गुरुवार, 25 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण

 

श्रीभगवानुवाच

जितेन्द्रियस्य युक्तस्य जितश्वासस्य योगिनः

मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः १

 

श्रीउद्धव उवाच

कया धारणया का स्वित्कथं वा सिद्धिरच्युत

कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान् २

 

श्रीभगवानुवाच

सिद्धयोऽष्टादश प्रोक्ता धारणा योगपारगैः

तासामष्टौ मत्प्रधाना दशैव गुणहेतवः ३

अणिमा महिमा मूर्तेर्लघिमा प्राप्तिरिन्द्रियैः

प्राकाम्यं श्रुतदृष्टेषु शक्तिप्रेरणमीशिता ४

गुणेष्वसङ्गो वशिता यत्कामस्तदवस्यति

एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टावौत्पत्तिका मताः ५

अनूर्मिमत्त्वं देहेऽस्मिन्दूरश्रवणदर्शनम्

मनोजवः कामरूपं परकायप्रवेशनम् ६

स्वच्छन्दमृत्युर्देवानां सहक्रीडानुदर्शनम्

यथासङ्कल्पसंसिद्धिराज्ञाप्रतिहता गतिः ७

त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्वं परचित्ताद्यभिज्ञता

अग्न्यर्काम्बुविषादीनां प्रतिष्टम्भोऽपराजयः ८

एताश्चोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः

यया धारणया या स्याद्यथा वा स्यान्निबोध मे ९

भूतसूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्रं धारयेन्मनः

अणिमानमवाप्नोति तन्मात्रोपासको मम १०

महत्तत्त्वात्मनि मयि यथासंस्थं मनो दधत्

महिमानमवाप्नोति भूतानां च पृथक्पृथक् ११

परमाणुमये चित्तं भूतानां मयि रञ्जयन्

कालसूक्ष्मार्थतां योगी लघिमानमवाप्नुयात् १२

धारयन्मय्यहंतत्त्वे मनो वैकारिकेऽखिलम्

सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं प्राप्तिं प्राप्नोति मन्मनाः १३

महत्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसम्

प्राकाम्यं पारमेष्ठ्यं मे विन्दतेऽव्यक्तजन्मनः १४

विष्णौ त्र्यधीश्वरे चित्तं धारयेत्कालविग्रहे

स ईशित्वमवाप्नोति क्षेत्रज्ञक्षेत्रचोदनाम् १५

नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छब्दशब्दिते

मनो मय्यादधद्योगी मद्धर्मा वशितामियात् १६

निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन्विशदं मनः

परमानन्दमाप्नोति यत्र कामोऽवसीयते १७

श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि

धारयञ्छ्वेततां याति षडूर्मिरहितो नरः १८

मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्वहन्

तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाचः शृणोत्यसौ १९

चक्षुस्त्वष्टरि संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषि

मां तत्र मनसा ध्यायन्विश्वं पश्यति दूरतः २०

मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनुवायुना

मद्धारणानुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मनः २१

यदा मन उपादाय यद्यद्रूपं बुभूषति

तत्तद्भवेन्मनोरूपं मद्योगबलमाश्रयः २२

परकायं विशन्सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत्

पिण्डं हित्वा विशेत्प्राणो वायुभूतः षडङ्घ्रिवत् २३

पार्ष्ण्यापीड्य गुदं प्राणं हृदुरःकण्ठमूर्धसु

आरोप्य ब्रह्मरन्ध्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सृजेत्तनुम् २४

विहरिष्यन्सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत्

विमानेनोपतिष्ठन्ति सत्त्ववृत्तीः सुरस्त्रियः २५

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! जब साधक इन्द्रिय, प्राण और मनको अपने वशमें करके अपना चित्त मुझमें लगाने लगता है, मेरी धारणा करने लगता है, तब उसके सामने बहुत-सी सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं ॥ १ ॥

