॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भृगुजी के
द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा
भगवान् का
मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना
श्रीशुक उवाच
सरस्वत्यास्तटे राजन्नृषयः सत्रमासत
वितर्कः समभूत्तेषां त्रिष्वधीशेषु को महान् १
तस्य जिज्ञासया ते वै भृगुं ब्रह्मसुतं नृप
तज्ज्ञप्त्यै प्रेषयामासुः सोऽभ्यगाद्ब्रह्मणः सभाम् २
न तस्मै प्रह्वणं स्तोत्रं चक्रे सत्त्वपरीक्षया
तस्मै चुक्रोध भगवान्प्रज्वलन्स्वेन तेजसा ३
स आत्मन्युत्थितम्मन्युमात्मजायात्मना प्रभुः
अशीशमद्यथा वह्निं स्वयोन्या वारिणात्मभूः ४
ततः कैलासमगमत्स तं देवो महेश्वरः
परिरब्धुं समारेभे उत्थाय भ्रातरं मुदा ५
नैच्छत्त्वमस्युत्पथग इति देवश्चुकोप ह
शूलमुद्यम्य तं हन्तुमारेभे तिग्मलोचनः ६
पतित्वा पादयोर्देवी सान्त्वयामास तं गिरा
अथो जगाम वैकुण्ठं यत्र देवो जनार्दनः ७
शयानं श्रिय उत्सङ्गे पदा वक्षस्यताडयत्
तत उत्थाय भगवान्सह लक्ष्म्या सतां गतिः ८
स्वतल्पादवरुह्याथ ननाम शिरसा मुनिम्
आह ते स्वागतं ब्रह्मन्निषीदात्रासने क्षणम्
अजानतामागतान्वः क्षन्तुमर्हथ नः प्रभो ९
अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने
इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन् स्वेन पाणिना १०
पुनीहि सहलोकं मां लोकपालांश्च मद्गतान्
पादोदकेन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा ११
अद्याहं भगवंल्लक्ष्म्या आसमेकान्तभाजनम्
वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहसः १२
श्रीशुक उवाच
एवं ब्रुवाणे वैकुण्ठे भृगुस्तन्मन्द्रया गिरा
निर्वृतस्तर्पितस्तूष्णीं भक्त्युत्कण्ठोऽश्रुलोचनः १३
पुनश्च सत्रमाव्रज्य मुनीनां ब्रह्मवादिनाम्
स्वानुभूतमशेषेण राजन्भृगुरवर्णयत् १४
तन्निशम्याथ मुनयो विस्मिता मुक्तसंशयाः
भूयांसं श्रद्दधुर्विष्णुं यतः शान्तिर्यतोऽभयम् १५
धर्मः साक्षाद्यतो ज्ञानं वैराग्यं च तदन्वितम्
ऐश्वर्यं चाष्टधा यस्माद्यशश्चात्ममलापहम् १६
मुनीनां न्यस्तदण्डानां शान्तानां समचेतसाम्
अकिञ्चनानां साधूनां यमाहुः परमां गतिम् १७
सत्त्वं यस्य प्रिया मूर्तिर्ब्राह्मणास्त्विष्टदेवताः
भजन्त्यनाशिषः शान्ता यं वा निपुणबुद्धयः १८
त्रिविधाकृतयस्तस्य राक्षसा असुराः सुराः
गुणिन्या मायया सृष्टाः सत्त्वं तत्तीर्थसाधनम् १९
श्रीशुक उवाच
इत्थं सारस्वता विप्रा नृणाम्संशयनुत्तये
पुरुषस्य पदाम्भोज सेवया तद्गतिं गताः २०
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! एक बार सरस्वती नदीके पावन तटपर यज्ञ प्रारम्भ करनेके लिये
बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र होकर बैठे। उन लोगोंमें इस विषयपर वाद-विवाद चला कि
ब्रह्मा, शिव और विष्णुमें सबसे बड़ा कौन है ? ॥ १ ॥ परीक्षित् ! उन लोगोंने यह बात
जाननेके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी परीक्षा लेनेके उद्देश्यसे
ब्रह्माके पुत्र भृगुजीको उनके पास भेजा। महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रह्माजीकी
सभामें गये ॥ २ ॥ उन्होंने ब्रह्माजीके धैर्य आदिकी परीक्षा करनेके लिये न उन्हें
नमस्कार किया और न तो उनकी स्तुति ही की। इसपर ऐसा मालूम हुआ कि ब्रह्माजी अपने
तेजसे दहक रहे हैं। उन्हें क्रोध आ गया ॥ ३ ॥ परन्तु जब समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि
यह तो मेरा पुत्र ही है,
तब अपने मनमें उठे हुए क्रोधको भीतर-ही-भीतर
विवेकबुद्धिसे दबा लिया;
ठीक वैसे ही, जैसे
कोई अरणिमन्थन से उत्पन्न अग्नि को जलसे बुझा दे ॥ ४ ॥
वहाँसे महर्षि
भृगु कैलासमें गये। देवाधिदेव भगवान् शङ्कर ने जब देखा कि मेरे भाई भृगुजी आये
हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्दसे खड़े होकर उनका आलिङ्गन करनेके लिये भुजाएँ फैला दीं
॥ ५ ॥ परन्तु महर्षि भृगुने उनसे आलिङ्गन करना स्वीकार न किया और कहा—‘तुम लोक और वेदकी मर्यादाका उल्लङ्घन करते हो, इसलिये
मैं तुमसे नहीं मिलता।’
भृगुजीकी यह बात सुनकर भगवान् शङ्कर क्रोधके
मारे तिलमिला उठे। उनकी आँखें चढ़ गयीं। उन्होंने त्रिशूल उठाकर महर्षि भृगुको
मारना चाहा ॥ ६ ॥ परन्तु उसी समय भगवती सतीने उनके चरणोंपर गिरकर बहुत अनुनय-विनय
की और किसी प्रकार उनका क्रोध शान्त किया। अब महर्षि भृगुजी भगवान् विष्णुके निवासस्थान
वैकुण्ठमें गये ॥ ७ ॥ उस समय भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीकी गोदमें अपना सिर रखकर
लेटे हुए थे। भृगुजीने जाकर उनके वक्ष:स्थलपर एक लात कसकर जमा दी। भक्तवत्सल
भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीके साथ उठ बैठे और झटपट अपनी शय्यासे नीचे उतरकर मुनिको
सिर झुकाया, प्रणाम किया। भगवान्ने कहा—‘ब्रह्मन् ! आपका स्वागत है, आप भले पधारे। इस आसनपर बैठकर कुछ क्षण विश्राम कीजिये। प्रभो ! मुझे आपके
शुभागमनका पता न था। इसीसे मैं आपकी अगवानी न कर सका। मेरा अपराध क्षमा कीजिये ॥
८-९ ॥ महामुने ! आपके चरणकमल अत्यन्त कोमल हैं।’ यों
कहकर भृगुजीके चरणोंको भगवान् अपने हाथोंसे सहलाने लगे ॥ १० ॥ और बोले—‘महर्षे ! आपके चरणोंका जल तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाला है। आप उससे
वैकुण्ठलोक, मुझे और मेरे अन्दर रहनेवाले लोकपालोंको पवित्र कीजिये ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके
चरणकमलोंके स्पर्शसे मेरे सारे पाप धुल गये। आज मैं लक्ष्मीका एकमात्र आश्रय हो
गया। अब आपके चरणोंसे चिह्नित मेरे वक्ष:स्थलपर लक्ष्मी सदा-सर्वदा निवास करेंगी’ ॥ १२ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—जब भगवान् ने अत्यन्त गम्भीर वाणीसे इस प्रकार कहा, तब
भृगुजी परम सुखी और तृप्त हो गये। भक्तिके उद्रेक से उनका गला भर आया, आँखोंमें आँसू छलक आये और वे चुप हो गये ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! भृगुजी वहाँसे
लौटकर ब्रह्मवादी मुनियोंके सत्सङ्गमें आये और उन्हें ब्रह्मा, शिव और विष्णुभगवान् के यहाँ जो कुछ अनुभव हुआ था, वह
सब कह सुनाया ॥ १४ ॥ भृगुजीका अनुभव सुनकर सभी ऋषि-मुनियोंको बड़ा विस्मय हुआ, उनका सन्देह दूर हो गया। तबसे वे भगवान् विष्णुको ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगे; क्योंकि वे ही शान्ति और अभयके उद्गमस्थान हैं ॥ १५ ॥ भगवान् विष्णुसे ही
साक्षात् धर्म, ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकारके ऐश्वर्य और चित्तको शुद्ध करनेवाला यश प्राप्त होता है ॥ १६ ॥
शान्त, समचित्त, अकिञ्चन और सबको अभय देनेवाले साधु-मुनियोंकी वे ही एकमात्र परम गति हैं। ऐसा
सारे शास्त्र कहते हैं ॥ १७ ॥ उनकी प्रिय मूर्ति है सत्त्व और इष्टदेव हैं
ब्राह्मण। निष्काम, शान्त और निपुणबुद्धि (विवेकसम्पन्न) पुरुष
उनका भजन करते हैं ॥ १८ ॥ भगवान् की गुणमयी मायाने राक्षस, असुर और देवता—उनकी ये तीन मूर्तियाँ बना दी हैं। इनमें
सत्त्वमयी देवमूर्ति ही उनकी प्राप्तिका साधन है। वे स्वयं ही समस्त पुरुषार्थ-
स्वरूप हैं ॥ १९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! सरस्वतीतटके ऋषियोंने अपने लिये नहीं, मनुष्योंका
संशय मिटानेके लिये ही ऐसी युक्ति रची थी। पुरुषोत्तम भगवान्के चरणकमलोंकी सेवा
करके उन्होंने उनका परमपद प्राप्त किया ॥ २० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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