॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान् के अवतारों का वर्णन
श्रीराजोवाच
-
यानि
यानीह कर्माणि यैर्यैः स्वच्छन्दजन्मभिः ।
चक्रे
करोति कर्ता वा हरिस्तानि ब्रुवन्तु नः ॥ १ ॥
श्रीद्रुमिल
उवाच -
यो
वा अनन्तस्य गुणान् अनन्तान्
अनुक्रमिष्यन् स तु बालबुद्धिः ।
रजांसि भूमेर्गणयेत् कथञ्चित्
कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्नः ॥ २ ॥
भूतैर्यदा पञ्चभिरात्मसृष्टैः ।
पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन् ।
स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधानम् ।
अवाप नारायण आदिदेवः ॥ ३ ॥
यत्काय
एष भुवनत्रयसन्निवेशो
यस्येन्द्रियैस्तनुभृतामुभयेन्द्रियाणि ।
ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहा
सत्त्वादिभिः स्थितिलयोद्भव आदिकर्ता ॥ ४ ॥
आदौ अभूत् शतधृती रजसास्य सर्गे
विष्णुः स्थित्तौ क्रतुपतिः द्विजधर्मसेतुः
।
रुद्रोऽप्ययाय तमसा पुरुषः स आद्य
इत्युद्भवस्थितिलयाः सततं प्रजासु ॥ ५ ॥
धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां
नारायणो नर ऋषिप्रवरः प्रशान्तः ।
नैष्कर्म्यलक्षणमुवाच चचार कर्म
योऽद्यापि चास्त ऋषिवर्यनिषेविताङ्घ्रिः ॥
६ ॥
इन्द्रो विशङ्क्य मम धाम जिघृक्षतीति
कामं न्ययुङ्क्त सगणं स बदर्युपाख्यम् ।
गत्वाप्सरोगणवसन्त सुमन्दवातैः
स्त्रीप्रेक्षणेषुभिरविध्यदतन्महिज्ञः ॥ ७ ॥
विज्ञाय शक्रकृतमक्रममादिदेवः
प्राह प्रहस्य गतविस्मय एजमानान् ।
मा भैर्विभो
मदन मारुत देववध्वो
गृह्णीत नो बलिमशून्यमिमं कुरुध्वम् ॥ ८ ॥
इत्थं ब्रुवत्यभयदे नरदेव देवाः
सव्रीडनम्रशिरसः सघृणं तमूचुः ।
नैतद्विभो त्वयि परेऽविकृते विचित्रं
स्वारामधीरनिकरा नतपादपद्मे ॥ ९ ॥
त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तरायाः
स्वौकः विलङ्घ्य परमं व्रजतां पदं ते ।
नान्यस्य बर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान्
धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूर्ध्नि ॥ १०
॥
राजा निमि ने पूछा—योगीश्वरो !
भगवान् स्वतन्त्रता से अपने भक्तों की
भक्ति के वश होकर अनेकों प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और अनेकों लीलाएँ करते
हैं। आपलोग कृपा करके भगवान् की उन लीलाओं का वर्णन कीजिये, जो वे अबतक कर चुके हैं,कर रहे हैं या करेंगे ॥ १ ॥
अब सातवें योगीश्वर द्रुमिलजी ने
कहा—राजन् ! भगवान् अनन्त हैं। उनके गुण भी अनन्त हैं। जो यह सोचता है कि मैं
उनके गुणोंको गिन लूँगा, वह मूर्ख है, बालक है। यह तो सम्भव है कि कोई किसी प्रकार पृथ्वीके धूलि-कणोंको
गिन ले, परन्तु समस्त शक्तियोंके आश्रय भगवान् के अनन्त गुणोंका कोई कभी
किसी प्रकार पार नहीं पा सकता ॥ २ ॥ भगवान् ने ही पृथ्वी,
जल, अग्नि, वायु, आकाश—इन
पाँच भूतों की अपने-आपसे अपने-आप में सृष्टि की है। जब वे इनके द्वारा विराट् शरीर, ब्रह्माण्ड का निर्माण
करके उसमें लीला से अपने अंश अन्तर्यामीरूप से प्रवेश करते हैं, (भोक्तारूप से नहीं, क्योंकि भोक्ता तो अपने पुण्यों के फलस्वरूप जीव ही होता है) तब उन
आदिदेव नारायणको ‘पुरुष’ नामसे कहते हैं, यही उनका पहला अवतार है ॥ ३ ॥ उन्हींके इस विराट् ब्रह्माण्ड
शरीरमें तीनों लोक स्थित हैं। उन्हींकी इन्द्रियोंसे समस्त देहधारियोंकी
ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ बनी हैं। उनके स्वरूपसे ही स्वत:सिद्ध ज्ञानका
