बुधवार, 24 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भक्तियोग की महिमा तथा ध्यानविधि का वर्णन

 

श्रीउद्धव उवाच -

वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः ।

 तेषां विकल्पप्राधान्यं उताहो एकमुख्यता ॥ १ ॥

 भवता उदाहृतः स्वामिन् भक्तियोगोऽनपेक्षितः ।

 निरस्य सर्वतः सङ्गं येन त्वय्याविशेन्मनः ॥ २ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता ।

 मयाऽऽदौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः ॥ ३ ॥

 तेन प्रोक्ता स्वपुत्राय मनवे पूर्वजाय सा ।

 ततो भृग्वादयोऽगृह्णन् सप्त ब्रह्ममहर्षयः ॥ ४ ॥

 तेभ्यः पितृभ्यः तत्पुत्रा देवदानवगुह्यकाः ।

 मनुष्याः सिद्धगन्धर्वाः सविद्याधरचारणाः ॥ ५ ॥

 किन्देवाः किन्नरा नागा रक्षः किम्पुरुषादयः ।

 बह्व्यस्तेषां प्रकृतयो रजःसत्त्वतमोभुवः ॥ ६ ॥

 याभिर्भूतानि भिद्यन्ते भूतानां मतयस्तथा ।

 यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाचः स्रवन्ति हि ॥ ७ ॥

 एवं प्रकृतिवैचित्र्याद् भिद्यन्ते मतयो नृणाम् ।

 पारम्पर्येण केषाञ्चित् पाषण्डमतयोऽपरे ॥ ८ ॥

 मन्मायामोहितधियः पुरुषाः पुरुषर्षभ ।

 श्रेयो वदंति अनेकांतं यथाकर्म यथारुचि ॥ ९ ॥

 धर्ममेके यशश्चान्ये कामं सत्यं दमं शमम् ।

 अन्ये वदंति स्वार्थं वा ऐश्वर्यं त्यागभोजनम् ॥ १० ॥

 केचिद् यज्ञतपो दानं व्रतानि नियमान् यमान् ।

 आद्यंतवंत एवैषां लोकाः कर्मविनिर्मिताः ।

 दुःखोदर्काः तमोनिष्ठाः क्षुद्रानंदाः शुचार्पिताः ॥ ११ ॥

 मय्यर्पितात्मनः सभ्य निरपेक्षस्य सर्वतः ।

 मयाऽऽत्मना सुखं यत्तत् कुतः स्याद् विषयात्मनाम् ॥ १२ ॥

 अकिञ्चनस्य दान्तस्य शान्तस्य समचेतसः ।

 मया सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः ॥ १३ ॥

न पारमेष्ठ्यं न महेंद्रधिष्ण्यं

     न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।

 न योगसिद्धीः अपुनर्भवं वा

     मय्यर्पितात्मेच्छति मद् विनान्यत् ॥ १४ ॥

 न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शङ्करः ।

 न च सङ्कर्षणो न श्रीः नैवात्मा च यथा भवान् ॥ १५ ॥

 निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम् ।

 अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्‌‍घ्रिरेणुभिः ॥ १६ ॥

 निष्किञ्चना मय्यनुरक्तचेतसः

     शांता महांतोऽखिलजीववत्सलाः ।

 कामैरनालब्धधियो जुषन्ति यत्

     नैरपेक्ष्यं न विदुः सुखं मम ॥ १७ ॥

 बाध्यमानोऽपि मद्‍भक्तो विषयैरजितेन्द्रियः ।

 प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभिभूयते ॥ १८ ॥

 यथाग्निः सुसमृद्धार्चिः करोत्येधांसि भस्मसात् ।

 तथा मद्विषया भक्तिः उद्धवैनांसि कृत्स्नशः ॥ १९ ॥

 न साधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म उद्धव ।

 न स्वाध्यायः तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ॥ २० ॥

 भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम् ।

 भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकान् अपि संभवात् ॥ २१ ॥

 धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता ।

 मद्‍भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि ॥ २२ ॥

 कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना ।

 विनाऽऽनन्दाश्रुकलया शुध्येद् भक्त्या विनाऽऽशयः ॥ २३ ॥

 वाग्-गद्-गदा द्रवते यस्य चित्तं

     रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचित्-च ।

 विलज्ज उद्‌गायति नृत्यते च

     मद्‍भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥ २४ ॥

 यथाग्निना हेम मलं जहाति

     ध्मातं पुनः स्वं भजते च रूपम् ।

 आत्मा च कर्मानुशयं विधूय

     मद्‍भक्तियोगेन भजत्यथो माम् ॥ २५ ॥

 यथा यथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ

     मत्पुण्यगाथा श्रवणाभिधानैः ।

 तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं

     चक्षुर्यथैवाञ्जनसंप्रयुक्तम् ॥ २६ ॥

 

