॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण
श्रीउद्धव
उवाच -
यस्त्वयाभिहितः
पूर्वं धर्मस्त्वद्भक्तिलक्षणः ।
वर्णाश्रमाचारवतां सर्वेषां द्विपदामपि ॥ १ ॥
यथानुष्ठीयमानेन त्वयि भक्तिर्नृणां भवेत् ।
स्वधर्मेणारविन्दाक्ष तत् समाख्यातुमर्हसि ॥ २ ॥
पुरा किल महाबाहो धर्मं परमकं प्रभो ।
यत्तेन हंसरूपेण ब्राह्मणेऽभ्यात्थ माधव ॥ ३ ॥
स इदानीं सुमहता कालेनामित्रकर्शन ।
न प्रायो भविता मर्त्य लोके प्राक् अनुशासितः ॥
४ ॥
वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि ।
सभायामपि वैरिञ्च्यां यत्र मूर्तिधराः कलाः ॥ ५
॥
कर्त्रावित्रा प्रवक्त्रा च भवता मधुसूदन ।
त्यक्ते महीतले देव विनष्टं कः प्रवक्ष्यति ॥ ६
॥
तत्त्वं नः सर्वधर्मज्ञ धर्मः त्वद्भक्तिलक्षणः
।
यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय मे प्रभो ॥ ७ ॥
श्रीशुक उवाच -
इत्थं
स्वभृत्यमुख्येन पृष्टः स भगवान् हरिः ।
प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मान् आह सनातनान्
॥ ८ ॥
श्रीभगवानुवाच -
धर्म्य एष तव
प्रश्नो नैःश्रेयसकरो नृणाम् ।
वर्णाश्रमाचारवतां तमुद्धव निबोध मे ॥ ९ ॥
आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः ।
कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः
॥ १० ॥
वेदः प्रणव एवाग्रे धर्मोऽहं वृषरूपधृक् ।
उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्तकिल्बिषाः ॥ ११
॥
त्रेतामुखे महाभाग प्राणान् मे हृदयात् त्रयी ।
विद्या प्रादुरभूत् तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः ॥
१२ ॥
विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरुपादजाः ।
वैराजात् पुरुषात् जाता य आत्माचारलक्षणाः ॥ १३
॥
गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम ।
वक्षःस्थलाद् वने वासो न्यासः शिर्षणि संस्थितः
॥ १४ ॥
वर्णानां आश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणीः ।
आसन् प्रकृतयो नॄणां नीचैः नीचोत्तमोत्तमाः ॥ १५
॥
शमो दमस्तपः शौचं संतोषः क्षांतिरार्जवम् ।
मद्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः
॥ १६ ॥
तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः ।
स्थैर्यं ब्रह्मण्यतैश्वर्यं क्षत्र
प्रकृतयस्त्विमाः ॥ १७ ॥
आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदंभो ब्रह्मसेवनम् ।
अतुष्टिः अर्थोपचयैः वैश्य प्रकृतयस्त्विमाः ॥
१८ ॥
शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चापि अमायया ।
तत्र लब्धेन संतोषः शूद्र प्रकृतयस्त्विमाः ॥ १९
॥
अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रहः ।
कामः क्रोधश्च तर्षश्च स्वभावोन्त्यावसायिनाम् ॥
२० ॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं अकामक्रोधलोभता ।
भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः ॥ २१ ॥
उद्धवजीने कहा—कमलनयन श्रीकृष्ण !
आपने पहले वर्णाश्रम-धर्मका पालन करनेवालोंके लिये और सामान्यत: मनुष्यमात्रके
लिये उस धर्मका उपदेश किया था, जिससे आपकी भक्ति प्राप्त होती है। अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि
मनुष्य किस प्रकारसे अपने धर्मका अनुष्ठान करे,
जिससे आपके चरणोंमें उसे भक्ति प्राप्त हो जाय ॥ १-२ ॥ प्रभो !
महाबाहु माधव ! पहले आपने हंसरूपसे अवतार ग्रहण करके ब्रह्माजीको अपने परमधर्मका
उपदेश किया था ॥ ३ ॥ रिपुदमन ! बहुत समय बीत जानेके कारण वह इस समय मत्र्यलोकमें
प्राय: नहीं-सा रह गया है, क्योंकि आपको उसका उपदेश किये बहुत दिन हो गये हैं ॥ ४ ॥ अच्युत !
पृथ्वीमें तथा ब्रह्माकी उस सभामें भी, जहाँ सम्पूर्ण वेद मूर्तिमान् होकर विराजमान रहते हैं, आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है,
जो आपके इस धर्मका प्रवचन,
प्रवत्र्तन अथवा संरक्षण कर सके ॥ ५ ॥ इस धर्मके प्रवर्तक, रक्षक और उपदेशक आप ही हैं। आपने पहले जैसे मधु दैत्यको मारकर
वेदोंकी रक्षा की थी, वैसे
ही अपने धर्मकी भी रक्षा कीजिये। स्वयंप्रकाश परमात्मन् ! जब आप पृथ्वीतलसे अपनी
लीला संवरण कर लेंगे, तब
तो इस धर्मका लोप ही हो जायगा तो फिर उसे कौन बतावेगा ?
॥ ६ ॥ आप समस्त धर्मोंके मर्मज्ञ हैं;
इसलिये प्रभो ! आप उस धर्मका वर्णन कीजिये,
जो आपकी भक्ति प्राप्त करानेवाला है। और यह भी बतलाइये कि किसके
लिये उसका कैसा विधान है ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् !
जब इस प्रकार भक्तशिरोमणि उद्धवजीने प्रश्र किया,
तब भगवान् श्रीकृष्णने अत्यन्त प्रसन्न होकर प्राणियोंके कल्याणके
लिये उन्हें सनातन धर्मोंका उपदेश दिया ॥ ८ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय
उद्धव ! तुम्हारा प्रश्र धर्ममय है, क्योंकि इससे वर्णाश्रमधर्मी मनुष्योंको परमकल्याणस्वरूप मोक्षकी
प्राप्ति होती है। अत: मैं तुम्हें उन धर्मोंका उपदेश करता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ ९ ॥ जिस समय इस कल्पका प्रारम्भ हुआ था और पहला
सत्ययुग चल रहा था, उस
समय सभी मनुष्योंका ‘हंस’ नामक एक ही वर्ण था। उस युगमें सब लोग जन्मसे ही
कृतकृत्य होते थे; इसीलिये
उसका एक नाम कृतयुग भी है ॥ १० ॥ उस समय केवल प्रणव ही वेद था और तपस्या, शौच, दया
एवं सत्यरूप चार चरणोंसे युक्त मैं ही वृषभरूपधारी धर्म था। उस समयके निष्पाप एवं
परमतपस्वी भक्तजन मुझ हंसस्वरूप शुद्ध परमात्माकी उपासना करते थे ॥ ११ ॥
परम भाग्यवान् उद्धव ! सत्ययुगके
बाद त्रेतायुगका आरम्भ होनेपर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वास के द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयीविद्या प्रकट हुई और उस त्रयीविद्यासे
होता, अध्वर्यु और उद्गाताके कर्मरूप तीन भेदोंवाले यज्ञके रूपसे मैं
प्रकट हुआ ॥ १२ ॥ विराट् पुरुषके मुखसे ब्राह्मण,
भुजासे क्षत्रिय, जंघासे वैश्य और चरणोंसे शूद्रोंकी उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके
स्वभावानुसार और आचरणसे होती है ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! विराट् पुरुष भी मैं ही हूँ; इसलिये मेरे ही ऊरुस्थलसे गृहस्थाश्रम,
हृदय से ब्रह्म- चर्याश्रम,
वक्ष:स्थलसे वानप्रस्थाश्रम और मस्तकसे संन्यासाश्रमकी उत्पत्ति
हुई है ॥ १४ ॥
इन वर्ण और आश्रमोंके पुरुषोंके
स्वभाव भी इनके जन्मस्थानोंके अनुसार उत्तम,
मध्यम और अधम हो गये। अर्थात् उत्तम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवाले
वर्ण और आश्रमोंके स्वभाव उत्तम और अधम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवालोंके अधम हुए ॥
१५ ॥ शम, दम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, दया और सत्य—ये ब्राह्मण वर्णके स्वभाव हैं ॥ १६ ॥ तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राह्मण-भक्ति और ऐश्वर्य—ये क्षत्रिय वर्णके स्वभाव हैं ॥ १७ ॥
आस्तिकता, दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राह्मणोंकी सेवा करना और धनसञ्चयसे सन्तुष्ट न होना—ये वैश्य
वर्णके स्वभाव हैं ॥ १८ ॥ ब्राह्मण, गौ और देवताओंकी निष्कपटभावसे सेवा करना और उसीसे जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहना—ये शूद्र वर्णके स्वभाव हैं ॥ १९ ॥ अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोककी परवा न करना,
झूठमूठ झगडऩा और काम, क्रोध एवं तृष्णाके वशमें रहना—ये अन्त्यजोंके स्वभाव हैं ॥ २० ॥
उद्धवजी ! चारों वर्णों और चारों आश्रमोंके लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीरसे किसीकी हिंसा न करें;
सत्यपर दृढ़ रहें; चोरी न करें; काम, क्रोध
तथा लोभसे बचें और जिन कामोंके करनेसे समस्त प्राणियोंकी प्रसन्नता और उनका भला हो
वही करें ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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