे जिस नाम या जिस रूपका
वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही
रूप है [2] ॥ १५ ॥
भगवन् ! लोग सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणोंकी मायासे
बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी- बुरी क्रियाओंमें उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस मायानटीके स्वामी, उसको नचानेवाले
हैं। इसीलिये विचारशील पुरुष आपकी लीलाकथाके अमृतसागरमें गोते लगाते रहते हैं और
इस प्रकार अपने सारे पाप-तापको धो-बहा देते हैं। क्यों न हो, आपकी लीला-कथा सभी जीवोंके मायामलको नष्ट करनेवाली जो है। पुरुषोत्तम !
जिन महापुरुषोंने आत्मज्ञानके द्वारा अन्त:करणके राग-द्वेष आदि और शरीरके कालकृत
जरा-मरण आदि दोष मिटा दिये हैं और निरन्तर आपके उस स्वरूपकी अनुभूतिमें मग्र रहते
हैं, जो अखण्ड आनन्दस्वरूप है, उन्होंने
अपने पाप-तापोंको सदाके लिये शान्त, भस्म कर दिया है—इसके विषयमें तो कहना ही क्या है [3] ॥ १६ ॥ भगवन् !
प्राणधारियोंके जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे आपका भजन-सेवन करें, आपकी आज्ञाका पालन करें; यदि वे ऐसा नहीं करते तो
उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीरमें श्वासका चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहारकी धौंकनीमें हवाका आना-जाना। महत्तत्त्व, अहङ्कार आदिने आपके अनुग्रहसे—आपके उनमें प्रवेश
करनेपर ही इस ब्रह्माण्डकी सृष्टि की है। अन्नमय, प्राणमय,
मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय—इन पाँचों कोशोंमें पुरुषरूपसे रहनेवाले, उनमें ‘मैं-मैं’ की स्फूर्ति करनेवाले भी आप ही हैं ! आपके
ही अस्तित्वसे उन कोशोंके अस्तित्वका अनुभव होता है और उनके न रहनेपर भी अन्तिम
अवधिरूपसे आप विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सबमें अन्वित और सबकी अवधि होनेपर भी
आप असंग ही हैं। क्योंकि वास्तवमें जो कुछ वृत्तियोंके द्वारा अस्ति अथवा नास्तिके
रूपमें अनुभव होता है, उन समस्त कार्य-कारणोंसे आप परे हैं। ‘नेति-नेति’ के द्वारा इन सबका निषेध हो जानेपर भी आप
ही शेष रहते हैं, क्योंकि आप उस निषेधके भी साक्षी हैं और
वास्तवमें आप ही एकमात्र सत्य हैं। (इसलिये आपके भजनके बिना जीवका जीवन व्यर्थ ही
है, क्योंकि वह इस महान् सत्यसे वञ्चित है)[4] ॥ १७ ॥
ऋषियोंने आपकी प्राप्तिके लिये अनेकों मार्ग माने हैं।
उनमें जो स्थूल दृष्टिवाले हैं, वे मणिपूरक
चक्रमें अग्निरूपसे आपकी उपासना करते हैं। अरुणवंशके ऋषि समस्त नाडिय़ोंके निकलनेके
स्थान हृदयमें आपके परम सूक्ष्मस्वरूप दहर ब्रह्मकी उपासना करते हैं। प्रभो !
हृदयसे ही आपको प्राप्त करनेका श्रेष्ठ मार्ग सुषुम्रा नाड़ी ब्रह्मरन्ध्रतक गयी
हुई है। जो पुरुष उस ज्योतिर्मय मार्गको प्राप्त कर लेता है और उससे ऊपरकी ओर
बढ़ता है, वह फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता [5]
॥ १८ ॥ भगवन् ! आपने ही देवता, मनुष्य और
पशु-पक्षी आदि योनियाँ बनायी हैं। सदा-सर्वत्र सब रूपोंमें आप हैं ही, इसलिये कारणरूपसे प्रवेश न करनेपर भी आप ऐसे जान पड़ते हैं, मानो उसमें प्रविष्ट हुए हों। साथ ही विभिन्न आकृतियोंका अनुकरण करके कहीं
उत्तम, तो कहीं अधमरूपसे प्रतीत होते हैं, जैसे आग छोटी-बड़ी लकडिय़ों और कर्मोंके अनुसार प्रचुर अथवा अल्प परिमाणमें
या उत्तम-अधमरूपमें प्रतीत होती है। इसलिये संत पुरुष लौकिक-पारलौकिक कर्मोंकी
दूकानदारीसे, उनके फलोंसे विरक्त हो जाते हैं और अपनी निर्मल
बुद्धिसे सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्माको पहचानकर जगत्के झूठे रूपोंमें
नहीं फँसते; आपके सर्वत्र एकरस, समभावसे
स्थित सत्यस्वरूपका साक्षात्कार करते हैं [6] ॥ १९ ॥
प्रभो ! जीव जिन शरीरोंमें रहता है, वे उसके कर्मके द्वारा निर्मित होते हैं और वास्तवमें उन
शरीरोंके कार्य-कारणरूप आवरणोंसे वह रहित है, क्योंकि
वस्तुत: उन आवरणोंकी सत्ता ही नहीं है। तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हैं कि समस्त
शक्तियोंको धारण करनेवाले आपका ही वह स्वरूप है। स्वरूप होनेके कारण अंश न होनेपर
भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित न होनेपर भी निर्मित कहते हैं। इसीसे बुद्धिमान्
पुरुष जीवके वास्तविक स्वरूपपर विचार करके परम विश्वासके साथ आपके चरणकमलोंकी
उपासना करते हैं। क्योंकि आपके चरण ही समस्त वैदिक कर्मोंके समर्पणस्थान और
मोक्षस्वरूप हैं[7] ॥ २० ॥
..............................................