उद्धवजीने पूछा—श्रीकृष्ण ! ब्रह्मवादी महात्मा आत्मकल्याण के अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टिके अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एककी प्रधानता है ? ॥ १ ॥ मेरे स्वामी ! आपने तो अभी-अभी भक्तियोगको ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसीसे सब ओरसे आसक्ति छोडक़र मन आपमें ही तन्मय हो जाता है ॥ २ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! यह वेदवाणी समयके फेरसे प्रलयके अवसरपर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टिका समय आया, तब मैंने अपने सङ्कल्पसे ही इसे ब्रह्माको उपदेश किया, इसमें मेरे भागवतधर्मका ही वर्णन है ॥ ३ ॥ ब्रह्माने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनुको उपदेश किया और उनसे भृगु, अङ्गिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य और क्रतु—इन सात प्रजापति-महर्षियोंने ग्रहण किया ॥ ४ ॥ तदनन्तर इन ब्रहमर्षियोंकी सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव [1], किन्नर [2], नाग, राक्षस और किम्पुरुष [3] आदिने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रहमर्षियोंसे प्राप्त किया। सभी जातियों और व्यक्तियोंके स्वभाव—उनकी वासनाएँ सत्त्व, रज और तमोगुणके कारण भिन्न-भिन्न हैं; इसलिये उनमें और उनकी बुद्धिवृत्तियोंमें भी अनेकों भेद हैं इसलिये वे सभी अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार उस वेदवाणीका भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं। वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही है ॥ ५—७ ॥ इसी प्रकार स्वभावभेद तथा परम्परागत उपदेशके भेदसे मनुष्योंकी बुद्धिमें भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचारके वेदविरुद्ध पाखण्डमतावलम्बी हो जाते हैं ॥ ८ ॥ प्रिय उद्धव ! सभीकी बुद्धि मेरी मायासे मोहित हो रही है; इसीसे वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचिके अनुसार आत्मकल्याणके साधन भी एक नहीं, अनेकों बतलाते हैं ॥ ९ ॥ पूर्वमीमांसक धर्मको, साहित्याचार्य यशको, कामशास्त्री कामको, योगवेत्ता सत्य और शमदमादिको, दण्डनीतिकार ऐश्वर्यको, त्यागी त्यागको और लोकायतिक भोगको ही मनुष्य-जीवनका स्वार्थ— परम लाभ बतलाते हैं ॥ १० ॥ कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदिको पुरुषार्थ बतलाते हैं। परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाशवाले हैं। कर्मोंका फल समाप्त हो जानेपर उनसे दु:ख ही मिलता है और सच पूछो, तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ है—नगण्य है और वे लोक भोगके समय भी असूया आदि दोषोंके कारण शोकसे परिपूर्ण हैं। (इसलिये इन विभिन्न साधनोंके फेरमें न पडऩा चाहिये) ॥ ११ ॥

प्रिय उद्धव ! जो सब ओरसे निरपेक्ष—बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदिकी आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्त:करणको सब प्रकारसे मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्दस्वरूप मैं उसकी आत्माके रूपमें स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुखका अनुभव करता है, वह विषयलोलुप प्राणियोंको किसी प्रकार मिल नहीं सकता ॥ १२ ॥ जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित—अकिञ्चन है, जो अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्तिसे ही मेरे सान्निध्यका अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोषका अनुभव करता है, उसके लिये आकाशका एक-एक कोना आनन्दसे भरा हुआ है ॥ १३ ॥ जिसने अपनेको मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोडक़र न तो ब्रह्माका पद चाहता है और न देवराज इन्द्रका, उसके मनमें न तो सार्वभौम सम्राट् बननेकी इच्छा होती है और न वह स्वर्गसे भी श्रेष्ठ रसातलका ही स्वामी होना चाहता है। वह योगकी बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्षतककी अभिलाषा नहीं करता ॥ १४ ॥ उद्धव ! मुझे तुम्हारे-जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शङ्कर, सगे भाई बलरामजी, स्वयं अर्धाङ्गिनी लक्ष्मीजी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है ॥ १५ ॥ जिसे किसीकी अपेक्षा नहीं, जो जगत्के चिन्तनसे सर्वथा उपरत होकर मेरे ही मनन- चिन्तनमें तल्लीन रहता है और राग-द्वेष न रखकर सबके प्रति समान दृष्टि रखता है, उस महात्माके पीछे-पीछे मैं निरन्तर यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणोंकी धूल उडक़र मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ ॥ १६ ॥ जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित हैं—यहाँतक कि शरीर आदिमें भी अहंता-ममता नहीं रखते, जिनका चित्त मेरे ही प्रेमके रंगमें रँग गया है, जो संसारकी वासनाओंसे शान्त-उपरत हो चुके हैं और जो अपनी महत्ता—उदारताके कारण स्वभावसे ही समस्त प्राणियोंके प्रति दया और प्रेमका भाव रखते हैं, किसी प्रकारकी कामना जिनकी बुद्धिका स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्दस्वरूपका अनुभव होता है, उसे और कोई नहीं जान सकता; क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षतासे ही प्राप्त होता है ॥ १७ ॥