सञ्चार होता है। उनके श्वास-प्रश्वाससे सब शरीरोंमें बल आता है तथा इन्द्रियोंमें
ओज (इन्द्रियोंकी शक्ति) और कर्म करनेकी शक्ति प्राप्त होती है। उन्हींके सत्त्व
आदि गुणोंसे संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय होते हैं। इस विराट् शरीरके जो शरीरी हैं, वे ही आदिकर्ता नारायण हैं ॥ ४ ॥ पहले-पहल जगत् की उत्पत्तिके लिये
उनके रजोगुणके अंशसे ब्रह्मा हुए, फिर वे आदिपुरुष ही संसारकी स्थितिके लिये अपने सत्त्वांशसे धर्म
तथा ब्राह्मणोंके रक्षक यज्ञपति विष्णु बन गये। फिर वे ही तमोगुणके अंशसे जगत्के
संहारके लिये रुद्र बने। इस प्रकार निरन्तर उन्हींसे परिवर्तनशील प्रजाकी
उत्पत्ति-स्थिति और संहार होते रहते हैं ॥ ५ ॥
दक्ष प्रजापतिकी एक कन्याका नाम था
मूर्ति। वह धर्मकी पत्नी थी। उसके गर्भसे भगवान् ने ऋषिश्रेष्ठ शान्तात्मा ‘नर’
और ‘नारायण’ के रूपमें अवतार लिया । उन्होंने आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करानेवाले
उस भगवदाराधनरूप कर्मका उपदेश किया, जो वास्तवमें कर्मबन्धनसे छुड़ानेवाला और नैष्कर्म्य स्थिति को
प्राप्त करानेवाला है। उन्होंने स्वयं भी वैसे ही कर्मका अनुष्ठान किया। बड़े-बड़े
ऋषि-मुनि उनके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं। वे आज भी बदरिकाश्रममें उसी कर्मका
आचरण करते हुए विराजमान हैं ॥ ६ ॥ ये अपनी घोर तपस्याके द्वारा मेरा धाम छीनना
चाहते हैं—इन्द्रने ऐसी आशंका करके स्त्री,
वसन्त आदि दल-बलके साथ कामदेवको उनकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये
भेजा। कामदेवको भगवान् की महिमाका ज्ञान
न था; इसलिये वह अप्सरागण, वसन्त तथा मन्द-सुगन्ध वायुके साथ बदरिकाश्रममें जाकर स्त्रियोंके
कटाक्ष बाणोंसे उह्े. घायल करनेकी चेष्टा करने लगा ॥ ७ ॥ आदिदेव नर-नारायणने यह
जानकर कि यह इन्द्रका कुचक्र है, भयसे काँपते हुए काम आदिकोंसे हँसकर कहा—उस समय उनके मनमें किसी
प्रकारका अभिमान या आश्चर्य नहीं था। ‘कामदेव,
मलयमारुत और देवाङ्गनाओ ! तुमलोग डरो मत;
हमारा आतिथ्य स्वीकार करो। अभी यहीं ठहरो,
हमारा आश्रम सूना मत करो’ ॥ ८ ॥ राजन् ! जब नर-नारायण ऋषिने उन्हें
अभयदान देते हुए इस प्रकार कहा, तब कामदेव आदिके सिर लज्जासे झुक गये। उन्होंने दयालु भगवान्
नर-नारायणसे कहा—‘प्रभो ! आपके लिये यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि आप
मायासे परे और निर्विकार हैं। बड़े-बड़े आत्माराम और धीर पुरुष निरन्तर आपके
चरणकमलोंमें प्रणाम करते रहते हैं ॥ ९ ॥ आपके भक्त आपकी भक्तिके प्रभावसे
देवताओंकी राजधानी अमरावतीका उल्लङ्घन करके आपके परमपदको प्राप्त होते हैं। इसलिये
जब वे भजन करने लगते हैं, तब देवतालोग तरह-तरहसे उनकी साधनामें विघ्र डालते हैं। किन्तु जो
लोग केवल कर्मकाण्डमें लगे रहकर यज्ञादिके द्वारा देवताओंको बलिके रूपमें उनका भाग
देते रहते हैं, उन लोगोंके मार्गमें वे किसी प्रकारका विघ्र नहीं डालते। परन्तु
प्रभो ! आपके भक्तजन उनके द्वारा उपस्थित की हुई विघ्र-बाधाओंसे गिरते नहीं। बल्कि
आपके कर-कमलोंकी छत्रछायामें रहते हुए वे विघ्नों के सिरपर पैर रखकर आगे बढ़ जाते
हैं, अपने लक्ष्यसे च्युत नहीं होते ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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