शनिवार, 27 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण

 

 द्वितीयं प्राप्यानुपूर्व्यात् जन्मोपानयनं द्विजः ।

 वसन् गुरुकुले दान्तो ब्रह्माधीयीत चाहूतः ॥ २२ ॥

 मेखला अजिन दण्डाक्ष ब्रह्मसूत्रकमण्डलून् ।

 जटिलो अधौतदद्वासः अरक्तपीठः कुशान् दधत् ॥ २३ ॥

 स्नानभोजनहोमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः ।

 न च्छिंद्यान् नखरोमाणि कक्ष-उपस्थगतान्यपि ॥ २४ ॥

 रेतो न अवकिरेत् जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयम् ।

 अवकीर्णे अवगाह्य अप्सु यतासुः त्रिपदीं जपेत् ॥ २५ ॥

 अग्न्यर्काचार्य-गो-विप्र गुरु-वृद्ध-सुरान् शुचिः ।

 समाहित उपासीत संध्ये च यतवाग्-जपन् ॥ २६ ॥

 आचार्यं मां विजानीयात् न-अवमन्येत कर्हिचित् ।

 न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥ २७ ॥

 सायं प्रातः उपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत् ।

 यच्चान्यद् अपि अनुज्ञातं उपयुञ्जीत संयतः ॥ २८ ॥

 शुश्रूषमाण आचार्यं सदा-उपासीत नीचवत् ।

 यान शय्यासनस्थानैः नातिदूरे कृताञ्जलिः ॥ २९ ॥

 एवंवृत्तो गुरुकुले वसेद् ‍भोगविवर्जितः ।

 विद्या समाप्यते यावद् बिभ्रद् व्रतं अखण्डितम् ॥ ३० ॥

 

ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारोंके क्रमसे यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरुकुल में रहे और अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखे। आचार्यके बुलानेपर वेदका अध्ययन करे और उसके अर्थका भी विचार करे ॥ २२ ॥ मेखला, मृगचर्म, वर्णके अनुसार दण्ड, रुद्राक्षकी माला, यज्ञोपवीत और कमण्डलु धारण करे। सिरपर जटा रखे, शौकीनी के लिये दाँत और वस्त्र न धोवे, रंगीन आसनपर न बैठे और कुश धारण करे ॥ २३ ॥ स्नान, भोजन, हवन, जप और मल-मूत्र त्यागके समय मौन रहे। और कक्ष तथा गुप्तेन्द्रियके बाल और नाखूनोंको कभी न काटे ॥ २४ ॥ पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करे। स्वयं तो कभी वीर्यपात करे ही नहीं। यदि स्वप्न आदिमें वीर्य स्खलित हो जाय, तो जलमें स्नान करके प्राणायाम करे एवं गायत्रीका जप करे ॥ २५ ॥ ब्रह्मचारीको पवित्रताके साथ एकाग्रचित्त होकर अग्रि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन और देवताओंकी उपासना करनी चाहिये तथा सायङ्काल और प्रात:काल मौन होकर सन्ध्योपासन एवं गायत्रीका जप करना चाहिये ॥ २६ ॥ आचार्यको मेरा ही स्वरूप समझे, कभी उनका तिरस्कार न करे। उन्हें साधारण मनुष्य समझकर दोषदृष्टि न करे; क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता है ॥ २७ ॥ सायङ्काल और प्रात:काल दोनों समय जो कुछ भिक्षामें मिले वह लाकर गुरुदेवके आगे रख दे। केवल भोजन ही नहीं, जो कुछ हो सब। तदनन्तर उनके आज्ञानुसार बड़े संयमसे भिक्षा आदिका यथोचित उपयोग करे ॥ २८ ॥ आचार्य यदि जाते हों तो उनके पीछे-पीछे चले, उनके सो जानेके बाद बड़ी सावधानीसे उनसे थोड़ी दूरपर सोवे। थके हों, तो पास बैठकर चरण दबावे और बैठे हों तो उनके आदेशकी प्रतीक्षामें हाथ जोडक़र पासमें ही खड़ा रहे। इस प्रकार अत्यन्त छोटे व्यक्तिकी भाँति सेवा-शुश्रूषाके द्वारा सदा-सर्वदा आचार्यकी आज्ञामें तत्पर रहे ॥ २९ ॥ जबतक विद्याध्ययन समाप्त न हो जाय, तबतक सब प्रकारके भोगोंसे दूर रहकर इसी प्रकार गुरुकुल में निवास करे और कभी अपना ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित न होने दे ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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