॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
भृगुजी के
द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा
भगवान् का
मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना
श्रीअर्जुन उवाच
नाहं सङ्कर्षणो ब्रह्मन्न कृष्णः कार्ष्णिरेव च
अहं वा अर्जुनो नाम गाण्डीवं यस्य वै धनुः ३३
मावमंस्था मम ब्रह्मन्वीर्यं त्र्यम्बकतोषणम्
मृत्युं विजित्य प्रधने आनेष्ये ते प्रजाः प्रभो ३४
एवं विश्रम्भितो विप्रः फाल्गुनेन परन्तप
जगाम स्वगृहं प्रीतः पार्थवीर्यं निशामयन् ३५
प्रसूतिकाल आसन्ने भार्याया द्विजसत्तमः
पाहि पाहि प्रजां मृत्योरित्याहार्जुनमातुरः ३६
स उपस्पृश्य शुच्यम्भो नमस्कृत्य महेश्वरम्
दिव्यान्यस्त्राणि संस्मृत्य सज्यं गाण्डीवमाददे ३७
न्यरुणत्सूतिकागारं शरैर्नानास्त्रयोजितैः
तिर्यगूर्ध्वमधः पार्थश्चकार शरपञ्जरम् ३८
ततः कुमारः सञ्जातो विप्रपत्न्या रुदन्मुहुः
सद्योऽदर्शनमापेदे सशरीरो विहायसा ३९
तदाह विप्रो विजयं विनिन्दन्कृष्णसन्निधौ
मौढ्यं पश्यत मे योऽहं श्रद्दधे क्लीबकत्थनम् ४०
न प्रद्युम्नो नानिरुद्धो न रामो न च केशवः
यस्य शेकुः परित्रातुं कोऽन्यस्तदवितेश्वरः ४१
धिगर्जुनं मृषावादं धिगात्मश्लाघिनो धनुः
दैवोपसृष्टं यो मौढ्यादानिनीषति दुर्मतिः ४२
एवं शपति विप्रर्षौ विद्यामास्थाय फाल्गुनः
ययौ संयमनीमाशु यत्रास्ते भगवान्यमः ४३
विप्रापत्यमचक्षाणस्तत ऐन्द्री मगात्पुरीम्
आग्नेयीं नैरृतीं सौम्यां वायव्यां वारुणीमथ
रसातलं नाकपृष्ठं धिष्ण्यान्यन्यान्युदायुधः४४
ततोऽलब्धद्विजसुतो ह्यनिस्तीर्णप्रतिश्रुतः
अग्निं विविक्षुः कृष्णेन प्रत्युक्तः प्रतिषेधता ४५
दर्शये द्विजसूनूंस्ते मावज्ञात्मानमात्मना
ये ते नः कीर्तिं विमलां मनुष्याः स्थापयिष्यन्ति ४६
इति सम्भाष्य भगवानर्जुनेन सहेश्वरः
दिव्यं स्वरथमास्थाय प्रतीचीं दिशमाविशत् ४७
सप्त द्वीपान्ससिन्धूंश्च सप्त सप्त गिरीनथ
लोकालोकं तथातीत्य विवेश सुमहत्तमः ४८
अर्जुनने कहा—ब्रह्मन् ! मैं बलराम,
श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न नहीं हूँ। मैं हूँ
अर्जुन, जिसका गाण्डीव नामक धनुष विश्वविख्यात है ॥ ३३ ॥ ब्राह्मणदेवता ! आप मेरे बल-पौरुषका
तिरस्कार मत कीजिये। आप जानते नहीं,
मैं अपने पराक्रमसे भगवान् शङ्कर को
सन्तुष्ट कर चुका हूँ। भगवन् ! मैं आपसे अधिक क्या कहूँ, मैं
युद्धमें साक्षात् मृत्युको भी जीतकर आपकी सन्तान ला दूँगा ॥३४॥
परीक्षित् !
