॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
शिवजी का सङ्कटमोचन
स तद्वरपरीक्षार्थं शम्भोर्मूर्ध्नि किलासुरः
स्वहस्तं धातुमारेभे सोऽबिभ्यत्स्वकृताच्छिवः २३
तेनोपसृष्टः सन्त्रस्तः पराधावन्सवेपथुः
यावदन्तं दिवो भूमेः कष्ठानामुदगादुदक् २४
अजानन्तः प्रतिविधिं तूष्णीमासन्सुरेश्वराः
ततो वैकुण्ठमगमद्भास्वरं तमसः परम् २५
यत्र नारायणः साक्षान्न्यासिनां परमो गतिः
शान्तानां न्यस्तदण्डानां यतो नावर्तते गतः २६
तं तथा व्यसनं दृष्ट्वा भगवान्वृजिनार्दनः
दूरात्प्रत्युदियाद्भूत्वा बटुको योगमायया २७
मेखलाजिनदण्डाक्षैस्तेजसाग्निरिव ज्वलन्
अभिवादयामास च तं कुशपाणिर्विनीतवत् २८
श्रीभगवानुवाच
शाकुनेय भवान्व्यक्तं श्रान्तः किं दूरमागतः
क्षणं विश्रम्यतां पुंस आत्मायं सर्वकामधुक् २९
यदि नः श्रवणायालं युष्मद्व्यवसितं विभो
भण्यतां प्रायशः पुम्भिर्धृतैः स्वार्थान्समीहते ३०
श्रीशुक उवाच
एवं भगवता पृष्टो वचसामृतवर्षिणा
गतक्लमोऽब्रवीत्तस्मै यथापूर्वमनुष्ठितम् ३१
श्रीभगवानुवाच
एवं चेत्तर्हि तद्वाक्यं न वयं श्रद्दधीमहि
यो दक्षशापात्पैशाच्यं प्राप्तः प्रेतपिशाचराट् ३२
यदि वस्तत्र विश्रम्भो दानवेन्द्र जगद्गुरौ
तर्ह्यङ्गाशु स्वशिरसि हस्तं न्यस्य प्रतीयताम् ३३
यद्यसत्यं वचः शम्भोः कथञ्चिद्दानवर्षभ
तदैनं जह्यसद्वाचं न यद्वक्तानृतं पुनः ३४
इत्थं भगवतश्चित्रैर्वचोभिः स सुपेशलैः
भिन्नधीर्विस्मृतः शीर्ष्णि स्वहस्तं कुमतिर्न्यधात् ३५
अथापतद्भिन्नशिराः व्रजाहत इव क्षणात्
जयशब्दो नमःशब्दः साधुशब्दोऽभवद्दिवि ३६
मुमुचुः पुष्पवर्षाणि हते पापे वृकासुरे
देवर्षिपितृगन्धर्वा मोचितः सङ्कटाच्छिवः ३७
मुक्तं गिरिशमभ्याह भगवान्पुरुषोत्तमः
अहो देव महादेव पापोऽयं स्वेन पाप्मना ३८
हतः को नु महत्स्वीश जन्तुर्वै कृतकिल्बिषः
क्षेमी स्यात्किमु विश्वेशे कृतागस्को जगद्गुरौ ३९
य एवमव्याकृतशक्त्युदन्वतः
परस्य साक्षात्परमात्मनो हरेः
गिरित्रमोक्षं कथयेच्छृणोति वा
विमुच्यते संसृतिभिस्तथारिभिः ४०
भगवान् शङ्कर
के इस प्रकार कह देनेपर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आयी कि ‘मैं पार्वतीजीको ही हर लूँ।’
वह असुर शङ्कर जी के वरकी परीक्षाके लिये
उन्हीं के सिरपर हाथ रखनेका उद्योग करने लगा। अब तो शङ्कर जी अपने दिये हुए
वरदानसे ही भयभीत हो गये ॥ २३ ॥ वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर काँपते हुए
भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओंके अन्ततक दौड़ते गये; परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तरकी ओर बढ़े ॥ २४ ॥ बड़े-बड़े देवता इस
सङ्कट को टालनेका कोई उपाय न देखकर चुप रह गये। अन्तमें वे प्राकृतिक अंधकारसे परे
परम प्रकाशमय वैकुण्ठलोकमें गये ॥ २५ ॥ वैकुण्ठमें स्वयं भगवान् नारायण निवास करते
हैं। एकमात्र वे ही उन संन्यासियोंकी परम गति हैं, जो
सारे जगत्को अभयदान करके शान्तभावमें स्थित हो गये हैं। वैकुण्ठमें जाकर जीवको फिर
लौटना नहीं पड़ता ॥ २६ ॥ भक्तभयहारी भगवान् ने देखा कि शङ्करजी तो बड़े सङ्कटमें
पड़े हुए हैं। तब वे अपनी योगमायासे ब्रह्मचारी बनकर दूरसे ही धीरे-धीरे वृकासुरकी
ओर आने लगे ॥ २७ ॥ भगवान्ने मूँजकी मेखला, काला
मृगचर्म, दण्ड और रुद्राक्षकी माला धारण कर रखी थी। उनके एक-एक अंगसे ऐसी ज्योति निकल
रही थी, मानो आग धधक रही हो। वे हाथमें कुश लिये हुए थे। वृकासुरको देखकर उन्होने बड़ी
नम्रतासे झुककर प्रणाम किया ॥ २८ ॥
ब्रह्मचारी
वेषधारी भगवान् ने कहा—शकुनिनन्दन वृकासुरजी ! आप स्पष्ट ही बहुत
थके-से जान पड़ते हैं। आज आप बहुत दूरसे आ रहे हैं क्या ? तनिक
विश्राम तो कर लीजिये। देखिये,
यह शरीर ही सारे सुखोंकी जड़ है। इसीसे सारी
कामनाएँ पूरी होती हैं। इसे अधिक कष्ट न देना चाहिये ॥ २९ ॥ आप तो सब प्रकारसे
समर्थ हैं। इस समय आप क्या करना चाहते हैं ? यदि
मेरे सुननेयोग्य कोई बात हो तो बतलाइये। क्योंकि संसारमें देखा जाता है कि लोग
सहायकोंके द्वारा बहुत-से काम बना लिया करते हैं ॥ ३० ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान्के एक-एक शब्दसे अमृत बरस रहा था। उनके इस प्रकार पूछनेपर
पहले तो उसने तनिक ठहरकर अपनी थकावट दूर की; उसके
बाद क्रमश: अपनी तपस्या,
वरदान-प्राप्ति तथा भगवान् शङ्करके पीछे
दौडऩेकी बात शुरूसे कह सुनायी ॥ ३१ ॥
श्रीभगवान् ने
कहा—‘अच्छा, ऐसी बात है ? तब तो भाई ! हम उसकी बातपर विश्वास नहीं
करते। आप नहीं जानते हैं क्या ?
वह तो दक्ष प्रजापतिके शापसे पिशाचभावको
प्राप्त हो गया है। आजकल वही प्रेतों और पिशाचोंका सम्राट् है ॥ ३२ ॥ दानवराज ! आप
इतने बड़े होकर ऐसी छोटी-छोटी बातोंपर विश्वास कर लेते हैं ? आप यदि अब भी उसे जगद्गुरु मानते हों और उसकी बातपर विश्वास करते हों, तो झटपट अपने सिरपर हाथ रखकर परीक्षा कर लीजिये ॥ ३३ ॥ दानव-शिरोमणे ! यदि
किसी प्रकार शङ्करकी बात असत्य निकले तो उस असत्यवादीको मार डालिये, जिससे फिर कभी वह झूठ न बोल सके ॥ ३४ ॥ परीक्षित् ! भगवान्ने ऐसी मोहित
करनेवाली अद्भुत और मीठी बात कही कि उसकी विवेक-बुद्धि जाती रही। उस दुर्बुद्धिने
भूलकर अपने ही सिरपर हाथ रख लिया ॥ ३५ ॥ बस, उसी
क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरतीपर गिर पड़ा, मानो
उसपर बिजली गिर पड़ी हो। उस समय आकाशमें देवतालोग ‘जय-जय, नमो नम:, साधु-साधु !’ के नारे लगाने लगे ॥ ३६ ॥ पापी वृकासुरकी
मृत्युसे देवता, ऋषि, पितर और गन्धर्व अत्यन्त प्रसन्न होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे और भगवान्
शङ्कर उस विकट सङ्कट से मुक्त हो गये ॥ ३७ ॥ अब भगवान् पुरुषोत्तमने भयमुक्त
शङ्करजीसे कहा कि ‘देवाधिदेव ! बड़े हर्षकी बात है कि इस
दुष्टको इसके पापोंने ही नष्ट कर दिया। परमेश्वर ! भला, ऐसा
कौन प्राणी है जो महापुरुषोंका अपराध करके कुशलसे रह सके ? फिर
स्वयं जगद्गुरु विश्वेश्वर ! आपका अपराध करके तो कोई सकुशल रह ही कैसे सकता है ?’ ॥ ३८-३९ ॥
भगवान् अनन्त
शक्तियोंके समुद्र हैं। उनकी एक-एक शक्ति मन और वाणीकी सीमाके परे है। वे
प्रकृतिसे अतीत स्वयं परमात्मा हैं। उनकी शङ्करजीको सङ्कटसे छुड़ानेकी यह लीला जो
कोई कहता या सुनता है, वह संसारके बन्धनों और शत्रुओंके भयसे मुक्त
हो जाता है ॥ ४० ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुद्र मोक्षणं
नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें