शुक्रवार, 26 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ की विभूतियों का वर्णन

 

धिष्ण्यानामस्म्यहं मेरुर्गहनानां हिमालयः

वनस्पतीनामश्वत्थ ओषधीनामहं यवः २१

पुरोधसां वसिष्ठोऽहं ब्रह्मिष्ठानां बृहस्पतिः

स्कन्दोऽहं सर्वसेनान्यामग्रण्यां भगवानजः २२

यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोऽहं व्रतानामविहिंसनम्

वाय्वग्न्यर्काम्बुवागात्मा शुचीनामप्यहं शुचिः २३

योगानामात्मसंरोधो मन्त्रोऽस्मि विजिगीषताम्

आन्वीक्षिकी कौशलानां विकल्पः ख्यातिवादिनाम् २४

स्त्रीणां तु शतरूपाहं पुंसां स्वायम्भुवो मनुः

नारायणो मुनीनां च कुमारो ब्रह्मचारिणाम् २५

धर्माणामस्मि सन्न्यासः क्षेमाणामबहिर्मतिः

गुह्यानां सुनृतं मौनं मिथुनानामजस्त्वहम् २६

संवत्सरोऽस्म्यनिमिषामृतूनां मधुमाधवौ

मासानां मार्गशीर्षोऽहं नक्षत्राणां तथाभिजित् २७

अहं युगानां च कृतं धीराणां देवलोऽसितः

द्वैपायनोऽस्मि व्यासानां कवीनां काव्य आत्मवान् २८

वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम्

किम्पुरुषानां हनुमान्विद्याध्राणां सुदर्शनः २९

रत्नानां पद्मरागोऽस्मि पद्मकोशः सुपेशसाम्

कुशोऽस्मि दर्भजातीनां गव्यमाज्यं हविःष्वहम् ३०

व्यवसायिनामहं लक्ष्मीः कितवानां छलग्रहः

तितिक्षास्मि तितिक्षूणां सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ३१

ओजः सहो बलवतां कर्माहं विद्धि सात्वताम्

सात्वतां नवमूर्तीनामादिमूर्तिरहं परा ३२

विश्वावसुः पूर्वचित्तिर्गन्धर्वाप्सरसामहम्

भूधराणामहं स्थैर्यं गन्धमात्रमहं भुवः ३३

अपां रसश्च परमस्तेजिष्ठानां विभावसुः

प्रभा सूर्येन्दुताराणां शब्दोऽहं नभसः परः ३४

ब्रह्मण्यानां बलिरहं वीराणामहमर्जुनः

भूतानां स्थितिरुत्पत्तिरहं वै प्रतिसङ्क्रमः ३५

गत्युक्त्युत्सर्गोपादानमानन्दस्पर्शलक्षणम्

आस्वादश्रुत्यवघ्राणमहं सर्वेन्द्रियेन्द्रियम् ३६

पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतिरहं महान्

विकारः पुरुषोऽव्यक्तं रजः सत्त्वं तमः परम्

अहमेतत्प्रसङ्ख्यानं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयः ३७

मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना

सर्वात्मनापि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित् ३८

सङ्ख्यानं परमाणूनां कालेन क्रियते मया

न तथा मे विभूतीनां सृजतोऽण्डानि कोटिशः ३९

तेजः श्रीः कीर्तिरैश्वर्यं ह्रीस्त्यागः सौभगं भगः

वीर्यं तितिक्षा विज्ञानं यत्र यत्र स मेंऽशकः ४०

एतास्ते कीर्तिताः सर्वाः सङ्क्षेपेण विभूतयः

मनोविकारा एवैते यथा वाचाभिधीयते ४१

वाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान्यच्छेन्द्रियाणि च

आत्मानमात्मना यच्छ न भूयः कल्पसेऽध्वने ४२

यो वै वाङ्मनसी संयगसंयच्छन्धिया यतिः

तस्य व्रतं तपो दानं स्रवत्यामघटाम्बुवत् ४३

तस्माद्वचो मनः प्राणान्नियच्छेन्मत्परायणः

मद्भक्तियुक्तया बुद्ध्या ततः परिसमाप्यते ४४

 