जब अर्जुनने उस ब्राह्मणको इस प्रकार विश्वास दिलाया, तब
वह लोगोंसे उनके बल-पौरुषका बखान करता हुआ बड़ी प्रसन्नतासे अपने घर लौट गया ॥ ३५
॥ प्रसव का समय निकट आनेपर ब्राह्मण आतुर होकर अर्जुनके पास आया और कहने लगा—‘इस बार तुम मेरे बच्चेको मृत्युसे बचा लो’ ॥
३६ ॥ यह सुनकर अर्जुनने शुद्ध जलसे आचमन किया, तथा
भगवान् शङ्कर को नमस्कार किया। फिर दिव्य अस्त्रोंका स्मरण किया और गाण्डीव
धनुषपर डोरी चढ़ाकर उसे हाथमें ले लिया ॥ ३७ ॥ अर्जुनने बाणोंको अनेक प्रकारके
अस्त्र-मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके प्रसवगृहको चारों ओरसे घेर दिया। इस प्रकार
उन्होंने सूतिकागृहके ऊपर-नीचे,
अगल-बगल बाणोंका एक ङ्क्षपजड़ा-सा बना दिया ॥
३८ ॥ इसके बाद ब्राह्मणीके गर्भसे एक शिशु पैदा हुआ, जो
बार-बार रो रहा था। परन्तु देखते-ही-देखते वह सशरीर आकाशमें अन्तर्धान हो गया ॥ ३९
॥ अब वह ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके सामने ही अर्जुनकी निन्दा करने लगा। वह बोला—‘मेरी मूर्खता तो देखो,
मैंने इस नपुंसककी डींगभरी बातोंपर विश्वास
कर लिया ॥ ४० ॥ भला जिसे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध यहाँतक कि बलराम और भगवान्
श्रीकृष्ण भी न बचा सके,
उसकी रक्षा करनेमें और कौन समर्थ है ? ॥ ४१ ॥ मिथ्यावादी अर्जुनको धिक्कार है ! अपने मुँह अपनी बड़ाई करनेवाले
अर्जुनके धनुषको धिक्कार है !! इसकी दुर्बुद्धि तो देखो ! यह मूढ़तावश उस बालकको
लौटा लाना चाहता है, जिसे प्रारब्धने हमसे अलग कर दिया है’ ॥ ४२ ॥
जब वह
ब्राह्मण इस प्रकार उन्हें भला-बुरा कहने लगा, तब
अर्जुन योगबलसे तत्काल संयमनीपुरी में गये, जहाँ
भगवान् यमराज निवास करते हैं ॥ ४३ ॥ वहाँ उन्हें ब्राह्मण का बालक नहीं मिला। फिर
वे शस्त्र लेकर क्रमश: इन्द्र,
अग्नि, निर्ऋति, सोम, वायु और वरुण आदिकी पुरियोंमें,
अतलादि नीचे के लोकों में, स्वर्गसे ऊपरके महर्लोकादिमें एवं अन्यान्य स्थानोंमें गये ॥ ४४ ॥ परन्तु कहीं
भी उन्हें ब्राह्मणका बालक न मिला। उनकी प्रतिज्ञा पूरी न हो सकी। अब उन्होंने अग्नि
में प्रवेश करनेका विचार किया। परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें ऐसा करनेसे
रोकते हुए कहा— ॥ ४५ ॥ ‘भाई अर्जुन ! तुम अपने आप अपना तिरस्कार मत करो। मैं तुम्हें ब्राह्मणके सब
बालक अभी दिखाये देता हूँ। आज जो लोग तुम्हारी निन्दा कर रहे हैं, वे ही फिर हमलोगोंकी निर्मल कीर्तिकी स्थापना करेंगे’ ॥
४६ ॥
सर्वशक्तिमान्
भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार समझा-बुझाकर अर्जुनके साथ अपने दिव्य रथपर सवार हुए
और पश्चिम दिशाको प्रस्थान किया ॥ ४७ ॥ उन्होंने सात-सात पर्वतोंवाले सात द्वीप, सात समुद्र और लोकालोकपर्वत को लाँघकर घोर अन्धकार में प्रवेश किया ॥ ४८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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