मंगलवार, 23 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

हंसरूप से सनकादि को दिये हुए उपदेश का वर्णन

 

 श्रीभगवानुवाच -

 सत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न च आत्मनः ।

 सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात् सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि ॥ १ ॥

 सत्त्वात् धर्मो भवेद्‍ वृद्धात् पुंसो मद्‍भक्तिलक्षणः ।

 सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्मः प्रवर्तते ॥ २ ॥

 धर्मो रजस्तमो हन्यात् सत्त्ववृद्धिः अनुत्तमः ।

 आशु नश्यति तन्मूलो ह्यधर्म उभये हते ॥ ३ ॥

 आगमोपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च ।

 ध्यानं मंत्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः ॥ ४ ॥

 तत् तत् सात्त्विकमेवैषां यद् यद् वृद्धाः प्रचक्षते ।

 निन्दन्ति तामसं तत्तद् राजसं तद् उपेक्षितम् ॥ ५ ॥

 सात्त्विकान्येव सेवेत पुमान् सत्त्वविवृद्धये ।

 ततो धर्मस्ततो ज्ञानं यावत् स्मृतिरपोहनम् ॥ ६ ॥

 वेणुसङ्घर्षजो वह्निः दग्ध्वा शाम्यति तद्‌वनम् ।

 एवं गुणव्यत्ययजो, देहः शाम्यति तत्क्रियः ॥ ७ ॥

 

 श्रीउद्धव उवाच -

 विदन्ति मर्त्याः प्रायेण विषयान् पदमापदाम् ।

 तथापि भुञ्जते कृष्ण तत्कथं श्वखराजवत् ॥ ८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 अहमित्यन्यथा बुद्धिः प्रमत्तस्य यथा हृदि ।

 उत्सर्पति रजो घोरं ततो वैकारिकं मनः ॥ ९ ॥

 रजोयुक्तस्य मनसः सङ्कल्पः सविकल्पकः ।

 ततः कामो गुणध्यानाद् दुःसहः स्याद् हि दुर्मतेः ॥ १० ॥

 करोति कामवशगः कर्माण्यविजितेन्द्रियः ।

 दुःखोदर्काणि संपश्यन् रजोवेग विमोहितः ॥ ११ ॥

 रजस्तमोभ्यां यदपि विद्वान् विक्षिप्तधीः पुनः ।

 अतंद्रितो मनो युञ्जन् दोषदृष्टिर्न सज्जते ॥ १२ ॥

 अप्रमत्तोऽनुयुञ्जीत मनो मय्यर्पयन् शनैः ।

 अनिर्विण्णो यथाकालं जितश्वासो जितासनः ॥ १३ ॥

 एतावान् योग आदिष्टो मच्छिष्यैः सनकादिभिः ।

 सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धाऽऽवेश्यते यथा ॥ १४ ॥

 

 श्रीउद्धव उवाच -

 यदा त्वं सनकादिभ्यो येन रूपेण केशव ।

 योगमादिष्टवानेतद् रूपमिच्छामि वेदितुम् ॥ १५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 पुत्रा हिरण्यगर्भस्य मानसाः सनकादयः ।

 पप्रच्छुः पितरं सूक्ष्मां योगस्यैकान्तिकीं गतिम् ॥ १६ ॥

 

 सनकादय ऊचुः -

 गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रभो ।

 कथमन्योन्य संत्यागो मुमुक्षोः अतितितीर्षोः ॥ १७ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

