॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और
लक्षण
यथा
सङ्कल्पयेद्बुद्ध्या यदा वा मत्परः पुमान्
मयि
सत्ये मनो युञ्जंस्तथा तत्समुपाश्नुते २६
यो
वै मद्भावमापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान्
कुतश्चिन्न
विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम २७
मद्भक्त्या
शुद्धसत्त्वस्य योगिनो धारणाविदः
तस्य
त्रैकालिकी बुद्धिर्जन्ममृत्यूपबृंहिता २८
अग्न्यादिभिर्न
हन्येत मुनेर्योगमयं वपुः
मद्योगशान्तचित्तस्य
यादसामुदकं यथा २९
मद्विभूतीरभिध्यायन्श्रीवत्सास्त्रविभूषिताः
ध्वजातपत्रव्यजनैः
स भवेदपराजितः ३०
उपासकस्य
मामेवं योगधारणया मुनेः
सिद्धयः
पूर्वकथिता उपतिष्ठन्त्यशेषतः ३१
जितेन्द्रियस्य
दान्तस्य जितश्वासात्मनो मुनेः
मद्धारणां
धारयतः का सा सिद्धिः सुदुर्लभा ३२
अन्तरायान्वदन्त्येता
युञ्जतो योगमुत्तमम्
मया
सम्पद्यमानस्य कालक्षपणहेतवः ३३
जन्मौषधितपोमन्त्रैर्यावतीरिह
सिद्धयः
योगेनाप्नोति
ताः सर्वा नान्यैर्योगगतिं व्रजेत् ३४
सर्वासामपि
सिद्धीनां हेतुः पतिरहं प्रभुः
अहं
योगस्य साङ्ख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मवादिनाम् ३५
अहमात्मान्तरो
बाह्योऽनावृतः सर्वदेहिनाम्
यथा
भूतानि भूतेषु बहिरन्तः स्वयं तथा ३६
जिस पुरुष ने मेरे
सत्यसङ्कल्पस्वरूप में अपना चित्त स्थिर कर दिया है,
उसीके ध्यानमें संलग्न है,
वह अपने मनसे जिस समय जैसा सङ्कल्प करता है, उसी समय उसका वह सङ्कल्प सिद्ध हो जाता है ॥ २६ ॥ मैं ‘ईशित्व’ और
‘वशित्व’—इन दोनों सिद्धियोंका स्वामी हूँ;
इसलिये कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता। जो मेरे उस रूपका चिन्तन
करके उसी भावसे युक्त हो जाता है, मेरे समान उसकी आज्ञाको भी कोई टाल नहीं सकता ॥ २७ ॥ जिस योगीका
चित्त मेरी धारणा करते-करते मेरी भक्तिके प्रभावसे शुद्ध हो गया है, उसकी बुद्धि जन्म-मृत्यु आदि अदृष्ट विषयोंको भी जान लेती है। और
तो क्या—भूत, भविष्य और वर्तमानकी सभी बातें उसे मालूम हो जाती हैं ॥ २८ ॥ जैसे
जलके द्वारा जलमें रहनेवाले प्राणियोंका नाश नहीं होता,
वैसे ही जिस योगीने अपना चित्त मुझमें लगाकर शिथिल कर दिया है, उसके योगमय शरीरको अग्रि, जल आदि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते ॥ २९ ॥ जो पुरुष श्रीवत्स
आदि चिह्न और शङ्ख-गदा-चक्र-पद्म आदि आयुधोंसे विभूषित तथा ध्वजा-छत्र-चँवर आदिसे
सम्पन्न मेरे अवतारोंका ध्यान करता है, वह अजेय हो जाता है ॥ ३० ॥
इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी
उपासना करता है और योगधारणाके द्वारा मेरा चिन्तन करता है,
उसे वे सभी सिद्धियाँ पूर्णत: प्राप्त हो जाती हैं, जिनका वर्णन मैंने किया है ॥ ३१ ॥ प्यारे उद्धव ! जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर ली है,
जो संयमी है और मेरे ही स्वरूपकी धारणा कर रहा है, उसके लिये ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं,
जो दुर्लभ हो। उसे तो सभी सिद्धियाँ प्राप्त ही हैं ॥ ३२ ॥ परन्तु
श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि जो लोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोगादि उत्तम योगोंका अभ्यास
कर रहे हैं, जो मुझसे एक हो रहे हैं उनके लिये इन सिद्धियोंका प्राप्त होना एक
विघ्र ही है; क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही उनके समयका दुरुपयोग होता है ॥ ३३ ॥
जतग्में जन्म, ओषधि, तपस्या
और मन्त्रादिके द्वारा जितनी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं,
वे सभी योगके द्वारा मिल जाती हैं;
परन्तु योगकी अन्तिम सीमा—मेरे सारूप्य,
सालोक्य आदिकी प्राप्ति बिना मुझमें चित्त लगाये किसी भी साधनसे
नहीं प्राप्त हो सकती ॥ ३४ ॥ ब्रह्मवादियोंने बहुत-से साधन बतलाये हैं—योग, सांख्य और धर्म आदि। उनका एवं समस्त सिद्धियोंका एकमात्र मैं ही
हेतु, स्वामी और प्रभु हूँ ॥ ३५ ॥ जैसे स्थूल पञ्चभूतोंमें बाहर, भीतर सर्वत्र सूक्ष्म पञ्च-महाभूत ही हैं,
सूक्ष्म भूतोंके अतिरिक्त स्थूल भूतोंकी कोई सत्ता ही नहीं है, वैसे ही मैं समस्त प्राणियोंके भीतर द्रष्टारूपसे और बाहर
दृश्यरूपसे स्थित हूँ। मुझमें बाहर-भीतरका भेद भी नहीं है;
क्योंकि मैं निरावरण, एक— अद्वितीय आत्मा हूँ ॥ ३६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे
पञ्चदशोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें