॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
हंसरूप से सनकादि को दिये हुए उपदेश
का वर्णन
यो
जागरे बहिरनुक्षणधर्मिणोऽर्थान्
भुङ्क्ते समस्तकरणैहृदि तत्सदृक्षान् ।
स्वप्ने सुषुप्त उपसंहरते स एकः
स्मृत्यन्वयात् त्रिगुणवृत्तिदृगिन्द्रियेशः
॥ ३२ ॥
एवं विमृश्य गुणतो मनसः त्र्यवस्था ।
मन्मायया मयि कृता इति निश्चितार्थाः ।
संछिद्य हार्दमनुमानसदुक्तितीक्ष्ण ।
ज्ञानासिना भजत माखिलसंशयाधिम् ॥ ३३ ॥
ईक्षेत विभ्रममिदं मनसो विलासं ।
दृष्टं विनष्टमतिलोलमलातचक्रम् ।
विज्ञानमेकं उरुधेव विभाति माया ।
स्वप्नः त्रिधा गुणविसर्गकृतो विकल्पः ॥ ३४
॥
दृष्टिं ततः प्रतिनिवर्त्य निवृत्ततृष्णः ।
तूष्णीं भवेत् निजसुखानुभवो निरीहः ।
संदृश्यते क्व च यदीदमवस्तुबुद्ध्या ।
त्यक्तं भ्रमाय न भवेत् स्मृतिरानिपातात् ॥
३५ ॥
देहं च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वा ।
सिद्धो न पश्यति यतोऽध्यगमत् स्वरूपम् ।
दैवाद्-अपेतमथ दैववशाद् उपेतं ।
वासो यथा परिकृतं मदिरा-मदान्धः ॥ ३६ ॥
देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत् ।
स्वारंभकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः ।
तं सप्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः ।
स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः ॥ ३७
॥
मयैतदुक्तं
वो विप्रा गुह्यं यत् साङ्ख्ययोगयोः ।
जानीत माऽऽगतं यज्ञं युष्मद्-धर्मविवक्षया ॥ ३८
॥
अहं योगस्य साङ्ख्यस्य सत्यस्यर्तस्य तेजसः ।
परायणं द्विजश्रेष्ठाः श्रियः कीर्तेः दमस्य च ॥
३९ ॥
मां भजन्ति गुणाः सर्वे निर्गुणं निरपेक्षकम् ।
सुहृदं प्रियमात्मानं साम्यासङ्गादयोगुणाः ॥ ४०
॥
इति मे छिन्नसन्देहा मुनयः सनकादयः ।
सभाजयित्वा परया भक्त्यागृणत संस्तवैः ॥ ४१ ॥
तैरहं पूजितः सम्यक् संस्तुतः परमर्षिभिः ।
प्रत्येयाय स्वकं धाम पश्यतः परमेष्ठिनः ॥ ४२ ॥
जो जाग्रत् अवस्थामें समस्त
इन्द्रियोंके द्वारा बाहर दीखनेवाले सम्पूर्ण क्षणभङ्गुर पदार्थोंको अनुभव करता है
और स्वप्नावस्थामें हृदयमें ही जाग्र्तमें देखे हुए पदार्थोंके समान ही वासनामय
विषयोंका अनुभव करता है और सुषुप्ति-अवस्थामें उन सब विषयोंको समेटकर उनके लयको भी
अनुभव करता है, वह एक ही है। जाग्रत् अवस्थाके इन्द्रिय,
स्वप्नावस्थाके मन और सुषुप्तिकी संस्कारवती बुद्धिका भी वही
स्वामी है। क्योंकि वह त्रिगुणमयी तीनों अवस्थाओंका साक्षी है। ‘जिस मैंने स्वप्न
देखा, जो मैं सोया, वही मैं जाग रहा हूँ’—इस स्मृतिके बलपर एक ही आत्माका समस्त
अवस्थाओंमें होना सिद्ध हो जाता है ॥ ३२ ॥ ऐसा विचारकर मनकी ये तीनों अवस्थाएँ
गुणोंके द्वारा मेरी मायासे मेरे अंशस्वरूप जीवमें कल्पित की गयी हैं और आत्मामें
ये नितान्त असत्य हैं, ऐसा
निश्चय करके तुमलोग अनुमान, सत्पुरुषोंद्वारा किये गये उपनिषदोंके श्रवण और तीक्ष्ण
ज्ञानखड्गके द्वारा सकल संशयोंके आधार अहंकारका छेदन करके हृदयमें स्थित मुझ
परमात्माका भजन करो ॥ ३३ ॥