एवं पृष्टो महादेवः स्वयंभूः भूतभावनः ।

 ध्यायमानः प्रश्नबीजं नाभ्यपद्यत कर्मधीः ॥ १८ ॥

 स मामचिन्तयद् देवः प्रश्नपारतितीर्षया ।

 तस्याहं हंसरूपेण सकाशमगमं तदा ॥ १९ ॥

 दृष्ट्वा मां त उपव्रज्य कृत्वा पादाभिवन्दनम् ।

 ब्रह्मामग्रतः कृत्वा पप्रच्छुः को भवान् इति ॥ २० ॥

 इत्यहं मुनिभिः पृष्टः तत्त्वजिज्ञासुभिस्तदा ।

 यदवोचमहं तेभ्यः तद् उद्धव निबोध मे ॥ २१ ॥

 वस्तुनो यद्यनानात्वमात्मनः प्रश्न ईदृशः ।

 कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा मे क आश्रयः ॥ २२ ॥

 पञ्चात्मकेषु भूतेषु समानेषु च वस्तुतः ।

 को भवानिति वः प्रश्नो वाचारम्भो ह्यनर्थकः ॥ २३ ॥

 मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैः अपीन्द्रियैः ।

 अहमेव न मत्तोऽन्यत् इति बुध्यध्वमञ्जसा ॥ २४ ॥

 गुणेषु आविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रजाः ।

 जीवस्य देह उभयं गुणाश्चेतो मदात्मनः ॥ २५ ॥

 गुणेषु च आविशत् चित्तमभीक्ष्णं गुणसेवया ।

 गुणाश्च चित्तप्रभवा मद्‌रूप उभयं त्यजेत् ॥ २६ ॥

 जाग्रत् स्वप्नः सुषुप्तं च, गुणतो बुद्धिवृत्तयः ।

 तासां विलक्षणो जीवः साक्षित्वेन विनिश्चितः ॥ २७ ॥

 यर्हि संसृतिबन्धोऽयं आत्मनो गुणवृत्तिदः ।

 मयि तुर्ये स्थितो जह्यात् त्यागः तद् गुणचेतसाम् ॥ २८ ॥

 अहङ्कारकृतं बन्धं आत्मनोऽर्थविपर्ययम् ।

 विद्वान् निर्विद्य संसारचिन्तां तुर्ये स्थितः त्यजेत् ॥ २९ ॥

 यावत् नानार्थधीः पुंसो, न निवर्तेत युक्तिभिः ।

 जागर्ति अपि स्वपन् अज्ञः स्वप्ने जागरणं यथा ॥ ३० ॥

 असत्त्वाद् आत्मनोऽन्येषां भावानां तत्कृता भिदा ।

 गतयो हेतवश्चास्य मृषा स्वप्नदृशो यथा ॥ ३१ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! सत्त्व, रज और तम—ये तीनों बुद्धि (प्रकृति) के गुण हैं, आत्माके नहीं। सत्त्वके द्वारा रज और तम—इन दो गुणोंपर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये। तदनन्तर सत्त्वगुणकी शान्तवृत्तिके द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियोंको भी शान्त कर देना चाहिये ॥ १ ॥ जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है, तभी जीवको मेरे भक्तिरूप स्वधर्मकी प्राप्ति होती है। निरन्तर सात्त्विक वस्तुओंका सेवन करनेसे ही सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है और तब मेरे भक्तिरूप स्वधर्ममें प्रवृत्ति होने लगती है ॥ २ ॥ जिस धर्मके पालनसे सत्त्वगुणकी वृद्धि हो, वही सबसे श्रेष्ठ है। वह धर्म रजोगुण और तमोगुणको नष्ट कर देता है। जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब उन्हींके कारण होनेवाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता है ॥ ३ ॥ शास्त्र, जल, प्रजाजन, देश, समय, कर्म, जन्म, ध्यान, मन्त्र और संस्कार— ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुणकी, राजसिक हों तो रजोगुणकी और तामसिक हों तो तमोगुणकी वृद्धि करती हैं ॥ ४ ॥ इनमेंसे शास्त्रज्ञ महात्मा जिनकी प्रशंसा करते हैं, वे सात्त्विक हैं, जिनकी निन्दा करते हैं, वे तामसिक हैं और जिनकी उपेक्षा करते हैं, वे वस्तुएँ राजसिक हैं ॥ ५ ॥ जबतक अपने आत्माका साक्षात्कार तथा स्थूल-सूक्ष्म शरीर और उनके कारण तीनों गुणोंकी निवृत्ति न हो, तबतक मनुष्यको चाहिये कि सत्त्वगुणकी वृद्धिके लिये सात्त्विक शास्त्र आदिका ही सेवन करें; क्योंकि उससे धर्मकी वृद्धि होती है और धर्मकी वृद्धिसे अन्त:करण शुद्ध होकर आत्मतत्त्वका ज्ञान होता है ॥ ६ ॥ बाँसोंकी रगड़से आग पैदा होती है और वह उनके सारे वनको जलाकर शान्त हो जाती है। वैसे ही यह शरीर गुणोंके वैषम्यसे उत्पन्न हुआ है। विचारद्वारा मन्थन करनेपर इससे ज्ञानाग्रि प्रज्वलित होती है और वह समस्त शरीरों एवं गुणोंको भस्म करके स्वयं भी शान्त हो जाती है ॥ ७ ॥

