सोमवार, 29 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म

 

 न एतद् वस्तुतया पश्येद् दृश्यमानं विनश्यति ।

 असक्तचित्तो विरमेद् इहामुत्र चिकीर्षितात् ॥ २६ ॥

 यद् एतद् आत्मनि जगन् मनो-वाक्-प्राण-संहतम् ।

 सर्वं मायेति तर्केण स्वस्थः त्यक्त्वा न तत्स्मरेत् ॥ २७ ॥

 ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्‍भक्तो वा अनपेक्षकः ।

 सलिङ्गान् आश्रमान् त्यक्त्वा चरेद् अविधिगोचरः ॥ २८ ॥

 बुधो बालकवत् क्रीडेत् कुशलो जडवच्चरेत् ।

 वदेद् उन्मत्तवद् विद्वान् गोचर्यां नैगमश्चरेत् ॥ २९ ॥

 वेदवादरतो न स्यात् न पाखण्डी न हैतुकः ।

 शुष्कवादविवादे न कञ्चित् पक्षं समाश्रयेत् ॥ ३० ॥

 नोद्विजेत जनाद् धीरो जनं च उद्वेजयेत् न तु ।

 अतिवादान् तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन ।

 देहं उद्दिश्य पशुवत् वैरं कुर्यान् न केनचित् ॥ ३१ ॥

 एक एव परो ह्यात्मा भूतेषु आत्मनि-अवस्थितः ।

 यथा इंदुः उदपात्रेषु भूतान्येकात्मकानि च ॥ ३२ ॥

 अलब्ध्वा न विषीदेत कालेकाले अशनं क्वचित् ।

 लब्ध्वा न हृष्येद्-धृतिमान् उभयं दैवतंत्रितम् ॥ ३३ ॥

 आहारार्थं समीहेत युक्तं तत् प्राणधारणम् ।

 तत्त्वं विमृश्यते तेन तद् विज्ञाय विमुच्यते ॥ ३४ ॥

 यदृच्छया उपपन्नान्नं अद्यात् श्रेष्ठमुतापरम् ।

 तथा वासः तथा शय्यां प्राप्तं प्राप्तं भजेन् मुनिः ॥ ३५ ॥

 शौचं आचमनं स्नानं न तु चोदनया चरेत् ।

 अन्यांश्च नियमान् ज्ञानी यथाहं लीलयेश्वरः ॥ ३६ ॥

 न हि तस्य विकल्पाख्या या च मद् वीक्षया हता ।

 आ देहान्तात् क्वचित् ख्यातिः ततः संपद्यते मया ॥ ३७ ॥

 दुःखोदर्केषु कामेषु जातनिर्वेद आत्मवान् ।

 अजिज्ञासित मद्धर्मो गुरुं मुनिं उपाव्रजेत् ॥ ३८ ॥

 तावत् परिचरेद् भक्तः श्रद्धावान् अनसूयकः ।

 यावद् ब्रह्म विजानीयान् मामेव गुरुं आदृतः ॥ ३९ ॥

 यस्तु असंयत षड्वर्गः प्रचण्डेंद्रिय सारथिः ।

 ज्ञानवैराग्य रहितः त्रिदण्डं उपजीवति ॥ ४० ॥

 सुरान् आत्मानमात्मस्थं निह्नुते मां च धर्महा ।

 अविपक्व कषायोऽस्माद् अमुष्माच्च विहीयते ॥ ४१ ॥

 भिक्षोः धर्मः शमोऽहिंसा तप ईक्षा वनौकसः ।

 गृहिणो भूतरक्षेज्या द्विजस्याचार्यसेवनम् ॥ ४२ ॥

 ब्रह्मचर्यं तपः शौचं संतोषो भूतसौहृदम् ।

 गृहस्थस्य अपि ऋतौ गन्तुः सर्वेषां मदुपासनम् ॥ ४३ ॥

 इति मां यः स्वधर्मेण भजन् नित्यं अनन्यभाक् ।

 सर्वभूतेषु मद्‍भावो मद्‍भक्तिं विंदते दृढाम् ॥ ४४ ॥

 भक्त्योद्धव अनपायिन्या सर्वलोकमहेश्वरम् ।

 सर्व उत्पत्त्यप्ययं ब्रह्म कारणं मा उपयाति सः ॥ ४५ ॥

 इति स्वधर्मनिर्णिक्त सत्त्वो निर्ज्ञातमद्‌गतिः ।

 ज्ञानविज्ञान संपन्नो न चिरात् समुपैति माम् ॥ ४६ ॥

 वर्णाश्रमवतां धर्म एष आचार लक्षणः ।

 स एव मद्‍भक्तियुतो निःश्रेयसकरः परः ॥ ४७ ॥

 एतत् ते अभिहितं साधो भवान् पृच्छति यच्च माम् ।

 यथा स्वधर्मसंयुक्तो भक्तो मां समियात् परम् ॥ ४८ ॥

 

