॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
शिवजी का सङ्कटमोचन
श्रीराजोवाच
देवासुरमनुष्येसु ये भजन्त्यशिवं शिवम्
प्रायस्ते धनिनो भोजा न तु लक्ष्म्याः पतिं हरिम् १
एतद्वेदितुमिच्छामः सन्देहोऽत्र महान्हि नः
विरुद्धशीलयोः प्रभ्वोर्विरुद्धा भजतां गतिः २
श्रीशुक उवाच
शिवः शक्तियुतः शश्वत्त्रिलिङ्गो गुणसंवृतः
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा ३
ततो विकारा अभवन्षोडशामीषु कञ्चन
उपधावन्विभूतीनां सर्वासामश्नुते गतिम् ४
हरिर्हि निर्गुणः साक्षात्पुरुषः प्रकृतेः परः
स सर्वदृगुपद्र ष्टा तं भजन्निर्गुणो भवेत् ५
निवृत्तेष्वश्वमेधेषु राजा युष्मत्पितामहः
शृण्वन्भगवतो धर्मानपृच्छदिदमच्युतम् ६
स आह भगवांस्तस्मै प्रीतः शुश्रूषवे प्रभुः
नृणां निःश्रेयसार्थाय योऽवतीर्णो यदोः कुले ७
श्रीभगवानुवाच
यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः
ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दुःखदुःखितम् ८
स यदा वितथोद्योगो निर्विण्णः स्याद्धनेहया
मत्परैः कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम् ९
तद्ब्रह्म परमं सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनन्तकम्
विज्ञायात्मतया धीरः संसारात्परिमुच्यते १०
अतो मां सुदुराराध्यं हित्वान्यान्भजते जनः
ततस्त आशुतोषेभ्यो लब्धराज्यश्रियोद्धताः
मत्ताः प्रमत्ता वरदान्विस्मयन्त्यवजानते ११
श्रीशुक उवाच
शापप्रसादयोरीशा ब्रह्मविष्णुशिवादयः
सद्यः शापप्रसादोऽङ्ग शिवो ब्रह्मा न चाच्युतः १२
अत्र चोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्
वृकासुराय गिरिशो वरं दत्त्वाप सङ्कटम् १३
वृको नामासुरः पुत्रः शकुनेः पथि नारदम्
दृष्ट्वाशुतोषं पप्रच्छ देवेषु त्रिषु दुर्मतिः १४
स आह देवं गिरिशमुपाधावाशु सिद्ध्यसि
योऽल्पाभ्यां गुणदोषाभ्यामाशु तुष्यति कुप्यति १५
दशास्यबाणयोस्तुष्टः स्तुवतोर्वन्दिनोरिव
ऐश्वर्यमतुलं दत्त्वा तत आप सुसङ्कटम् १६
इत्यादिष्टस्तमसुर उपाधावत्स्वगात्रतः
केदार आत्मक्रव्येण जुह्वानो ग्निमुखं हरम् १७
देवोपलब्धिमप्राप्य निर्वेदात्सप्तमेऽहनि
शिरोऽवृश्चत्सुधितिना तत्तीर्थक्लिन्नमूर्धजम् १८
तदा महाकारुणिको स धूर्जटि-
र्यथा वयं चाग्निरिवोत्थितोऽनलात्
निगृह्य दोर्भ्यां भुजयोर्न्यवारय-
त्तत्स्पर्शनाद्भूय उपस्कृताकृतिः १९
तमाह चाङ्गालमलं वृणीष्व मे
यथाभिकामं वितरामि ते वरम्
प्रीयेय तोयेन नृणां प्रपद्यता-
महो त्वयात्मा भृशमर्द्यते वृथा २०
देवं स वव्रे पापीयान्वरं भूतभयावहम्
यस्य यस्य करं शीर्ष्णि धास्ये स म्रियतामिति २१
तच्छ्रुत्वा भगवान्रुद्रो दुर्मना इव भारत
ॐ इति प्रहसंस्तस्मै ददेऽहेरमृतं यथा २२
राजा
परीक्षित् ने पूछा—भगवन् ! भगवान् शङ्करने समस्त भोगोंका
परित्याग कर रखा है; परन्तु देखा यह जाता है कि जो देवता, असुर अथवा मनुष्य उनकी उपासना करते हैं, वे
प्राय: धनी और भोगसम्पन्न हो जाते हैं। और भगवान् विष्णु लक्ष्मीपति हैं, परन्तु उनकी उपासना करनेवाले प्राय: धनी और भोग-सम्पन्न नहीं होते ॥ १ ॥ दोनों
