॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण
यदि असौ
छंदसां लोकं आरोक्ष्यन् ब्रह्मविष्टपम् ।
गुरवे विन्यसेद् देहं स्वाध्यायार्थं बृहद्व्रतः
॥ ३१ ॥
अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम् ।
अपृथग्धीः उपसीत ब्रह्मवर्चस्वी अकल्मषः ॥ ३२ ॥
स्त्रीणां निरीक्षण स्पर्श संलाप क्ष्वेलनादिकम्
।
प्राणिनो मिथुनीभूतान् अगृहस्थो अग्रतस्त्यजेत्
॥ ३३ ॥
शौचं आचमनं स्नानं संध्योपासनमार्जवम् ।
तीर्थसेवा जपोऽस्पृश्या अभक्ष्य संभाष्यवर्जनम्
॥ ३४ ॥
सर्वाश्रमप्रयुक्तोऽयं नियमः कुलनंदन ।
मद्भवः सर्वभूतेषु मनोवाक्-कायसंयमः ॥ ३५ ॥
एवं बृहद्व्रतधरो ब्राह्मणोऽग्निः इव ज्वलन् ।
मद्भक्तः तीव्रतपसा दग्धकर्माशयोऽमलः ॥ ३६ ॥
अथ अनंतरं आवेक्ष्यन् यथा जिज्ञासितागमः ।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायाद् गुर्वनुमोदितः
॥ ३७ ॥
गृहं वनं वोपविशेत् प्रव्रजे द्वा द्विजोत्तमः ।
आश्रमादाश्रमं गच्छेत् नान्यथा मत्परश्चरेत् ॥ ३८
॥
गृहार्थी सदृशीं भार्यां उद्वहेद् अजुगुप्सिताम्
।
यवीयसीं तु वयसा यां सवर्णां अनुक्रमात् ॥ ३९ ॥
इज्य-अध्ययन-दानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम् ।
प्रतिग्रहो-अध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनम् ॥
४० ॥
यदि ब्रह्मचारीका विचार हो कि मैं
मूर्तिमान् वेदोंके निवासस्थान ब्रह्मलोकमें जाऊँ,
तो उसे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण कर लेना चाहिये। और
वेदोंके स्वाध्यायके लिये अपना सारा जीवन आचार्यकी सेवामें ही समर्पित कर देना
चाहिये ॥ ३१ ॥ ऐसा ब्रह्मचारी सचमुच ब्रह्मतेजसे सम्पन्न हो जाता है और उसके सारे
पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे चाहिये कि अग्रि,
गुरु, अपने
शरीर और समस्त प्राणियोंमें मेरी ही उपासना करे और यह भाव रखे कि मेरे तथा सबके
हृदयमें एक ही परमात्मा विराजमान हैं ॥ ३२ ॥ ब्रह्मचारी,
वानप्रस्थ और संन्यासियोंको चाहिये कि वे स्त्रियोंको देखना, स्पर्श करना, उनसे बातचीत या हँसी-मसखरी आदि करना दूरसे ही त्याग दें; मैथुन करते हुए प्राणियोंपर तो दृष्टिपाततक न करें ॥ ३३ ॥ प्रिय
उद्धव ! शौच, आचमन, स्नान, सन्ध्योपासन, सरलता, तीर्थसेवन, जप, समस्त
प्राणियोंमें मुझे ही देखना, मन, वाणी
और शरीरका संयम—यह ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी—सभीके लिये एक-सा नियम है। अस्पृश्योंको न
छूना, अभक्ष्य वस्तुओंको न खाना और जिनसे बोलना नहीं चाहिये उनसे न
बोलना—ये नियम भी सबके लिये हैं ॥ ३४-३५ ॥ नैष्ठिक ब्रह्मचारी ब्राह्मण इन
नियमोंका पालन करनेसे अग्रिके समान तेजस्वी हो जाता है। तीव्र तपस्याके कारण उसके
कर्म-संस्कार भस्म हो जाते हैं, अन्त:करण शुद्ध हो जाता है और वह मेरा भक्त होकर मुझे प्राप्त कर
लेता है ॥ ३६ ॥
प्यारे उद्धव ! यदि नैष्ठिक
ब्रह्मचर्य ग्रहण करनेकी इच्छा न हो—गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता हो, तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्यको दक्षिणा देकर और
उनकी अनुमति लेकर समावर्तन-संस्कार करावे—स्नातक बनकर ब्रह्मचर्याश्रम छोड़ दे ॥
३७ ॥ ब्रह्मचारीको चाहिये कि ब्रह्मचर्य-आश्रमके बाद गृहस्थ अथवा
वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करे। यदि ब्राह्मण हो तो संन्यास भी ले सकता है। अथवा
उसे चाहिये कि क्रमश: एक आश्रमसे दूसरे आश्रममें प्रवेश करे। किन्तु मेरा
आज्ञाकारी भक्त बिना आश्रमके रहकर अथवा विपरीत क्रम से आश्रम-परिवर्तन कर
स्वेच्छाचारमें न प्रवृत्त हो ॥ ३८ ॥
प्रिय उद्धव ! यदि
ब्रह्मचर्याश्रमके बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रह्मचारीको चाहिये कि
अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणोंसे सम्पन्न कुलीन कन्यासे विवाह करे। वह
अवस्थामें अपनेसे छोटी और अपने ही वर्णकी होनी चाहिये। यदि कामवश अन्य वर्णकी
कन्यासे और विवाह करना हो, तो क्रमश: अपनेसे निम्न वर्णकी कन्यासे विवाह कर सकता है ॥ ३९ ॥ यज्ञ-यागादि, अध्ययन और दान करनेका अधिकार ब्राह्मण,
क्षत्रिय एवं वैश्योंको समानरूपसे है। परन्तु दान लेने, पढ़ाने और यज्ञ करानेका अधिकार केवल ब्राह्मणोंको ही है ॥ ४० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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