उद्धवजीने कहा—अच्युत ! कौन-सी धारणा करनेसे किस प्रकार कौन-सी सिद्धि प्राप्त होती है और उनकी संख्या कितनी है, आप ही योगियोंको सिद्धियाँ देते हैं, अत: आप इनका वर्णन कीजिये ॥ २ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! धारणायोगके पारगामी योगियोंने अठारह प्रकारकी सिद्धियाँ बतलायी हैं। उनमें आठ सिद्धियाँ तो प्रधानरूपसे मुझमें ही रहती हैं और दूसरोंमें न्यून। तथा दस सत्त्वगुणके विकाससे भी मिल जाती हैं ॥ ३ ॥ उनमें तीन सिद्धियाँ तो शरीरकी हैं— ‘अणिमा’,‘महिमा’ और ‘लघिमा’। इन्द्रियोंकी एक सिद्धि है—‘प्राप्ति’। लौकिक और पारलौकिक पदार्थोंका इच्छानुसार अनुभव करनेवाली सिद्धि ‘प्राकाम्य’ है। माया और उसके कार्योंको इच्छानुसार सञ्चालित करना ‘ईशिता’ नामकी सिद्धि है ॥ ४ ॥ विषयोंमें रहकर भी उनमें आसक्त न होना ‘वशिता’ है और जिस-जिस सुखकी कामना करे, उसकी सीमातक पहुँच जाना ‘कामावसायिता’ नामकी आठवीं सिद्धि है। ये आठों सिद्धियाँ मुझमें स्वभावसे ही रहती हैं और जिन्हें मैं देता हूँ, उन्हींको अंशत: प्राप्त होती हैं ॥ ५ ॥ इनके अतिरिक्त और भी कई सिद्धियाँ हैं। शरीरमें भूख-प्यास आदि वेगोंका न होना, बहुत दूरकी वस्तु देख लेना और बहुत दूरकी बात सुन लेना, मनके साथ ही शरीरका उस स्थानपर पहुँच जाना, जो इच्छा हो वही रूप बना लेना; दूसरे शरीरमें प्रवेश करना, जब इच्छा हो तभी शरीर छोडऩा, अप्सराओंके साथ होनेवाली देवक्रीड़ाका दर्शन, सङ्कल्पकी सिद्धि, सब जगह सबके द्वारा बिना ननु-नचके आज्ञापालन—ये दस सिद्धियाँ सत्त्वगुणके विशेष विकाससे होती हैं ॥ ६-७ ॥ भूत, भविष्य और वर्तमानकी बात जान लेना; शीत-उष्ण, सुख-दु:ख और राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंके वशमें न होना, दूसरेके मन आदिकी बात जान लेना; अग्रि, सूर्य, जल, विष आदिकी शक्तिको स्तम्भित कर देना और किसीसे भी पराजित न होना—ये पाँच सिद्धियाँ भी योगियोंको प्राप्त होती हैं ॥ ८ ॥ प्रिय उद्धव ! योग-धारणा करनेसे जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनका मैंने नाम-निर्देशके साथ वर्णन कर दिया। अब किस धारणासे कौन- सी सिद्धि कैसे प्राप्त होती है, यह बतलाता हूँ, सुनो ॥ ९ ॥

