रविवार, 28 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण

 

 प्रतिग्रहं मन्यमानः तपस्तेजोयशोनुदम् ।

 अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वा दोषदृक् तयोः ॥ ४१ ॥

 ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते ।

 कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च ॥ ४२ ॥

 शिलोञ्छवृत्त्या परितुष्टचित्तो

     धर्मं महांतं विरजं जुषाणः ।

 मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठन्

     नातिप्रसक्तः समुपैति शांतिम् ॥ ४३ ॥

 समुद्धरंति ये विप्रं सीदंतं मत्परायणम् ।

 तान् उद्धरिष्ये न चिराद् आपद्‍भ्यो नौः इवार्णवात् ॥ ४४ ॥

 सर्वाः समुद्धरेद् राजा पितेव व्यसनात् प्रजाः ।

 आत्मानं आत्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान् ॥ ४५ ॥

 एवंविधो नरपतिः विमानेनार्कवर्चसा ।

 विधूय इह अशुभं कृत्स्नं इंद्रेण सह मोदते ॥ ४६ ॥

 सीदन् विप्रः वणिक् वृत्त्या पण्यैः एवापदं तरेत् ।

 खड्गेन वा आपदाक्रांतो न श्ववृत्त्या कथञ्चन ॥ ४७ ॥

 वैश्यवृत्त्या तु राजन्यो जीवेत् मृगययापदि ।

 चरेद् वा विप्ररूपेण न श्ववृत्त्या कथञ्चन ॥ ४८ ॥

 शूद्रवृत्तिं भजेद् वैश्यः शूद्रः कारुकटक्रियाम् ।

 कृच्छ्रान् मुक्तो न गर्ह्येण वृत्तिं लिप्सेत कर्मणा ॥ ४९ ॥

 वेदाध्याय स्वधा स्वाहा बलि अन्नाद्यैः यथोदयम् ।

 देवर्षिपितृभूतानि मद् रूपाणि अन्वहं यजेत् ॥ ५० ॥

 यदृच्छया उपपन्नेन शुक्लेन उपार्जितेन वा ।

 धनेन अपीडयन् भृत्यान् न्यायेन एव आहरेत् क्रतून् ॥ ५१ ॥

 कुटुंबेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत् कुटुंबी अपि ।

 विपश्चित् नश्वरं पश्येद् अदृष्टमपि दृष्टवत् ॥ ५२ ॥

 पुत्रदारा आप्तबंधूनां संगमः पांथसङ्गमः ।

 अनुदेहं वियन्त्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा ॥ ५३ ॥

 इत्थं परिमृशन् मुक्तो गृहेषु अतिथिवद् वसन् ।

 न गृहैः अनुबध्येत निर्ममो निरहङ्कृतः ॥ ५४ ॥

 कर्मभिः गृहमेधीयैः इष्ट्वा मामेव भक्तिमान् ।

 तिष्ठेद् वनं वोपविशेत् प्रजावान् वा परिव्रजेत् ॥ ५५ ॥

 यस्तु आसक्तमतिः गेहे पुत्रवित्तैषणा आतुरः ।

 स्त्रैणः कृपणधीः मूढो मम अहं इति बध्यते ॥ ५६ ॥

 अहो मे पितरौ वृद्धौ भार्या बालात्मजऽऽत्मजाः ।

 अनाथा मामृते दीनाः कथं जीवन्ति दुःखिताः ॥ ५७ ॥

 एवं गृहाशयाक्षिप्त हृदयो मूढधीः अयम् ।

 अतृप्तस्तान् अनुध्यायन् मृतोऽन्धं विशते तमः ॥ ५८ ॥

 

