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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म
श्रीभगवानुवाच
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वनं
विविक्षुः पुत्रेषु भार्यां न्यस्य सहैव वा ।
वन एव वसेत् शांतः तृतीयं भागमायुषः ॥ १ ॥
कन्दमूल फलैः वन्यैः मेध्यैः वृत्तिं
प्रकल्पयेत् ।
वसीत वल्कलं वासः तृण-पर्ण अजिनानि च ॥ २ ॥
केश रोम नख-श्मश्रु मलानि बिभृयाद् दतः ।
न धावेद् अप्सु मज्जेत त्रि कालं स्थण्डिलेशयः ॥
३ ॥
ग्रीष्मे तप्येत पञ्चाग्नीन् वर्षासु आसारषाड्
जले ।
आकण्थमग्नः शिशिरे एवंवृत्तः तपश्चरेत् ॥ ४ ॥
अग्निपक्वं समश्नीयात् कालपक्वं अथापि वा ।
उलूखल-अश्मकुट्टो वा दंतोलूखल एव वा ॥ ५ ॥
स्वयं सञ्चिनुयात् सर्वं आत्मनो वृत्तिकारणम् ।
देश काल बलाभिज्ञो नाददीतान् यदाऽऽहृतम् ॥ ६ ॥
वन्यैः ह्चरु-पुरोडाशैः निर्वपेत् कालचोदितान् ।
न तु श्रौतेन पशुना मां यजेत वनाश्रमी ॥ ७ ॥
अग्निहोत्रं च दर्शश्च पौर्णमासश्च पूर्ववत् ।
चातुर्मास्यानि च मुनेः आम्नातानि च नैगमैः ॥ ८
॥
एवं चीर्णेन तपसा मुनिः र्धमनिसंततः ।
मां तपोमयमाराध्य ऋषिलोकाद् उपैति माम् ॥ ९ ॥
यस्तु एतत्कृच्छ्रतः चीर्णं तपो निःश्रेयसं महत्
।
कामायाल्पीयसे युञ्ज्याद् बालिशः कोऽपरस्ततः ॥
१० ॥
यदा असौ नियमेऽकल्पो जरया जातवेपथुः ।
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य मच्चित्तोऽग्निं
समाविशेत् ॥ ११ ॥
यदा कर्मविपाकेषु लोकेषु निरयात्मसु ।
विरागो जायते सम्यङ् न्यस्ताग्निः प्रव्रजेत्ततः
॥ १२ ॥
इष्ट्वा यथोपदेशं मां दत्त्वा सर्वस्वमृत्विजे ।
अग्नीन् स्वप्राण आवेश्य निरपेक्षः परिव्रजेत् ॥
१३ ॥
विप्रस्य वै संन्यसतो देवा दारादिरूपिणः ।
विघ्नान् कुर्वन्त्ययं ह्यस्मान् आक्रम्य
समियात् परम् ॥ १४ ॥
बिभृयाच्चेन् मुनिर्वासः कौपीन् आच्छादनं परम् ।
त्यक्तं न दण्डपात्राभ्यां अन्यत् किञ्चिद्
अनापदि ॥ १५ ॥
दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेत् जलम्
।
सत्यपूतां वदेद् वाचं मनःपूतं समाचरेत् ॥ १६ ॥
मौन-अनीहा-अनिलायामाः दण्डा वाक्-देह-चेतसाम् ।
न ह्येते यस्य सन्त्यङ्ग वेणुभिः न भवेद् यतिः ॥
१७ ॥
भिक्षां चतुर्षु वर्णेषु विगर्ह्यान् वर्जयन्
चरेत् ।
सप्तागारान् असङ्क्लृप्तान् तुष्येत् लब्धेन
तावता ॥ १८ ॥
बहिर्जलाशयं गत्वा तत्रोपस्पृश्य वाग्यतः ।
विभज्य पावितं शेषं भुञ्जीत-अशेषमाहृतम् ॥ १९ ॥
एकश्चरेत् महीमेतां निःसङ्गः संयतेंद्रियः ।
आत्मक्रीड आत्मरत आत्मवान् समदर्शनः ॥ २० ॥
विविक्त-क्षेमशरणो मद्भावविमलाशयः ।
आत्मानं चिन्तयेदेकं अभेदेन मया मुनिः ॥ २१ ॥
अन्वीक्षेतात्मनो बंधं मोक्षं च ज्ञाननिष्ठया ।
बंध इंद्रियविक्षेपो मोक्ष एषां च संयमः ॥ २२ ॥
तस्मान् नियम्य षड्वर्गं मद्भावेन चरेन् मुनिः
।
विरक्तः क्षुद्रकामेभ्यो लब्ध्वा आत्मनि सुखं
महत् ॥ २३ ॥
पुरग्रामव्रजान् सार्थान् भिक्षार्थं
प्रविशंश्चरेत् ।
पुण्यदेश सरित्-शैल वन-आश्रमवतीं महीम् ॥ २४ ॥
वानप्रस्थाश्रमपदेषु अभीक्ष्णं भैक्ष्यमाचरेत् ।
संसिध्यति आशु-असंमोहः शुद्धसत्त्वः शिलान्धसा ॥
२५ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय
उद्धव ! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रममें जाना चाहे,
तो अपनी पत्नीको पुत्रोंके हाथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और
फिर शान्त चित्तसे अपनी आयुका तीसरा भाग वनमें ही रहकर व्यतीत करे ॥ १ ॥ उसे वनके
पवित्र कन्द-मूल और फलोंसे ही शरीर-निर्वाह करना चाहिये;
