॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भृगुजी के
द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा
भगवान् का
मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना
श्रीसूत उवाच
इत्येतन्मुनितनयास्यपद्मगन्ध
पीयूषं भवभयभित्परस्य पुंसः
सुश्लोकं श्रवणपुटैः पिबत्यभीक्ष्णम्
पान्थोऽध्वभ्रमणपरिश्रमं जहाति २१
श्रीशुक उवाच
एकदा द्वारवत्यां तु विप्रपत्न्याः कुमारकः
जातमात्रो भुवं स्पृष्ट्वा ममार किल भारत २२
विप्रो गृहीत्वा मृतकं राजद्वार्युपधाय सः
इदं प्रोवाच विलपन्नातुरो दीनमानसः २३
ब्रह्मद्विषः शठधियो लुब्धस्य विषयात्मनः
क्षत्रबन्धोः कर्मदोषात्पञ्चत्वं मे गतोऽर्भकः २४
हिंसाविहारं नृपतिं दुःशीलमजितेन्द्रियम्
प्रजा भजन्त्यः सीदन्ति दरिद्रा नित्यदुःखिताः २५
एवं द्वितीयं विप्रर्षिस्तृतीयं त्वेवमेव च
विसृज्य स नृपद्वारि तां गाथां समगायत २६
तामर्जुन उपश्रुत्य कर्हिचित्केशवान्तिके
परेते नवमे बाले ब्राह्मणं समभाषत २७
किं स्विद्ब्रह्मंस्त्वन्निवासे इह नास्ति धनुर्धरः
राजन्यबन्धुरेते वै ब्राह्मणाः सत्रमासते २८
धनदारात्मजापृक्ता यत्र शोचन्ति ब्राह्मणाः
ते वै राजन्यवेषेण नटा जीवन्त्यसुम्भराः २९
अहं प्रजाः वां भगवन्रक्षिष्ये दीनयोरिह
अनिस्तीर्णप्रतिज्ञोऽग्निं प्रवेक्ष्ये हतकल्मषः ३०
श्रीब्राह्मण उवाच
सङ्कर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नो धन्विनां वरः
अनिरुद्धोऽप्रतिरथो न त्रातुं शक्नुवन्ति यत् ३१
तत्कथं नु भवान्कर्म दुष्करं जगदीश्वरैः
त्वं चिकीर्षसि बालिश्यात्तन्न श्रद्दध्महे वयम् ३२
सूतजी कहते
हैं—शौनकादि ऋषियो ! भगवान् पुरुषोत्तमकी यह कमनीय कीर्ति-कथा जन्म- मृत्युरूप
संसारके भयको मिटानेवाली है। यह व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजीके मुखारविन्दसे
निकली हुई सुरभिमयी मधुमयी सुधाधारा है। इस संसारके लंबे पथका जो बटोही अपने
कानोंके दोनोंसे इसका निरन्तर पान करता रहता है, उसकी
सारी थकावट, जो जगत्में इधर-उधर भटकनेसे होती है, दूर हो जाती है ॥ २१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! एक दिनकी बात है,
द्वारकापुरीमें किसी ब्राह्मणीके गर्भसे एक
पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय पृथ्वीका स्पर्श होते ही मर गया ॥ २२ ॥ ब्राह्मण अपने
बालकका मृत शरीर लेकर राजमहलके द्वारपर गया और वहाँ उसे रखकर अत्यन्त आतुरता और
दु:खी मनसे विलाप करता हुआ यह कहने लगा— ॥ २३ ॥ ‘इसमें सन्देह
नहीं कि ब्राह्मणद्रोही,
धूर्त, कृपण
और विषयी राजाके कर्मदोषसे ही मेरे बालककी मृत्यु हुई है ॥ २४ ॥ जो राजा हिंसा-
परायण, दु:शील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा करनेवाली प्रजा दरिद्र
होकर दु:ख-पर-दु:ख भोगती रहती है और उसके सामने सङ्कट-पर-सङ्कट आते रहते हैं ॥ २५
॥ परीक्षित् ! इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालकके भी पैदा होते ही मर जानेपर
वह ब्राह्मण लडक़ेकी लाश राजमहलके दरवाजेपर डाल गया और वही बात कह गया ॥ २६ ॥ नवें
बालकके मरनेपर जब वह वहाँ आया,
तब उस समय भगवान् श्रीकृष्णके पास अर्जुन भी
बैठे हुए थे। उन्होंने ब्राह्मणकी बात सुनकर उससे कहा— ॥
२७ ॥ ‘ब्रह्मन् ! आपके निवासस्थान द्वारकामें कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या ? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्राह्मण हैं और प्रजापालनका परित्याग करके किसी
यज्ञमें बैठे हुए हैं ! ॥ २८ ॥ जिनके राज्यमें धन, स्त्री
अथवा पुत्रोंसे वियुक्त होकर ब्राह्मण दु:खी होते हैं, वे
क्षत्रिय नहीं हैं, क्षत्रियके वेषमें पेट पालनेवाले नट हैं।
उनका जीवन व्यर्थ है ॥ २९ ॥ भगवन् ! मैं समझता हूँ कि आप स्त्री-पुरुष अपने
पुत्रोंकी मृत्युसे दीन हो रहे हैं। मैं आपकी सन्तानकी रक्षा करूँगा। यदि मैं अपनी
प्रतिज्ञा पूरी न कर सका,
तो आगमें कूदकर जल मरूँगा और इस प्रकार मेरे
पापका प्रायश्चित्त हो जायगा’
॥ ३० ॥
ब्राह्मणने
कहा—अर्जुन ! यहाँ बलरामजी,
भगवान् श्रीकृष्ण, धनुर्धरशिरोमणि
प्रद्युम्र, अद्वितीय योद्धा अनिरुद्ध भी जब मेरे बालकोंकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हैं; इन जगदीश्वरोंके लिये भी यह काम कठिन हो रहा है; तब
तुम इसे कैसे करना चाहते हो ?
सचमुच यह तुम्हारी मूर्खता है। हम तुम्हारी
इस बातपर बिलकुल विश्वास नहीं करते ॥ ३१-३२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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