ब्राह्मणको चाहिये कि इन तीनों वृत्तियोंमें प्रतिग्रह अर्थात् दान लेनेकी वृत्तिको तपस्या, तेज और यशका नाश करनेवाली समझकर पढ़ाने और यज्ञ करानेके द्वारा ही अपना जीवननिर्वाह करे और यदि इन दोनों वृत्तियोंमें भी दोषदृष्टि हो—परावलम्बन, दीनता आदि दोष दीखते हों—तो अन्न कटनेके बाद खेतोंमें पड़े हुए दाने बीनकर ही अपने जीवनका निर्वाह कर ले ॥ ४१ ॥ उद्धव ! ब्राह्मणका शरीर अत्यन्त दुर्लभ है। यह इसलिये नहीं है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय-भोग ही भोगे जायँ। यह तो जीवन-पर्यन्त कष्ट भोगने, तपस्या करने और अन्तमें अनन्त आनन्दस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति करनेके लिये है ॥ ४२ ॥ जो ब्राह्मण घरमें रहकर अपने महान् धर्मका निष्कामभावसे पालन करता है और खेतोंमें तथा बाजारोंमें गिरे-पड़े दाने चुनकर सन्तोषपूर्वक अपने जीवनका निर्वाह करता है, साथ ही अपना शरीर, प्राण, अन्त:करण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यन्त आसक्ति नहीं करता, वह बिना संन्यास लिये ही परम-शान्तिस्वरूप परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ४३ ॥ जो लोग विपत्तिमें पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राह्मणको विपत्तियोंसे बचा लेते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियोंसे उसी प्रकार बचा लेता हूँ, जैसे समुद्रमें डूबते हुए प्राणीको नौका बचा लेती है ॥ ४४ ॥ राजा पिताके समान सारी प्रजाका कष्टसे उद्धार करे—उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजोंकी रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने-आपसे अपना उद्धार करे ॥ ४५ ॥ जो राजा इस प्रकार प्रजाकी रक्षा करता है, वह सारे पापोंसे मुक्त होकर अन्त समयमें सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर चढक़र स्वर्गलोकमें जाता है और इन्द्रके साथ सुख भोगता है ॥ ४६ ॥ यदि ब्राह्मण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादिसे अपनी जीविका न चला सके, तो वैश्यवृत्तिका आश्रय ले ले, और जबतक विपत्ति दूर न हो जाय तबतक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्तिका सामना करना पड़े तो तलवार उठाकर क्षत्रियोंकी वृत्तिसे भी अपना काम चला ले, परन्तु किसी भी अवस्थामें नीचोंकी सेवा—जिसे ‘श्वानवृत्ति’ कहते हैं—न करे ॥ ४७ ॥ इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदिके द्वारा अपने जीवनका निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापार आदि कर ले। बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकारके द्वारा अथवा विद्यार्थियोंको पढ़ाकर अपनी आपत्तिके दिन काट दे, परन्तु नीचोंकी सेवा, ‘श्वानवृत्ति’का आश्रय कभी न ले ॥ ४८ ॥ वैश्य भी आपत्तिके समय शूद्रोंकी वृत्ति सेवासे अपना जीवन-निर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बुनने आदि कारुवृत्तिका आश्रय ले ले; परन्तु उद्धव ! ये सारी बातें आपत्तिकालके लिये ही हैं। आपत्तिका समय बीत जानेपर निम्रवर्णोंकी वृत्तिसे जीविकोपार्जन करनेका लोभ न करे ॥ ४९ ॥ गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वेदाध्ययनरूप ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरूप पितृयज्ञ, हवनरूप देवयज्ञ, काकबलि आदि भूतयज्ञ और अन्नदानरूप अतिथियज्ञ आदिके द्वारा मेरे स्वरूपभूत ऋषि, देवता, पितर, मनुष्य एवं अन्य समस्त प्राणियोंकी यथाशक्ति प्रतिदिन पूजा करता रहे ॥ ५० ॥

गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीतिसे उपाॢजत अपने शुद्ध धनसे अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजनको किसी प्रकारका कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधिके साथ ही यज्ञ करे ॥ ५१ ॥

प्रिय उद्धव ! गृहस्थ पुरुष कुटुम्बमें आसक्त न हो। बड़ा कुटुम्ब होनेपर भी भजनमें प्रमाद न करे। बुद्धिमान् पुरुषको यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि जैसे इस लोककी सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, वैसे ही स्वर्गादि परलोकके भोग भी नाशवान् ही हैं ॥ ५२ ॥ यह जो स्त्री-पुत्र, भाई- बन्धु और गुरुजनोंका मिलना-जुलना है, यह वैसा ही है, जैसे किसी प्याऊपर कुछ बटोही इकट्ठेहो गये हों। सबको अलग-अलग रास्ते जाना है। जैसे स्वप्न नींद टूटनेतक ही रहता है, वैसे ही इन मिलने-जुलनेवालोंका सम्बन्ध ही बस, शरीरके रहनेतक ही रहता है; फिर तो कौन किसको पूछता है ॥ ५३ ॥ गृहस्थको चाहिये कि इस प्रकार विचार करके घर-गृहस्थीमें फँसे नहीं, उसमें इस प्रकार अनासक्तभावसे रहे मानो कोई अतिथि निवास कर रहा हो। जो शरीर आदिमें अहङ्कार और घर आदिमें ममता नहीं करता, उसे घर-गृहस्थीके फंदे बाँध नहीं सकते ॥ ५४ ॥ भक्तिमान् पुरुष गृहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मोंके द्वारा मेरी आराधना करता हुआ घरमें ही रहे, अथवा यदि पुत्रवान् हो तो वानप्रस्थ आश्रममें चला जाय या संन्यासाश्रम स्वीकार कर ले ॥ ५५ ॥ प्रिय उद्धव ! जो लोग इस प्रकारका गृहस्थजीवन न बिताकर घर-गृहस्थीमें ही आसक्त हो जाते हैं, स्त्री, पुत्र और धनकी कामनाओंमें फँसकर हाय-हाय करते रहते और मूढ़तावश स्त्रीलम्पट और कृपण होकर मैं-मेरेके फेरमें पड़ जाते हैं, वे बँध जाते हैं ॥ ५६ ॥ वे सोचते रहते हैं—हाय ! हाय! मेरे माँ-बाप बूढ़े हो गये; पत्नीके बाल-बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं, मेरे न रहनेपर ये दीन, अनाथ और दुखी हो जायँगे; फिर इनका जीवन कैसे रहेगा?’ ॥ ५७ ॥ इस प्रकार घर-गृहस्थीकी वासनासे जिसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है, वह मूढ़बुद्धि पुरुष विषयभोगोंसे कभी तृप्त नहीं होता, उन्हींमें उलझकर अपना जीवन खो बैठता है और मरकर घोर तमोमय नरकमें जाता है ॥ ५८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...