मैं निवासस्थानोंमें सुमेरु, दुर्गम स्थानोंमें हिमालय, वनस्पतियोंमें पीपल और धान्यों  में जौ हूँ ॥ २१ ॥ मैं पुरोहितोंमें वसिष्ठ, वेदवेत्ताओंमें बृहस्पति, समस्त सेनापतियोंमें स्वामिकार्तिक और सन्मार्गप्रवर्तकोंमें भगवान्‌ ब्रह्मा हूँ ॥ २२ ॥ पञ्चमहायज्ञोंमें ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याययज्ञ) हूँ, व्रतोंमें अहिंसाव्रत और शुद्ध करनेवाले पदार्थोंमें नित्यशुद्ध वायु, अग्रि, सूर्य, जल, वाणी एवं आत्मा हूँ ॥ २३ ॥ आठ प्रकारके योगोंमें मैं मनोनिरोधरूप समाधि हूँ। विजयके इच्छुकोंमें रहनेवाला मैं मन्त्र (नीति) बल हूँ, कौशलोंमें आत्मा और अनात्माका विवेकरूप कौशल तथा ख्यातिवादियोंमें विकल्प हूँ ॥ २४ ॥ मैं स्त्रियोंमें मनुपत्नी शतरूपा, पुरुषोंमें स्वायम्भुव मनु, मुनीश्वरोंमें नारायण और ब्रह्मचारियोंमें सनत्कुमार हूँ ॥ २५ ॥ मैं धर्मोंमें कर्मसंन्यास अथवा एषणात्रयके त्यागद्वारा सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयदानरूप सच्चा संन्यास हूँ। अभयके साधनोंमें आत्मस्वरूपका अनुसन्धान हूँ, अभिप्राय-गोपनके साधनोंमें मधुर वचन एवं मौन हूँ और स्त्री-पुरुषके जोड़ोंमें मैं प्रजापति हूँ—जिनके शरीरके दो भागोंसे पुरुष और स्त्रीका पहला जोड़ा पैदा हुआ ॥ २६ ॥ सदा सावधान रहकर जागनेवालोंमें संवत्सररूप काल मैं हूँ, ऋतुओंमें वसन्त, महीनोंमें मार्गशीर्ष और नक्षत्रोंमें अभिजित् हूँ ॥ २७ ॥ मैं युगोंमें सत्ययुग, विवेकियोंमें महर्षि देवल और असित, व्यासोंमें श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास तथा कवियोंमें मनस्वी शुक्राचार्य हूँ ॥ २८ ॥ सृष्टिकी उत्पत्ति और लय, प्राणियोंके जन्म और मृत्यु तथा विद्या और अविद्याके जाननेवाले भगवानों  में (विशिष्ट महापुरुषोंमें) मैं वासुदेव हूँ। मेरे प्रेमी भक्तोंमें तुम (उद्धव), किम्पुरुषोंमें हनुमान्, विद्याधरोंमें सुदर्शन (जिसने अजगरके रूपमें नन्दबाबाको ग्रस लिया था और फिर भगवान्‌के पादस्पर्शसे मुक्त हो गया था) मैं हूँ ॥ २९ ॥ रत्नोंमें पद्मराग (लाल), सुन्दर वस्तुओंमें कमलकी कली, तृणोंमें कुश और हविष्योंमें गायका घी हूँ ॥ ३० ॥ मैं व्यापारियोंमें रहनेवाली लक्ष्मी, छल-कपट करनेवालोंमें द्यूतक्रीडा, तितिक्षुओंकी तितिक्षा (कष्टसहिष्णुता) और सात्त्विक पुरुषोंमें रहनेवाला सत्त्वगुण हूँ ॥ ३१ ॥ मैं बलवानोंमें उत्साह और पराक्रम तथा भगवद्भक्तोंमें भक्तियुक्त निष्काम कर्म हूँ। वैष्णवोंकी पूज्य वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्र, अनिरुद्ध, नारायण, हयग्रीव, वराह, नृसिंह और ब्रह्मा—इन नौ मूर्तियोंमें मैं पहली एवं श्रेष्ठ मूर्ति वासुदेव हूँ ॥ ३२ ॥ मैं गन्धर्वोंमें विश्वावसु और अप्सराओंमें ब्रह्माजीके दरबारकी अप्सरा पूर्वचित्ति हूँ। पर्वतोंमें स्थिरता और पृथ्वीमें शुद्ध अविकारी गन्ध मैं ही हूँ ॥ ३३ ॥ मैं जलमें रस, तेजस्वियोंमें परम तेजस्वी अग्रि; सूर्य, चन्द्र और तारोंमें प्रभा तथा आकाशमें उसका एकमात्र गुण शब्द हूँ ॥ ३४ ॥ उद्धवजी ! मैं ब्राह्मणभक्तोंमें बलि, वीरोंमें अर्जुन और प्राणियोंमें उनकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हूँ ॥ ३५ ॥ मैं ही पैरोंमें चलनेकी शक्ति, वाणीमें बोलनेकी शक्ति, पायुमें मल-त्यागकी शक्ति, हाथोंमें पकडऩेकी शक्ति और जननेन्द्रियमें आनन्दोपभोगकी शक्ति हूँ। त्वचामें स्पर्शकी, नेत्रोंमें दर्शनकी, रसनामें स्वाद लेनेकी, कानोंमें श्रवणकी और नासिकामें सूँघनेकी शक्ति भी मैं ही हूँ। समस्त इन्द्रियोंकी इन्द्रियशक्ति मैं ही हूँ ॥ ३६ ॥ पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, अहङ्कार, महत्तत्त्व, पञ्चमहाभूत, जीव, अव्यक्त, प्रकृति, सत्त्व, रज, तम और उनसे परे रहनेवाला ब्रह्म—ये सब मैं ही हूँ ॥ ३७ ॥ इन तत्त्वोंकी गणना, लक्षणोंद्वारा उनका ज्ञान तथा तत्त्वज्ञानरूप उसका फल भी मैं ही हूँ। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही जीव हूँ, मैं ही गुण हूँ और मैं ही गुणी हूँ। मैं ही सबका आत्मा हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ। मेरे अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है ॥ ३८ ॥ यदि मैं गिनने लगूँ तो किसी समय परमाणुओंकी गणना तो कर सकता हूँ, परन्तु अपनी विभूतियोंकी गणना नहीं कर सकता। क्योंकि जब मेरे रचे हुए कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी भी गणना नहीं हो सकती, तब मेरी विभूतियोंकी गणना तो हो ही कैसे सकती है ॥ ३९ ॥ ऐसा समझो कि जिसमें भी तेज, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य, पराक्रम, तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हों, वह मेरा ही अंश है ॥ ४० ॥