विचारवान् संन्यासी दृश्यमान जगत् को सत्य वस्तु कभी न समझे; क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही नाशवान् है। इस जगत्में कहीं भी अपने चित्तको लगाये नहीं। इस लोक और परलोकमें जो कुछ करने-पानेकी इच्छा हो, उससे विरक्त हो जाय ॥ २६ ॥ संन्यासी विचार करे कि आत्मामें जो मन, वाणी और प्राणोंका सङ्घातरूप यह जगत् है, वह सारा-का-सारा माया ही है। इस विचार के द्वारा इसका बाध करके अपने स्वरूपमें स्थित हो जाय और फिर कभी उसका स्मरण भी न करे ॥ २७ ॥ ज्ञाननिष्ठ, विरक्त, मुमुक्षु और मोक्षकी भी अपेक्षा न रखनेवाला मेरा भक्त आश्रमोंकी मर्यादामें बद्ध नहीं है। वह चाहे तो आश्रमों और उनके चिह्नोंको छोड़-छाडक़र, वेद-शास्त्रके विधि-निषेधोंसे परे होकर स्वच्छन्द विचरे ॥ २८ ॥ वह बुद्धिमान् होकर भी बालकोंके समान खेले। निपुण होकर भी जडवत् रहे, विद्वान् होकर भी पागलकी तरह बातचीत करे और समस्त वेद-विधियोंका जानकार होकर भी पशुवृत्तिसे (अनियत आचारवान्) रहे ॥ २९ ॥ उसे चाहिये कि वेदोंके कर्मकाण्ड- भागकी व्याख्यामें न लगे, पाखण्ड न करे, तर्क-वितर्कसे बचे और जहाँ कोरा वाद-विवाद हो रहा हो, वहाँ कोई पक्ष न ले ॥ ३० ॥ वह इतना धैर्यवान् हो कि उसके मनमें किसी भी प्राणीसे उद्वेग न हो और वह स्वयं भी किसी प्राणीको उद्विग्न न करे। उसकी कोई निन्दा करे, तो प्रसन्नतासे सह ले; किसीका अपमान न करे। प्रिय उद्धव ! संन्यासी इस शरीरके लिये किसीसे भी वैर न करे। ऐसा वैर तो पशु करते हैं ॥ ३१ ॥ जैसे एक ही चन्द्रमा जलसे भरे हुए विभिन्न पात्रोंमें अलग-अलग दिखायी देता है, वैसे ही एक ही परमात्मा समस्त प्राणियोंमें और अपनेमें भी स्थित है। सबकी आत्मा तो एक है ही, पञ्चभूतोंसे बने हुए शरीर भी सबके एक ही हैं, क्योंकि सब पाञ्चभौतिक ही तो हैं। (ऐसी अवस्थामें किसीसे भी वैर-विरोध करना अपना ही वैर-विरोध है) ॥ ३२ ॥

प्रिय उद्धव ! संन्यासीको किसी दिन यदि समयपर भोजन न मिले, तो उसे दुखी नहीं होना चाहिये और यदि बराबर मिलता रहे, तो हर्षित न होना चाहिये। उसे चाहिये कि वह धैर्य रखे। मनमें हर्ष और विषाद दोनों प्रकारके विकार न आने दे; क्योंकि भोजन मिलना और न मिलना दोनों ही प्रारब्धके अधीन हैं ॥ ३३ ॥ भिक्षा अवश्य माँगनी चाहिये, ऐसा करना उचित ही है; क्योंकि भिक्षासे ही प्राणोंकी रक्षा होती है। प्राण रहनेसे ही तत्त्वका विचार होता है और तत्त्वविचारसे तत्त्वज्ञान होकर मुक्ति मिलती है ॥ ३४ ॥ संन्यासीको प्रारब्धके अनुसार अच्छी या बुरी—जैसी भी भिक्षा मिल जाय, उसीसे पेट भर ले। वस्त्र और बिछौने भी जैसे मिल जायँ, उन्हींसे काम चला ले। उनमें अच्छेपन या बुरेपनकी कल्पना न करे ॥ ३५ ॥ जैसे मैं परमेश्वर होनेपर भी अपनी लीलासे ही शौच आदि शास्त्रोक्त नियमोंका पालन करता हूँ, वैसे ही ज्ञाननिष्ठ पुरुष भी शौच, आचमन, स्नान और दूसरे नियमोंका लीलासे ही आचरण करे। वह शास्त्रविधिके अधीन होकर— विधिकिङ्कर होकर न करे ॥ ३६ ॥ क्योंकि ज्ञाननिष्ठ पुरुषको भेदकी प्रतीति ही नहीं होती। जो पहले थी, वह भी मुझ सर्वात्माके साक्षात्कारसे नष्ट हो गयी। यदि कभी-कभी मरणपर्यन्त बाधित भेदकी प्रतीति भी होती है, तब भी देहपात हो जानेपर वह मुझसे एक हो जाता है ॥ ३७ ॥