उद्धवजी ! मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसारके विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं—अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी क्षण-क्षणमें बढऩेवाली मेरी प्रगल्भ भक्तिके प्रभावसे प्राय: विषयोंसे पराजित नहीं होता ॥ १८ ॥ उद्धव ! जैसे धधकती हुई आग लकडिय़ोंके बड़े ढेरको भी जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप- राशिको पूर्णतया जला डालती है ॥ १९ ॥ उद्धव ! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप- पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त करानेमें उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनों-दिन बढऩेवाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति ॥ २० ॥ मैं संतोंका प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्तिसे ही पकड़में आता हूँ। मुझे प्राप्त करनेका यह एक ही उपाय है। मेरी अनन्य भक्ति उन लोगोंको भी पवित्र—जातिदोषसे मुक्त कर देती है, जो जन्मसे ही चाण्डाल हैं ॥ २१ ॥ इसके विपरीत जो मेरी भक्तिसे वञ्चित हैं, उनके चित्तको सत्य और दयासे युक्त, धर्म और तपस्यासे युक्त विद्या भी भलीभाँति पवित्र करनेमें असमर्थ है ॥ २२ ॥ जबतक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गद्गद नहीं हो जाता, आनन्दके आँसू आँखोंसे छलकने नहीं लगते तथा अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग भक्तिकी बाढ़में चित्त डूबने-उतराने नहीं लगता, तबतक इसके शुद्ध होनेकी कोई सम्भावना नहीं है ॥ २३ ॥ जिसकी वाणी प्रेमसे गद्गद हो रही है, चित्त पिघलकर एक ओर बहता रहता है, एक क्षणके लिये भी रोनेका ताँता नहीं टूटता, परन्तु जो कभी-कभी खिलखिलाकर हँसने भी लगता है, कहीं लाज छोडक़र ऊँचे स्वरसे गाने लगता है, तो कहीं नाचने लगता है, भैया उद्धव ! मेरा वह भक्त न केवल अपनेको बल्कि सारे संसारको पवित्र कर देता है ॥ २४ ॥ जैसे आगमें तपानेपर सोना मैल छोड़ देता है—निखर जाता है और अपने असली शुद्ध रूपमें स्थित हो जाता है, वैसे ही मेरे भक्तियोगके द्वारा आत्मा कर्म-वासनाओंसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि मैं ही उसका वास्तविक स्वरूप हूँ ॥ २५ ॥ उद्धवजी ! मेरी परमपावन लीला-कथाके श्रवण-कीर्तनसे ज्यों-ज्यों चित्तका मैल धुलता जाता है, त्यों-त्यों उसे सूक्ष्मवस्तुके—वास्तविक तत्त्वके दर्शन होने लगते हैं—जैसे अंजनके द्वारा नेत्रोंका दोष मिटनेपर उनमें सूक्ष्म वस्तुओंको देखनेकी शक्ति आने लगती है ॥ २६ ॥

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[1] श्रम और स्वेदादि दुर्गन्धसे रहित होनेके कारण जिनके विषयमें ‘ये देवता हैं या मनुष्य’ ऐसा सन्देह हो, वे द्वीपान्तर निवासी मनुष्य।

[2] मुख तथा शरीरकी आकृतिसे कुछ-कुछ मनुष्यके समान प्राणी।

[3] कुछ-कुछ पुरुषके समान प्रतीत होनेवाले वानरादि।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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