प्रभु त्याग और भोगकी दृष्टिसे एक-दूसरेसे विरुद्ध स्वभाववाले हैं, परंतु उनके उपासकोंको उनके स्वरूपके विपरीत फल मिलता है। मुझे इस विषयमें बड़ा
सन्देह है कि त्यागीकी उपासनासे भोग और लक्ष्मीपतिकी उपासनासे त्याग कैसे मिलता है
? मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ ॥ २ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! शिवजी सदा अपनी शक्तिसे युक्त रहते हैं। वे सत्त्व आदि गुणोंसे
युक्त तथा अहङ्कारके अधिष्ठाता हैं। अहङ्कारके तीन भेद हैं—वैकारिक, तैजस और तामस ॥ ३ ॥ त्रिविध अहङ्कारसे सोलह विकार हुए—दस इन्द्रियाँ, पाँच महाभूत और एक मन। अत: इन सबके अधिष्ठातृ-देवताओंमेंसे किसी एककी उपासना
करनेपर समस्त ऐश्वर्योंकी प्राप्ति हो जाती है ॥ ४ ॥ परन्तु परीक्षित् ! भगवान्
श्रीहरि तो प्रकृतिसे परे स्वयं पुरुषोत्तम एवं प्राकृत गुणरहित हैं। वे सर्वज्ञ
तथा सबके अन्त:करणोंके साक्षी हैं। जो उनका भजन करता है, वह
स्वयं भी गुणातीत हो जाता है ॥ ५ ॥ परीक्षित् ! जब तुम्हारे दादा धर्मराज
युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ कर चुके,
तब भगवान्से विविध प्रकारके धर्मोंका वर्णन
सुनते समय उन्होंने भी यही प्रश्र किया था ॥ ६ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण
सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। मनुष्योंके कल्याणके लिये ही उन्होंने यदुवंशमें
अवतार धारण किया था। राजा युधिष्ठिरका प्रश्र सुनकर और उनकी सुननेकी इच्छा देखकर
उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार उत्तर दिया था ॥ ७ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—राजन् ! जिसपर मैं कृपा करता हूँ उसका सब धन
धीरे-धीरे छीन लेता हूँ। जब वह निर्धन हो जाता है, तब
उसके सगे-सम्बन्धी उसके दु:खाकुल चित्तकी परवा न करके उसे छोड़ देते हैं ॥ ८ ॥ फिर
वह धनके लिये उद्योग करने लगता है,
तब मैं उसका वह प्रयत्न भी निष्फल कर देता
हूँ। इस प्रकार बार-बार असफल होनेके कारण जब धन कमानेसे उसका मन विरक्त हो जाता है, उसे दु:ख समझकर वह उधरसे अपना मुँह मोड़ लेता है और मेरे प्रेमी भक्तोंका
आश्रय लेकर उनसे मेल-जोल करता है,
तब मैं उसपर अपनी अहैतुक कृपाकी वर्षा करता
हूँ ॥ ९ ॥ मेरी कृपासे उसे परम सूक्ष्म अनन्त सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्मकी
प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार मेरी प्रसन्नता, मेरी
आराधना बहुत कठिन है। इसीसे साधारण लोग मुझे छोडक़र मेरे ही दूसरे रूप अन्यान्य
देवताओंकी आराधना करते हैं ॥ १० ॥ दूसरे देवता आशुतोष हैं। वे झटपट पिघल पड़ते हैं
और अपने भक्तोंको साम्राज्य-लक्ष्मी दे देते हैं। उसे पाकर वे उच्छृङ्खल, प्रमादी और उन्मत्त हो उठते हैं और अपने वरदाता देवताओंको भी भूल जाते हैं तथा
उनका तिरस्कार कर बैठते हैं ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! ब्रह्मा,