उद्धवजी ! (यह तो हुई ज्ञानवान् की बात, अब केवल वैराग्यवान् की बात सुनो।) जितेन्द्रिय पुरुष, जब यह निश्चय हो जाय कि संसारके विषयोंके भोगका फल दु:ख-ही-दु:ख है, तब वह विरक्त हो जाय और यदि वह मेरी प्राप्तिके साधनोंको न जानता हो तो भगवच्चिन्तनमें तन्मय रहनेवाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुकी शरण ग्रहण करे ॥ ३८ ॥ वह गुरुकी दृढ़ भक्ति करे, श्रद्धा रखे और उनमें दोष कभी न निकाले। जबतक ब्रह्मका ज्ञान हो, तबतक बड़े आदरसे मुझे ही गुरुके रूपमें समझता हुआ उनकी सेवा करे ॥ ३९ ॥ किन्तु जिसने पाँच इन्द्रियाँ और मन, इन छहोंपर विजय नहीं प्राप्त की है, जिसके इन्द्रियरूपी घोड़े और बुद्धिरूपी सारथी बिगड़े हुए हैं और जिसके हृदयमें न ज्ञान है और न तो वैराग्य, वह यदि त्रिदण्डी संन्यासीका वेष धारणकर पेट पालता है तो वह संन्यासधर्मका सत्तानाश ही कर रहा है और अपने पूज्य देवताओंको, अपने-आपको और अपने हृदयमें स्थित मुझको ठगनेकी चेष्टा करता है। अभी उस वेषमात्रके संन्यासीकी वासनाएँ क्षीण नहीं हुई हैं; इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनोंसे हाथ धो बैठता है ॥ ४०-४१ ॥ संन्यासीका मुख्य धर्म है—शान्ति और अहिंसा। वानप्रस्थीका मुख्य धर्म है—तपस्या और भगवद्भाव। गृहस्थका मुख्य धर्म है—प्राणियोंकी रक्षा और यज्ञ-याग तथा ब्रह्मचारीका मुख्य धर्म है— आचार्यकी सेवा ॥ ४२ ॥ गृहस्थ भी केवल ऋतुकालमें ही अपनी स्त्रीका सहवास करे। उसके लिये भी ब्रह्मचर्य, तपस्या, शौच, सन्तोष और समस्त प्राणियोंके प्रति प्रेमभाव—ये मुख्य धर्म हैं। मेरी उपासना तो सभीको करनी चाहिये ॥ ४३ ॥ जो पुरुष इस प्रकार अनन्यभावसे अपने वर्णाश्रमधर्मके द्वारा मेरी सेवामें लगा रहता है और समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥ ४४ ॥ उद्धवजी ! मैं सम्पूर्ण लोकोंका एकमात्र स्वामी, सबकी उत्पत्ति और प्रलयका परम कारण ब्रह्म हूँ। नित्य-निरन्तर बढऩेवाली अखण्ड भक्तिके द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ४५ ॥ इस प्रकार वह गृहस्थ अपने धर्मपालनके द्वारा अन्त:करणको शुद्ध करके मेरे ऐश्वर्यको—मेरे स्वरूपको जान लेता है और ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर शीघ्र ही मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ४६ ॥ मैंने तुम्हें यह सदाचाररूप वर्णाश्रमियोंका धर्म बतलाया है। यदि इस धर्मानुष्ठानमें मेरी भक्तिका पुट लग जाय, तब तो इससे अनायास ही परम कल्याणस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति हो जाय ॥ ४७ ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! तुमने मुझसे जो प्रश्र किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया और यह बतला दिया कि अपने धर्मका पालन करनेवाला भक्त मुझ परब्रह्म-स्वरूपको किस प्रकार प्राप्त होता है ॥ ४८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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