प्रिय उद्धव ! पञ्चभूतोंकी सूक्ष्मतम मात्राएँ मेरा ही शरीर हैं। जो साधक केवल मेरे उसी शरीरकी उपासना करता है और अपने मनको तदाकार बनाकर उसीमें लगा देता है अर्थात् मेरे तन्मात्रात्मक शरीरके अतिरिक्त और किसी भी वस्तुका चिन्तन नहीं करता, उसे ‘अणिमा’ नामकी सिद्धि अर्थात् पत्थरकी चट्टान आदिमें भी प्रवेश करनेकी शक्ति—अणुता प्राप्त हो जाती है ॥ १० ॥ महत्तत्त्वके रूपमें भी मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ और उस रूपमें समस्त व्यावहारिक ज्ञानोंका केन्द्र हूँ। जो मेरे उस रूपमें अपने मनको महत्तत्त्वाकार करके तन्मय कर देता है, उसे ‘महिमा’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है, और इसी प्रकार आकाशादि पञ्चभूतोंमें—जो मेरे ही शरीर हैं—अलग-अलग मन लगानेसे उन-उनकी महत्ता प्राप्त हो जाती है, यह भी ‘महिमा’ सिद्धिके ही अन्तर्गत है ॥ ११ ॥ जो योगी वायु आदि चार भूतोंके परमाणुओंको मेरा ही रूप समझकर चित्तको तदाकार कर देता है, उसे‘लघिमा’ सिद्धि प्राप्त हो जाती है—उसे परमाणुरूप कालके [*] समान सूक्ष्म वस्तु बननेका सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है ॥ १२ ॥ जो सात्त्विक अहङ्कार को मेरा स्वरूप समझकर मेरे उसी रूपमें चित्तकी धारणा करता है, वह समस्त इन्द्रियोंका अधिष्ठाता हो जाता है। मेरा चिन्तन करनेवाला भक्त इस प्रकार ‘प्राप्ति’ नामकी सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ १३ ॥ जो पुरुष मुझ महत्तत्त्वाभिमानी सूत्रात्मामें अपना चित्त स्थिर करता है, उसे मुझ अव्यक्तजन्मा (सूत्रात्मा) की ‘प्राकाम्य’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है—जिससे इच्छानुसार सभी भोग प्राप्त हो जाते हैं ॥ १४ ॥ जो त्रिगुणमयी मायाके स्वामी मेरे कालस्वरूप विश्वरूपकी धारणा करता है, वह शरीरों और जीवोंको अपने इच्छानुसार प्रेरित करनेकी सामथ्र्य प्राप्त कर लेता है। इस सिद्धिका नाम ‘ईशित्व’ है ॥ १५ ॥ जो योगी मेरे नारायण-स्वरूपमें—जिसे तुरीय और भगवान्‌ भी कहते हैं—मनको लगा देता है, मेरे स्वाभाविक गुण उसमें प्रकट होने लगते हैं और उसे ‘वशिता’ नामकी सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ १६ ॥ निर्गुण ब्रह्म भी मैं ही हूँ। जो अपना निर्मल मन मेरे इस ब्रह्मस्वरूपमें स्थित कर लेता है, उसे परमानन्द-स्वरूपिणी ‘कामावसायिता’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है। इसके मिलनेपर उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, समाप्त हो जाती हैं ॥ १७ ॥ प्रिय उद्धव ! मेरा वह रूप, जो श्वेत- द्वीपका स्वामी है, अत्यन्त शुद्ध और धर्ममय है। जो उसकी धारणा करता है, वह भूख-प्यास, जन्म- मृत्यु और शोक-मोह—इन छ: ऊॢमयोंसे मुक्त हो जाता है और उसे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति होती है ॥ १८ ॥ मैं ही समष्टि-प्राणरूप आकाशात्मा हूँ। जो मेरे इस स्वरूपमें मनके द्वारा अनाहत नादका चिन्तन करता है, वह ‘दूरश्रवण’ नामकी सिद्धिसे सम्पन्न हो जाता है और आकाशमें उपलब्ध होनेवाली विविध प्राणियोंकी बोली सुन-समझ सकता है ॥ १९ ॥ जो योगी नेत्रोंको सूर्यमें और सूर्यको नेत्रोंमें संयुक्त कर देता है और दोनोंके संयोगमें मन-ही-मन मेरा ध्यान करता है, उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है, उसे ‘दूरदर्शन’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है और वह सारे संसारको देख सकता है ॥ २० ॥ मन और शरीरको प्राणवायुके सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और मेरी धारणा करे तो इससे ‘मनोजव’ नामकी सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसके प्रभावसे वह योगी जहाँ भी जानेका संकल्प करता है, वहीं उसका शरीर उसी क्षण पहुँच जाता है ॥ २१ ॥ जिस समय योगी मनको उपादान- कारण बनाकर किसी देवता आदिका रूप धारण करना चाहता है तो वह अपने मनके अनुकूल वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसने अपने चित्तको मेरे साथ जोड़ दिया है ॥ २२ ॥ जो योगी दूसरे शरीरमें प्रवेश करना चाहे, वह ऐसी भावना करे कि मैं उसी शरीरमें हूँ। ऐसा करनेसे उसका प्राण वायुरूप धारण कर लेता है और वह एक फूलसे दूसरे फूलपर जानेवाले भौंरेके समान अपना शरीर छोडक़र दूसरे शरीरमें प्रवेश कर जाता है ॥ २३ ॥ योगीको यदि शरीरका परित्याग करना हो तो एड़ीसे गुदाद्वारको दबाकर प्राणवायुको क्रमश: हृदय, वक्ष:स्थल, कण्ठ और मस्तकमें ले जाय। फिर ब्रह्मरन्ध्रके द्वारा उसे ब्रह्ममें लीन करके शरीरका परित्याग कर दे ॥ २४ ॥ यदि उसे देवताओंके विहारस्थलोंमें क्रीड़ा करनेकी इच्छा हो, तो मेरे शुद्ध सत्त्वमय स्वरूपकी भावना करे। ऐसा करनेसे सत्त्वगुणकी अंशस्वरूपा सुर-सुन्दरियाँ विमानपर चढक़र उसके पास पहुँच जाती हैं ॥ २५ ॥

.............................

[*] पृथ्वी आदिके परमाणुओं में गुरुत्व विद्यमान रहता है। इसीसे उसका भी निषेध करनेके लिये कालके परमाणुकी समानता बतायी है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...