विष्णु और महादेव—ये तीनों शाप
और वरदान देनेमें समर्थ हैं;
परन्तु इनमें महादेव और ब्रह्मा शीघ्र ही
प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं। परन्तु विष्णु भगवान् वैसे
नहीं हैं ॥ १२ ॥ इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। भगवान्
शङ्कर एक बार वृकासुरको वर देकर सङ्कटमें पड़ गये थे ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! वृकासुर
शकुनिका पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने
देवर्षि नारदको देख लिया और उनसे पूछा कि ‘तीनों
देवताओंमें झटपट प्रसन्न होनेवाला कौन है ?’ ॥
१४ ॥ परीक्षित् ! देवर्षि नारदने कहा—‘तुम भगवान् शङ्करकी आराधना करो। इससे
तुम्हारा मनोरथ बहुत जल्दी पूरा हो जायगा। वे थोड़े ही गुणोंसे शीघ्र-से-शीघ्र
प्रसन्न और थोड़े ही अपराधसे तुरन्त क्रोध कर बैठते हैं ॥ १५ ॥ रावण और बाणासुरने
केवल वंदीजनोंके समान शङ्करजीकी कुछ स्तुतियाँ की थीं। इसीसे वे उनपर प्रसन्न हो
गये और उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य दे दिया। बादमें रावणके कैलास उठाने और बाणासुरके
नगरकी रक्षाका भार लेनेसे वे उनके लिये सङ्कटमें भी पड़ गये थे’ ॥ १६ ॥
नारदजीका
उपदेश पाकर वृकासुर केदारक्षेत्रमें गया और अग्रिको भगवान् शङ्करका मुख मानकर
अपने शरीरका मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा ॥ १७ ॥ इस प्रकार छ: दिनतक उपासना
करनेपर भी जब उसे भगवान् शङ्करके दर्शन न हुए, तब
उसे बड़ा दु:ख हुआ। सातवें दिन केदारतीर्थमें स्नान करके उसने अपने भीगे बालवाले
मस्तकको कुल्हाड़ेसे काटकर हवन करना चाहा ॥ १८ ॥ परीक्षित् ! जैसे जगत्में कोई
दु:खवश आत्महत्या करने जाता है तो हमलोग करुणावश उसे बचा लेते हैं, वैसे ही परम दयालु भगवान् शङ्करने वृकासुरके आत्मघातके पहले ही अग्निकुण्डसे
अग्रिदेवके समान प्रकट होकर अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गला
काटनेसे रोक दिया। उनका स्पर्श होते ही वृकासुरके अङ्ग ज्यों-के-त्यों पूर्ण हो
गये ॥ १९ ॥ भगवान् शङ्कर ने वृकासुरसे कहा—‘प्यारे
वृकासुर ! बस करो, बस करो; बहुत
हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम मुँहमाँगा वर माँग लो। अरे भाई ! मैं
तो अपने शरणागत भक्तोंपर केवल जल चढ़ानेसे ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूँ। भला, तुम झूठमूठ अपने शरीरको क्यों पीड़ा दे रहे हो ?’ ॥
२० ॥ परीक्षित् ! अत्यन्त पापी वृकासुरने समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला यह वर
माँगा कि ‘मैं जिसके सिरपर हाथ रख दूँ,
वही मर जाय’ ॥
२१ ॥ परीक्षित् ! उसकी यह याचना सुनकर भगवान् रुद्र पहले तो कुछ अनमनेसे हो गये, फिर हँसकर कह दिया—
‘अच्छा, ऐसा
ही हो।’ ऐसा वर देकर उन्होंने मानो साँपको अमृत पिला दिया ॥ २२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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