[2] द्रुहिणवह्निरवीन्द्रमुखामरा
जगदिदं न भवेत्पृथगुत्थितम्॥
बहुमुखैरपि
मन्त्रगणैरजस्त्वमुरुमूर्तिरतो विनिगद्यसे॥२॥
ब्रह्मा, अग्नि, सूर्य,
इन्द्र आदि देवता तथा यह सम्पूर्ण जगत् प्रतीत होनेपर भी आपसे पृथक्
नहीं है। इसलिये अनेक देवताओंका प्रतिपादन करनेवाले वेद- मन्त्र उन देवताओंके
नामसे पृथक्-पृथक् आपकी ही विभिन्न मूर्तियोंका वर्णन करते हैं। वस्तुत: आप अजन्मा
हैं; उन मूर्तियोंके रूपमें भी आपका जन्म नहीं होता।
[3] सकलवेदगणेरितसद्गुणस्त्वमिति
सर्वमनीषिजना रता:॥३॥
त्वयि
सुभद्रगुणश्रवणादिभिस्तव पदस्मरणेन गतक्लमा:॥३॥
सारे वेद आपके
सद्गुणोंका वर्णन करते हैं। इसलिये संसारके सभी विद्वान् आपके मङ्गलमय कल्याणकारी
गुणोंके श्रवण, स्मरण आदिके द्वारा आपसे ही
प्रेम करते हैं, और आपके चरणोंका स्मरण करके सम्पूर्ण
क्लेशोंसे मुक्त हो जाते हैं।
[4]नरवपु: प्रतिपद्य यदि त्वयि
श्रवणवर्णनसंस्मरणादिभि:॥४॥
नरहरे ! न
भजन्ति नृणामिदं दृतिवदुच्छ्वसितं विफलं तत:॥४॥
नरहरे !
मनुष्य शरीर प्राप्त करके यदि जीव आपके श्रवण,
वर्णन और संस्मरण आदि के द्वारा आपका भजन नहीं करते तो जीवों का
श्वास लेना धौंकनीं के समान ही सर्वथा व्यर्थ है।
[5] उदरादिषु य: पुंसां
चिन्तितो मुनिवत्र्मभि:॥५॥
हन्ति
मृत्युभयं देवो हृद्गतं तमुपास्महे॥५॥
मनुष्य
ऋषि-मुनियोंके द्वारा बतलायी हुई पद्धतियोंसे उदर आदि स्थानोंमें जिनका चिन्तन
करते हैं और जो प्रभु उनके चिन्तन करनेपर मृत्यु-भयका नाश कर देते हैं, उन हृदयदेशमें विराजमान प्रभुकी हम उपासना
करते हैं।
[6] स्वनिर्मितेषु कार्येषु
तारतम्यविवॢजतम्॥६॥
सर्वानुस्यूतसन्मात्रं
भगवन्तं भजामहे॥६॥
अपने द्वारा
निर्मित सम्पूर्ण कार्योंमें जो न्यूनाधिक श्रेष्ठ-कनिष्ठके भावसे रहित एवं सबमें
भरपूर हैं, इस रूपमें अनुभवमें आनेवाली
निर्विशेष सत्ताके रूपमें स्थित हैं, उन भगवान्का हम भजन
करते हैं।
[7] त्वदंशस्य ममेशान त्वन्मायाकृतबन्धनम्॥
त्वदङ्घ्रिसेवामादिश्य
परानन्द निवर्तय॥७॥
मेरे
परमानन्दस्वरूप स्वामी ! मैं आपका अंश हूँ। अपने चरणोंकी सेवाका आदेश देकर अपनी
मायाके द्वारा निर्मित मेरे बन्धनको निवृत्त कर दो।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
जय श्री हरि
जवाब देंहटाएंजय श्री हरि
जवाब देंहटाएं