वस्त्रकी जगह वृक्षोंकी छाल पहिने अथवा घास-पात और मृगछालासे ही
काम निकाल ले ॥ २ ॥ केश, रोएँ, नख
और मूँछ-दाढ़ीरूप शरीरके मलको हटावे नहीं। दातुन न करे। जलमें घुसकर त्रिकाल स्नान
करे और धरतीपर ही पड़ रहे ॥ ३ ॥ ग्रीष्म ऋतुमें पञ्चाग्रि तपे, वर्षा ऋतुमें खुले मैदानमें रहकर वर्षाकी बौछार सहे। जाड़ेके
दिनोंमें गलेतक जलमें डूबा रहे। इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे ॥ ४ ॥
कन्द-मूलोंको केवल आगमें भूनकर खा ले अथवा समयानुसार पके हुए फल आदिके द्वारा ही
काम चला ले। उन्हें कूटनेकी आवश्यकता हो तो ओखलीमें या सिलपर कूट ले, अन्यथा दाँतोंसे ही चबा-चबाकर खा ले ॥ ५ ॥ वानप्रस्थाश्रमीको
चाहिये कि कौन-सा पदार्थ कहाँसे लाना चाहिये,
किस समय लाना चाहिये, कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं—इन बातोंको जानकर अपने
जीवन-निर्वाहके लिये स्वयं ही सब प्रकारके कन्द-मूल-फल आदि ले आवे। देश-काल आदिसे
अनभिज्ञ लोगोंसे लाये हुए अथवा दूसरे समयके सञ्चित पदार्थोंको अपने काममें न ले [*] ॥ ६ ॥ नीवार आदि जंगली अन्नसे ही चरु-पुरोडाश आदि तैयार करे और
उन्हींसे समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे। वानप्रस्थ हो जानेपर वेदविहित
पशुओंद्वारा मेरा यजन न करे ॥ ७ ॥ वेदवेत्ताओंने वानप्रस्थीके लिये अग्रिहोत्र, दर्श, पौर्णमास
और चातुर्मास्य आदिका वैसा ही विधान किया है,
जैसा गृहस्थोंके लिये है ॥ ८ ॥ इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते
मांस सूख जानेके कारण वानप्रस्थीकी एक-एक नस दीखने लगती है। वह इस तपस्याके द्वारा
मेरी आराधना करके पहले तो ऋषियोंके लोकमें जाता है और वहाँसे फिर मेरे पास आ जाता
है; क्योंकि तप मेरा ही स्वरूप है ॥ ९ ॥ प्रिय उद्धव ! जो पुरुष बड़े
कष्टसे किये हुए और मोक्ष देनेवाले इस महान् तपस्याको स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि छोटे-मोटे फलोंकी प्राप्तिके लिये करता है, उससे बढक़र मूर्ख और कौन होगा ?
इसलिये तपस्याका अनुष्ठान निष्कामभावसे ही करना चाहिये ॥ १० ॥
प्यारे उद्धव ! वानप्रस्थी जब अपने
आश्रमोचित नियमोंका पालन करनेमें असमर्थ हो जाय,
बुढ़ापेके कारण उसका शरीर काँपने लगे,
तब यज्ञाग्रियोंको भावनाके द्वारा अपने अन्त:करणमें आरोपित कर ले
और अपना मन मुझमें लगाकर अग्रिमें प्रवेश कर जाय। (यह विधान केवल उनके लिये है, जो विरक्त नहीं हैं) ॥ ११ ॥ यदि उसकी समझमें यह बात आ जाय कि काम्य
कर्मोंसे उनके फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं,
वे नरकोंके समान ही दु:खपूर्ण हैं और मनमें लोक-परलोकसे पूरा
वैराग्य हो जाय तो विधिपूर्वक यज्ञाग्रियोंका परित्याग करके संन्यास ले ले ॥ १२ ॥
जो वानप्रस्थी संन्यासी होना चाहे, वह पहले वेदविधिके अनुसार आठों प्रकारके श्राद्ध और प्राजापत्य
यज्ञसे मेरा यजन करे। इसके बाद अपना सर्वस्व ऋत्विज् को दे दे। यज्ञाग्नियों को अपने प्राणोंमें लीन कर
ले और फिर किसी भी स्थान, वस्तु और व्यक्तियोंकी अपेक्षा न रखकर स्वच्छन्द विचरण करे ॥ १३ ॥
उद्धवजी ! जब ब्राह्मण संन्यास लेने लगता है,
तब देवतालोग स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धियोंका रूप धारण करके उसके
संन्यास-ग्रहणमें विघ्न डालते हैं। वे सोचते हैं कि ‘अरे ! यह तो हमलोगोंकी
अवहेलनाकर, हमलोगोंको लाँघकर परमात्माको प्राप्त होने जा रहा है’ ॥ १४ ॥
यदि संन्यासी वस्त्र धारण करे तो
केवल लँगोटी लगा ले और अधिक-से-अधिक उसके ऊपर एक ऐसा छोटा-सा टुकड़ा लपेट ले कि
जिसमें लँगोटी ढक जाय। तथा आश्रमोचित दण्ड और कमण्डलु के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु अपने पास न रखे।
यह नियम आपत्तिकालको छोडक़र सदाके लिये है ॥ १५ ॥ नेत्रोंसे धरती देखकर पैर रखे, कपड़ेसे छानकर जल पिये मुँहसे प्रत्येक बात सत्यपूत—सत्यसे पवित्र
हुई ही निकाले और शरीरसे जितने भी काम करे,
बुद्धिपूर्वक— सोच-विचार कर ही करे ॥ १६ ॥ वाणीके लिये मौन, शरीरके लिये निश्चेष्ट स्थिति और मनके लिये प्राणायाम दण्ड हैं।
जिसके पास ये तीनों दण्ड नहीं हैं, वह केवल शरीरपर बाँसके दण्ड धारण करनेसे दण्डी स्वामी नहीं हो जाता
॥ १७ ॥ संन्यासीको चाहिये कि जातिच्युत और गोघाती आदि पतितोंको छोडक़र चारों
वर्णोंकी भिक्षा ले। केवल अनिश्चित सात घरोंसे जितना मिल जाय, उतनेसे ही सन्तोष कर ले ॥ १८ ॥ इस प्रकार भिक्षा लेकर बस्तीके बाहर
जलाशयपर जाय, वहाँ हाथ- पैर धोकर जलके द्वारा भिक्षा पवित्र कर ले, फिर शास्त्रोक्त पद्धतिसे जिन्हें भिक्षाका भाग देना चाहिये, उन्हें देकर जो कुछ बचे उसे मौन होकर खा ले; दूसरे समयके लिये बचाकर न रखे और न अधिक माँगकर ही लाये ॥ १९ ॥
संन्यासीको पृथ्वीपर अकेले ही विचरना चाहिये। उसकी कहीं भी आसक्ति न हो, सब इन्द्रियाँ अपने वशमें हों। वह अपने-आपमें ही मस्त रहे, आत्म-प्रेममें ही तन्मय रहे,
प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी धैर्य रखे और सर्वत्र समानरूपसे
स्थित परमात्माका अनुभव करता रहे ॥ २० ॥ संन्यासीको निर्जन और निर्भय
एकान्त-स्थानमें रहना चाहिये। उसका हृदय निरन्तर मेरी भावनासे विशुद्ध बना रहे। वह
अपने-आपको मुझसे अभिन्न और अद्वितीय, अखण्डके रूपमें चिन्तन करे ॥ २१ ॥ वह अपनी ज्ञाननिष्ठासे चित्तके
बन्धन और मोक्षपर विचार करे तथा निश्चय करे कि इन्द्रियोंका विषयोंके लिये
विक्षिप्त होना—चञ्चल होना बन्धन है और उनको संयममें रखना ही मोक्ष है ॥ २२ ॥
इसलिये संन्यासीको चाहिये कि मन एवं पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको जीत ले, भोगोंकी क्षुद्रता समझकर उनकी ओरसे सर्वथा मुँह मोड़ ले और
अपने-आपमें ही परम आनन्दका अनुभव करे। इस प्रकार वह मेरी भावनासे भरकर पृथ्वीमें
विचरता रहे ॥ २३ ॥ केवल भिक्षाके लिये ही नगर,
गाँव, अहीरोंकी
बस्ती या यात्रियोंकी टोलीमें जाय। पवित्र देश,
नदी, पर्वत, वन और आश्रमोंसे पूर्ण पृथ्वीमें बिना कहीं ममता जोड़े घूमता-
फिरता रहे ॥ २४ ॥ भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियोंके आश्रमसे ही ग्रहण करे। क्योंकि
कटे हुए खेतोंके दानेसे बनी हुई भिक्षा शीघ्र ही चित्तको शुद्ध कर देती है और उससे
बचाखुचा मोह दूर होकर सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ २५ ॥
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[*] अर्थात् मुनि इस बातको जानकर कि अमुक पदार्थ कहाँसे लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये और
कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं, स्वयं ही नवीन-नवीन कन्द-मूल-फल आदिका सञ्चय करे। देश-कालादिसे
अनभिज्ञ अन्य जनोंके लाये हुए अथवा कालान्तरमें सञ्चय किये हुए पदार्थोंके सेवनसे
व्याधि आदिके कारण तपस्यामें विघ्र होनेकी आशंका है।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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