उद्धवजी ! मैंने तुम्हारे प्रश्रके अनुसार संक्षेपसे विभूतियोंका वर्णन किया। ये सब परमार्थवस्तु नहीं हैं, मनोविकारमात्र हैं, क्योंकि मनसे सोची और वाणीसे कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ (वास्तविक) नहीं होती। उसकी एक कल्पना ही होती है ॥ ४१ ॥ इसलिये तुम वाणीको स्वच्छन्द- भाषण से रोको, मनके सङ्कल्प-विकल्प बंद करो। इसके लिये प्राणोंको वशमें करो और इन्द्रियोंका दमन करो। सात्त्विक बुद्धिके द्वारा प्रपञ्चाभिमुख बुद्धिको शान्त करो। फिर तुम्हें संसारके जन्म- मृत्युरूप बीहड़ मार्गमें भटकना नहीं पड़ेगा ॥ ४२ ॥ जो साधक बुद्धिके द्वारा वाणी और मनको पूर्णतया वशमें नहीं कर लेता, उसके व्रत, तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़ेमें भरा हुआ जल ॥ ४३ ॥ इसलिये मेरे प्रेमी भक्तको चाहिये कि मेरे परायण होकर भक्तियुक्त बुद्धिसे वाणी, मन और प्राणोंका संयम करे। ऐसा कर लेनेपर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह कृतकृत्य हो जाता है ॥ ४४ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे षोडशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




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