॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भक्तियोग की महिमा तथा ध्यानविधि का
वर्णन
विषयान्
ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।
मां अनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते ॥ २७ ॥
तस्मात् असदभिध्यानं यथा स्वप्नमनोरथम् ।
हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद्भावभावितम् ॥ २८ ॥
स्त्रीणां स्त्रीसङ्गिनां सङ्गं त्यक्त्वा
दूरत आत्मवान् ।
क्षेमे विविक्त आसीनः चिन्तयेत् मां अतन्द्रितः
॥ २९ ॥
न तथास्य भवेत्क्लेशो बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः ।
योषित् सङ्गात् यथा पुंसो यथा तत् सङ्गिसङ्गतः
॥ ३० ॥
श्रीउद्धव उवाच -
यथा त्वां अरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकम् ।
ध्यायेत् मुमुक्षुः एतन्मे ध्यानं त्वं
वक्तुमर्हसि ॥ ३१ ॥
श्रीभगवानुवाच -
सम आसन आसीनः
समकायो यथासुखम् ।
हस्तौ उत्सङ्ग आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षणः ॥ ३२ ॥
प्राणस्य शोधयेत् मार्गं पूरकुम्भकरेचकैः ।
विपर्ययेणापि शनैः अभ्यसेत् निर्जितेन्द्रियः ॥
३३ ॥
हृद्यविच्छिन्न-मोंकारं घण्टानादं विसोर्णवत् ।
प्राणेन-उदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत् स्वरम् ॥
३४ ॥
एवं प्रणवसंयुक्तं प्राणमेव समभ्यसेत् ।
दशकृत्वस्त्रिषवणं मासाद्-अर्वाग् जितानिलः ॥ ३५
॥
हृत्पुण्डरीकमन्तस्थं ऊर्ध्वनालमधोमुखम् ।
ध्यात्वोर्ध्वमुखमुन्निद्रं अष्टपत्रं सकर्णिकम्
॥ ३६ ॥
कर्णिकायां न्यसेत् सूर्य सोमाग्नीन्
उत्तरोत्तरम् ।
वह्निमध्ये
स्मरेद् रूपं ममैतद् ध्यानमङ्गलम् ॥ ३७ ॥
समं प्रशान्तं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम् ।
सुचारुसुन्दरग्रीवं सुकपोलं शुचिस्मितम् ॥ ३८ ॥
समानकर्णविन्यस्तस्फुरन्मकरकुण्डलम् ।
हेमाम्बरं घनश्यामं श्रीवत्स श्रीनिकेतनम् ॥ ३९
॥
शङ्खचक्रगदापद्म वनमालाविभूषितम् ।
नूपुरैः विलसत्पादं कौस्तुभप्रभया युतम् ॥ ४० ॥
द्युमत् किरीटकटक कटिसूत्राङ्गदायुतम् ।
सर्वाङ्गसुन्दरं हृद्यं प्रसाद सुमुखेक्षणम् ।
सुकुमारमभिध्यायेत् सर्वाङ्गेषु मनो दधत् ॥ ४१ ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः
।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन् मयि सर्वतः ॥ ४२
॥
तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् ।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेत् मुखम्
॥ ४३ ॥
तत्र लब्धपदं चित्तं आकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥
४४ ॥
एवं समाहितमतिः मां एवात्मानमात्मनि ।
विचष्टे मयि सर्वात्मन् ज्योतिर्ज्योतिषि
संयुतम् ॥ ४५ ॥
ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युञ्जतो योगिनो मनः ।
संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्य ज्ञानक्रियाभ्रमः
॥ ४६ ॥
जो पुरुष निरन्तर विषय-चिन्तन किया
करता है, उसका चित्त विषयोंमें फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है ॥ २७ ॥ इसलिये तुम दूसरे
साधनों और फलोंका चिन्तन छोड़ दो। अरे भाई ! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथका राज्य। इसलिये मेरे
चिन्तनसे तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरहसे—एकाग्रतासे मुझमें ही लगा
दो ॥ २८ ॥ संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियोंका सङ्ग दूरसे ही छोडक़र, पवित्र एकान्त स्थानमें बैठकर बड़ी सावधानीसे मेरा ही चिन्तन करे ॥
२९ ॥ प्यारे उद्धव ! स्त्रियोंके सङ्गसे और स्त्रीसङ्गियों के—लम्पटों के सङ्ग से
पुरुष को जैसे क्लेश और बन्धनमें पडऩा पड़ता है,
वैसा क्लेश और फँसावट और किसीके भी सङ्ग से नहीं होती ॥ ३० ॥
उद्धवजीने पूछा—कमलनयन श्यामसुन्दर
! आप कृपा करके यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूपसे, किस प्रकार और किस भावसे ध्यान करे ?
॥ ३१ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय
उद्धव ! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा ही—ऐसे आसनपर शरीरको सीधा रखकर
आरामसे बैठ जाय, हाथोंको अपनी गोदमें रख ले और दृष्टि अपनी नासिकाके अग्रभागपर
जमावे ॥ ३२ ॥ इसके बाद पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक—इन प्राणायामोंके द्वारा नाडिय़ोंका शोधन करे।
प्राणायामका अभ्यास धीरे- धीरे बढ़ाना चाहिये और उसके साथ-साथ इन्द्रियोंको
जीतनेका भी अभ्यास करना चाहिये ॥ ३३ ॥ हृदयमें कमलनालगत पतले सूतके समान ॐ कारका
चिन्तन करे, प्राणके द्वारा उसे ऊपर ले जाय और उसमें घण्टानादके समान स्वर
स्थिर करे। उस स्वरका ताँता टूटने न पावे ॥ ३४ ॥ इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस-दस
बार ॐकारसहित प्राणायामका अभ्यास करे। ऐसा करनेसे एक महीनेके अंदर ही प्राणवायु
वशमें हो जाता है ॥ ३५ ॥ इसके बाद ऐसा चिन्तन करे कि हृदय एक कमल है, वह शरीरके भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपरकी ओर है
और मुँह नीचेकी ओर। अब ध्यान करना चाहिये कि उसका मुख ऊपरकी ओर होकर खिल गया है, उसके आठ दल (पँखुडिय़ाँ) हैं और उनके बीचोबीच पीली-पीली अत्यन्त
सुकुमार कॢणका (गद्दी) है ॥ ३६ ॥ कॢणकापर क्रमश: सूर्य,
चन्द्रमा और अग्नि का न्यास करना चाहिये। तदनन्तर अग्नि के अंदर
मेरे इस रूपका स्मरण करना चाहिये। मेरा यह स्वरूप ध्यानके लिये बड़ा ही मङ्गलमय है
॥ ३७ ॥ मेरे अवयवोंकी गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम-रोमसे शान्ति टपकती है। मुखकमल
अत्यन्त प्रफुल्लित और सुन्दर है। घुटनोंतक लंबी मनोहर चार भुजाएँ हैं। बड़ी ही
सुन्दर और मनोहर गरदन है। मरकतमणिके समान सुस्निग्ध कपोल हैं। मुखपर मन्द-मन्द
मुसकानकी अनोखी ही छटा है। दोनों ओरके कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल
झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं। वर्षा-कालीन मेघके समान श्यामल शरीरपर पीताम्बर फहरा
रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजीका चिह्न वक्ष:स्थलपर दायें-बायें विराजमान है।
हाथोंमें क्रमश: शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं। गलेमें वनमाला लटक रही है।
चरणोंमें नूपुर शोभा दे रहे हैं, गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। अपने-अपने स्थानपर चमचमाते हुए
किरीट, कंगन, करधनी
और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयहारी है।
सुन्दर मुख और प्यारभरी चितवन कृपा- प्रसादकी वर्षा कर रही है। उद्धव ! मेरे इस
सुकुमार रूपका ध्यान करना चाहिये और अपने मनको एक-एक अङ्गमें लगाना चाहिये ॥ ३८—४१
॥
बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि मनके
द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींच ले और मनको बुद्धिरूप सारथिकी सहायतासे
मुझमें ही लगा दे, चाहे
मेरे किसी भी अङ्गमें क्यों न लगे ॥ ४२ ॥ जब सारे शरीरका ध्यान होने लगे, तब अपने चित्तको खींचकर एक स्थानमें स्थिर करे और अन्य अङ्गोंका
चिन्तन न करके केवल मन्द-मन्द मुसकानकी छटासे युक्त मेरे मुखका ही ध्यान करे ॥ ४३
॥ जब चित्त मुखारविन्दमें ठहर जाय, तब उसे वहाँसे हटाकर आकाशमें स्थिर करे। तदनन्तर आकाशका चिन्तन भी
त्यागकर मेरे स्वरूपमें आरूढ हो जाय और मेरे सिवा किसी भी वस्तुका चिन्तन न करे ॥
४४ ॥ जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है,
तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योतिसे मिलकर एक हो जाती है, वैसे ही अपनेमें मुझे और मुझ सर्वात्मामें अपनेको अनुभव करने लगता
है ॥ ४५ ॥ जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यानयोगके द्वारा मुझमें ही अपने चित्तका संयम
करता है, उसके चित्तसे वस्तुकी अनेकता,
तत्सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्तिके लिये होनेवाले कर्मोंका भ्रम
शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है ॥ ४६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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