मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

वेदस्तुति

 

सदिव मनस्त्रिवृत्त्वयि विभात्यसदामनुजात्

     सदभिमृशन्त्यशेषमिदमात्मतयाऽत्मविदः ।

 न हि विकृतिं त्यजन्ति कनकस्य तदात्मतया

     स्वकृतमनुप्रविष्टमिदमात्मतयावसितम् ॥ २६ ॥

 तव परि ये चरन्त्यखिलसत्त्वनिकेततया

     त उत पदाक्रमन्त्यविगणय्य शिरो निर्‌ऋतेः ।

 परिवयसे पशूनिव गिरा विबुधानपि तान्

     त्वयि कृतसौहृदाः खलु पुनन्ति न ये विमुखाः ॥ २७ ॥

 त्वमकरणः स्वराडखिलकारकशक्तिधरः

     तव बलिमुद्वहन्ति समदन्त्यजयानिमिषाः ।

 वर्षभुजोऽखिलक्षितिपतेरिव विश्वसृजो

     विदधति यत्र ये त्वधिकृता भवतश्चकिताः ॥ २८ ॥

 स्थिरचरजातयः स्युरजयोत्थनिमित्तयुजो

     विहर उदीक्षया यदि परस्य विमुक्त ततः ।

 न हि परमस्य कश्चिदपरो न परश्च भवेद्

     वियत इवापदस्य तव शून्यतुलां दधतः ॥ २९ ॥

 

यह त्रिगुणात्मक जगत् मनकी कल्पनामात्र है। केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत्से पृथक् प्रतीत होनेवाला पुरुष भी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार वास्तवमें असत् होनेपर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ताके कारण यह सत्य-सा प्रतीत हो रहा है। इसलिये भोक्ता, भोग्य और दोनोंके सम्बन्धको सिद्ध करनेवाली इन्द्रियाँ आदि जितना भी जगत् है, सबको आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूपसे सत्य ही मानते हैं। सोनेसे बने हुए कड़े, कुण्डल आदि स्वर्णरूप ही तो हैं; इसलिये उनको इस रूपमें जाननेवाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं, वह समझता है कि यह भी सोना है। इसी प्रकार यह जगत् आत्मामें ही कल्पित, आत्मासे ही व्याप्त है; इसलिये आत्मज्ञानी पुरुष इसे आत्मरूप ही मानते हैं [13] ॥ २६ ॥ भगवन् ! जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थोंके अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभावसे आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्युको तुच्छ समझकर उसके सिरपर लात मारते हैं अर्थात् उसपर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान् हों, उन्हें आप कर्मोंका प्रतिपादन करनेवाली श्रुतियोंसे पशुओंके समान बाँध लेते हैं। इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेमका सम्बन्ध जोड़ रक्खा है, वे न केवल अपनेको बल्कि दूसरोंको भी पवित्र कर देते हैंजगत्के बन्धनसे छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, आपसे विमुख लोगोंको कैसे प्राप्त हो सकता है[14] ॥ २७ ॥

प्रभो ! आप मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि करणोंसेचिन्तन, कर्म आदिके साधनोंसे सर्वथा रहित हैं। फिर भी आप समस्त अन्त:करण और बाह्य करणोंकी शक्तियोंसे सदा-सर्वदा सम्पन्न हैं। आप स्वत:सिद्ध ज्ञानवान्, स्वयंप्रकाश हैं; अत: कोई काम करनेके लिये आपको इन्द्रियोंकी आवश्यकता नहीं है। जैसे छोटे-छोटे राजा अपनी-अपनी प्रजासे कर लेकर स्वयं अपने सम्राट्को कर देते हैं, वैसे ही मनुष्योंके पूज्य देवता और देवताओंके पूज्य ब्रह्मा आदि भी अपने अधिकृत प्राणियोंसे पूजा स्वीकार करते हैं और मायाके अधीन होकर आपकी पूजा करते रहते हैं। वे इस प्रकार आपकी पूजा करते हैं कि आपने जहाँ जो कर्म करनेके लिये उन्हें नियुक्त कर दिया है, वे आपसे भयभीत रहकर वहीं वह काम करते रहते हैं[15] ॥ २८ ॥ नित्यमुक्त ! आप मायातीत हैं, फिर भी जब अपने ईक्षणमात्रसेसङ्कल्पमात्रसे मायाके साथ क्रीडा करते हैं, तब आपका सङ्केत पाते ही जीवोंके सूक्ष्म शरीर और उनके सुप्त कर्म-संस्कार जग जाते हैं और चराचर प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है। प्रभो ! आप परम दयालु हैं। आकाशके समान सबमें सम होनेके कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया। वास्तवमें तो आपके स्वरूपमें मन और वाणीकी गति ही नहीं है। आपमें कार्य-कारणरूप प्रपञ्चका अभाव होनेसे बाह्य दृष्टिसे आप शून्यके समान ही जान पड़ते हैं; परन्तु उस दृष्टिके भी अधिष्ठान होनेके कारण आप परम सत्य हैं [16] ॥ २९ ॥

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[13] यत्सत्त्वत: सदाभाति जगदेतदसत् स्वत:॥१३॥

सदाभासमसत्यस्मिन् भगवन्तं भजाम तम्॥१३॥

 

यह जगत् अपने स्वरूप, नाम और आकृतिके रूपमें असत् है, फिर भी जिस अधिष्ठान-सत्ताकी सत्यतासे यह सत्य जान पड़ता है तथा जो इस असत्य प्रपञ्चमें सत्यके रूपसे सदा प्रकाशमान रहता है, उस भगवान्‌का हम भजन करते हैं।

 

[14] तपन्तु तापै: प्रपतन्तु पर्वतादटन्तु तीर्थानि पठन्तु चागमान्॥१४॥

यजन्तु यागैर्विवदन्तु वादैहर्ङ्क्षर विना नैव मृङ्क्षत तरन्ति॥१४॥

 

लोग पञ्चाग्नि आदि तापोंसे तप्त हों, पर्वतसे गिरकर आत्मघात कर लें, तीर्थोंका पर्यटन करें, वेदोंका पाठ करें, यज्ञोंके द्वारा यजन करें अथवा भिन्न-भिन्न मतवादोंके द्वारा आपसमें विवाद करें, परन्तु भगवान्‌के बिना इस मृत्युमय संसार-सागरसे पार नहीं जाते।

 

[15] अनिन्द्रियोऽपि यो देव: सर्वकारकशक्तिधृक्॥१५॥

सर्वज्ञ: सर्वकर्ता च सर्वसेव्यं नमामि तम्॥१५॥

 

जो प्रभु इन्द्रियरहित होनेपर भी समस्त बाह्य और आन्तरिक इन्द्रियकी शक्तिको धारण करता है और सर्वज्ञ एवं सर्वकर्ता है, उस सबके सेवनीय प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ।

 

[16] त्वदीक्षणवशक्षोभमायाबोधितकर्मभि:॥१६॥

जातान् संसरत: खिन्नान्नृहरे पाहि न: पित:॥१६॥

 

नृसिंह ! आपके सृष्टि-सङ्कल्पसे क्षुब्ध होकर मायाने कर्मोंको जाग्रत् कर दिया है। उन्हींके कारण हम लोगोंका जन्म हुआ और अब आवागमनके चक्करमें भटककर हम दु:खी हो रहे हैं। पिताजी ! आप हमारी रक्षा कीजिये।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



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