॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—तीसरा
अध्याय..(पोस्ट०४)
माया, माया से पार होने के
उपाय
तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण
श्रीराजोवाच
-
कर्मयोगं वदत
नः पुरुषो येन संस्कृतः ।
विधूयेहाशु कर्माणि नैष्कर्म्यं विन्दते परम् ॥
४१ ॥
एवं प्रश्नम् ऋषीन् पूर्वम् अपृच्छं
पितु्रन्तिके ।
नाब्रुवन् ब्रह्मणः पुत्राः तत्र कारणमुच्यताम्
॥ ४२ ॥
श्रीआविहोत्र उवाच -
कर्माकर्म
विकर्मेति वेदवादो न लौकिकः ।
वेदस्य चेश्वरात्मत्वात् तत्र मुह्यन्ति सूरयः ॥
४३ ॥
परोक्षवादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम् ।
कर्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा ॥ ४४ ॥
नाचरेद् यस्तु वेदोक्तं स्वयं अज्ञोऽजितेंद्रियः
।
विकर्मणा हि अधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः ॥
४५ ॥
वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्गोऽर्पितमीश्वरे ।
नैष्कर्म्यं लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुतिः ॥
४६ ॥
य आशु हृदयग्रन्थिं निर्जिहीर्षुः परात्मनः ।
विधिनोपचरेद् देवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ॥ ४७ ॥
लब्ध्वानुग्रह आचार्यात् तेन संदर्शितागमः ।
महापुरुषमभ्यर्चेन्मूर्त्याभिमतयाऽऽत्मनः ॥ ४८ ॥
शुचिः संमुखमासीनः प्राणसंयमनादिभिः ।
पिण्डं विशोध्य संन्यास कृतरक्षोऽर्चयेद् हरिम्
॥ ४९ ॥
अर्चादौ हृदये चापि यथालब्धोपचारकैः ।
द्रव्यक्षित्यात्मलिङ्गानि निष्पाद्य प्रोक्ष्य
चासनम् ॥ ५० ॥
पाद्यादीन् उपकल्प्याथ सन्निधाप्य समाहितः ।
हृदादिभिः कृतन्यासो मूलमंत्रेण चार्चयेत् ॥ ५१
॥
साङ्गोपाङ्गां सपार्षदां तां तां मूर्तिं
स्वमन्त्रतः ।
पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः स्नानवासोविभूषणैः ॥ ५२
॥
गन्धमाल्याक्षतस्रग्भिः धूपदीपोपहारकैः ।
साङ्गं संपूज्य विधिवत् स्तवैः स्तुत्वा नमेत्
हरिम् ॥ ५३ ॥
आत्मानं तन्मयं ध्यायन् मूर्तिं संपूजयेत् हरेः
।
शेषामाधाय शिरसा स्वधाम्न्युद्वास्य सत्कृतम् ॥
५४ ॥
एवमग्न्यर्कतोयादौ अतिथौ हृदये च यः ।
यजतीश्वरमात्मानं अचिरान्मुच्यते हि सः ॥ ५५ ॥
राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो ! अब
आपलोग हमें कर्मयोगका उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कम्र्य
अर्थात् कर्तृत्व, कर्म
और कर्मफलकी निवृत्ति करनेवाला ज्ञान प्राप्त करता है ॥ ४१ ॥ एक बार यही प्रश्र
मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकुके सामने ब्रह्माजीके मानस पुत्र सनकादि ऋषियोंसे
पूछा था, परन्तु उन्होंने सर्वज्ञ होनेपर भी मेरे प्रश्रका उत्तर न दिया। इसका
क्या कारण था ? कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ ४२ ॥
अब छठे योगीश्वर आविर्होत्रजी ने
कहा—राजन् ! कर्म (शास्त्रविहित), अकर्म (निषिद्ध) और विकर्म (विहितका उल्लङ्घन)—ये तीनों एकमात्र
वेदके द्वारा जाने जाते हैं, इनकी व्यवस्था लौकिक रीतिसे नहीं होती। वेद अपौरुषेय हैं—ईश्वररूप
हैं; इसलिये उनके तात्पर्यका निश्चय करना बहुत कठिन है। इसीसे बड़े-बड़े
विद्वान् भी उनके अभिप्रायका निर्णय करनेमें भूल कर बैठते हैं। (इसीसे तुम्हारे
बचपनकी ओर देखकर—तुम्हें अनधिकारी समझकर सनकादि ऋषियोंने तुम्हारे प्रश्रका उत्तर
नहीं दिया) ॥ ४३ ॥ यह वेद परोक्षवादात्मक [1]
है। यह कर्मोंकी निवृत्तिके लिये कर्मका विधान करता है, जैसे बालकको मिठाई आदिका लालच देकर औषध खिलाते हैं, वैसे ही यह अनभिज्ञोंको स्वर्ग आदिका प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्ममें
प्रवृत्त करता है ॥ ४४ ॥ जिसका अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं,