यह जगत् मनका विलास है, दीखनेपर भी नष्टप्राय है, अलातचक्र (लुकारियोंकी बनेठी) के समान अत्यन्त चञ्चल है और
भ्रममात्र है—ऐसा समझे। ज्ञाता और ज्ञेयके भेदसे रहित एक ज्ञानस्वरूप आत्मा ही
अनेक-सा प्रतीत हो रहा है। यह स्थूल शरीर इन्द्रिय और अन्त:-करणरूप तीन प्रकारका
विकल्प गुणोंके परिणामकी रचना है और स्वप्नके समान मायाका खेल है, अज्ञानसे कल्पित है ॥ ३४ ॥ इसलिये उस देहादिरूप दृश्यसे दृष्टि
हटाकर तृष्णारहित इन्द्रियोंके व्यापारसे हीन और निरीह होकर आत्मानन्दके अनुभवमें
मग्र हो जाय। यद्यपि कभी-कभी आहार आदिके समय यह देहादिक प्रपञ्च देखनेमें आता है, तथापि यह पहले ही आत्मवस्तुसे अतिरिक्त और मिथ्या समझकर छोड़ा जा
चुका है। इसलिये वह पुन: भ्रान्तिमूलक मोह उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं हो सकता ।
देहपातपर्यन्त केवल संस्कारमात्र उसकी प्रतीति होती है ॥ ३५ ॥ जैसे मदिरा पीकर
उन्मत्त पुरुष यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीरपर है या गिर गया, वैसे ही सिद्ध पुरुष जिस शरीरसे उसने अपने स्वरूपका साक्षात्कार
किया है, वह प्रारब्धवश खड़ा है, बैठा है या दैववश कहीं गया या आया है—नश्वर शरीरसम्बन्धी इन
बातोंपर दृष्टि नहीं डालता ॥ ३६ ॥ प्राण और इन्द्रियोंके साथ यह शरीर भी
प्रारब्धके अधीन है। इसलिये अपने आरम्भक (बनानेवाले) कर्म जबतक हैं, तबतक उनकी प्रतीक्षा करता ही रहता है। परन्तु आत्मवस्तुका
साक्षात्कार करनेवाला तथा समाधिपर्यन्त योगमें आरूढ़ पुरुष, स्त्री, पुत्र, धन
आदि प्रपञ्चके सहित उस शरीरको फिर कभी स्वीकार नहीं करता,
अपना नहीं मानता, जैसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नावस्थाके शरीर आदिको ॥ ३७ ॥ सनकादि ऋषियो
! मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सांख्य और योग दोनोंका गोपनीय रहस्य है। मैं स्वयं भगवान् हूँ, तुमलोगोंको तत्त्वज्ञानका उपदेश करनेके लिये ही यहाँ आया हूँ, ऐसा समझो ॥ ३८ ॥ विप्रवरो ! मैं योग,
सांख्य, सत्य, ऋत
(मधुरभाषण), तेज, श्री, कीर्ति और दम (इन्द्रियनिग्रह)—इन सबकी परम गति—परम अधिष्ठान हूँ ॥
३९ ॥ मैं समस्त गुणोंसे रहित हूँ और किसीकी अपेक्षा नहीं रखता। फिर भी साम्य, असङ्गता आदि सभी गुण मेरा ही सेवन करते हैं, मुझमें ही प्रतिष्ठित हैं;
क्योंकि मैं सबका हितैषी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हूँ। सच पूछो तो उन्हें गुण कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वे सत्त्वादि गुणोंके परिणाम नहीं हैं और नित्य हैं ॥ ४० ॥
प्रिय उद्धव ! इस प्रकार मैंने
सनकादि मुनियोंके संशय मिटा दिये। उन्होंने परम भक्तिसे मेरी पूजा की और
स्तुतियोंद्वारा मेरी महिमाका गान किया ॥ ४१ ॥ जब उन परमर्षियोंने भली- भाँति मेरी
पूजा और स्तुति कर ली, तब
मैं ब्रह्माजीके सामने ही अदृश्य होकर अपने धाममें लौट आया ॥ ४२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
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