वह यदि मनमाने ढंगसे वेदोक्त कर्मोंका परित्याग कर देता है, तो वह विहित कर्मोंका आचरण न करनेके कारण विकर्मरूप अधर्म ही करता
है। इसलिये वह मृत्युके बाद फिर मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ४५ ॥ इसलिये फलकी
अभिलाषा छोड़- कर और विश्वात्मा भगवान्को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्मका ही
अनुष्ठान करता है, उसे
कर्मोंकी निवृत्तिसे प्राप्त होनेवाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है। जो वेदोंमें
स्वर्गादिरूप फलका वर्णन है, उसका तात्पर्य फलकी सत्यतामें नहीं है,
वह तो कर्मोंमें रुचि उत्पन्न करानेके लिये है ॥ ४६ ॥
राजन् ! जो पुरुष चाहता है कि
शीघ्र-से-शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्माकी हृदय-ग्रन्थि—मैं और मेरे की कल्पित
गाँठ खुल जाय, उसे चाहिये कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान्
की आराधना करे ॥ ४७ ॥ पहले सेवा आदिके द्वारा गुरुदेवकी दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठानकी विधि सीखे;
अपनेको भगवान् की जो
मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट
जान पड़े, उसीके द्वारा पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करे ॥ ४८ ॥ पहले
स्नानादिसे शरीर और सन्तोष आदिसे अन्त:करणको शुद्ध करे,
इसके बाद भगवान् की मूर्ति के सामने बैठकर प्राणायाम आदिके द्वारा
भूतशुद्धि—नाडी-शोधन करे, तत्पश्चात् विधिपूर्वक मन्त्र,
देवता आदिके न्याससे अङ्गरक्षा करके भगवान्की पूजा करे ॥ ४९ ॥
पहले पुष्प आदि पदार्थोंका जन्तु आदि निकालकर,
पृथ्वीको सम्मार्जन आदिसे,
अपनेको अव्यग्र होकर और भगवान् की मूर्तिको पहलेहीकी पूजाके लगे
हुए पदार्थोंके क्षालन आदिसे पूजाके योग्य बनाकर फिर आसनपर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल
छिडक़कर पाद्य, अर्घ्य आदि पात्रोंको
स्थापित करे। तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर हृदय में भगवान् का ध्यान करके फिर उसे
सामनेकी श्रीमूर्तिमें चिन्तन करे। तदनन्तर हृदय,
सिर, शिखा
(हृदयाय नम:, शिरसे स्वाहा) इत्यादि मन्त्रोंसे न्यास करे और अपने इष्टदेवके
मूलमन्त्रके द्वारा देश, काल आदिके अनुकूल प्राप्त पूजा-सामग्री से प्रतिमा आदिमें अथवा
हृदयमें भगवान्की पूजा करे ॥ ५०-५१ ॥ अपने-अपने उपास्यदेवके विग्रहकी हृदयादि
अङ्ग, आयुधादि उपाङ्ग और पार्षदोंसहित उसके मूलमन्त्रद्वारा पाद्य, अघ्र्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, दधि-अक्षत
के [2] तिलक,
माला, धूप, दीप और नैवेद्य आदिसे विधिवत् पूजा करे तथा फिर स्तोत्रोंद्वारा
स्तुति करके सपरिवार भगवान् श्रीहरिको नमस्कार करे ॥ ५२-५३ ॥ अपने आपको भगवन्मय
ध्यान करते हुए ही भगवान् की मूर्तिका
पूजन करना चाहिये। निर्माल्यको अपने सिरपर रखे और आदरके साथ भगवद्विग्रह को
यथास्थान स्थापित कर पूजा समाप्त करनी चाहिये ॥ ५४ ॥ इस प्रकार जो पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदय में आत्मरूप श्रीहरिकी पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ॥ ५५ ॥
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[1] जिसमें शब्दार्थ कुछ और मालूम दे और तात्पर्यार्थ कुछ और हो—उसे
परोक्षवाद कहते हैं।
[2] विष्णुभगवान् की पूजा में अक्षतों का प्रयोग केवल तिलकालंकार में
ही करना चाहिये, पूजा में नहीं—‘नाक्षतैरर्चयेद् विष्णुं न केतक्या महेश्वरम्।’
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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