उद्धवजीने पूछा—भगवन् ! प्राय: सभी मनुष्य इस बातको जानते हैं कि विषय विपत्तियोंके घर हैं; फिर भी वे कुत्ते, गधे और बकरेके समान दु:ख सहन करके भी उन्हींको ही भोगते रहते हैं। इसका क्या कारण है? ॥ ८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! जीव जब अज्ञानवश अपने स्वरूपको भूलकर हृदयसे सूक्ष्म-स्थूलादि शरीरोंमें अहंबुद्धि कर बैठता है—जो कि सर्वथा भ्रम ही है—तब उसका सत्त्वप्रधान मन घोर रजोगुणकी ओर झुक जाता है; उससे व्याप्त हो जाता है ॥ ९ ॥ बस, जहाँ मनमें रजोगुणकी प्रधानता हुई कि उसमें संकल्प-विकल्पोंका ताँता बँध जाता है। अब वह विषयोंका चिन्तन करने लगता है और अपनी दुर्बुद्धिके कारण कामके फंदेमें फँस जाता है, जिससे फिर छुटकारा होना बहुत ही कठिन है ॥ १० ॥ अब वह अज्ञानी कामवश अनेकों प्रकारके कर्म करने लगता है और इन्द्रियोंके वश होकर, यह जानकर भी कि इन कर्मोंका अन्तिम फल दु:ख ही है, उन्हींको करता है, उस समय वह रजोगुणके तीव्र वेगसे अत्यन्त मोहित रहता है ॥ ११ ॥ यद्यपि विवेकी पुरुषका चित्त भी कभी-कभी रजोगुण और तमोगुणके वेगसे विक्षिप्त होता है, तथापि उसकी विषयोंमें दोषदृष्टि बनी रहती है; इसलिये वह बड़ी सावधानीसे अपने चित्तको एकाग्र करनेकी चेष्टा करता रहता है, जिससे उसकी विषयोंमें आसक्ति नहीं होती ॥ १२ ॥ साधकको चाहिये कि आसन और है। फिर ‘यह करो, यह मत करो’ इस प्रकारके विधि-निषेधका अधिकार होता है। तब ‘अन्त:करणकी शुद्धिके लिये कर्म करो’—यह बात कही जाती है। जब अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, तब कर्मसम्बन्धी दुराग्रह मिटानेके लिये यह बात कही जाती है कि भक्तिमें विक्षेप डालनेवाले कर्मोंके प्रति आदरभाव छोडक़र दृढ़ विश्वाससे भजन करो। तत्त्वज्ञान हो जानेपर कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। यही इस प्रसङ्गका अभिप्राय है। प्राणवायुपर विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति और समयके अनुसार बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे मुझमें अपना मन लगावे और इस प्रकार अभ्यास करते समय अपनी असफलता देखकर तनिक भी ऊबे नहीं, बल्कि और भी उत्साहसे उसीमें जुड़ जाय ॥ १३ ॥ प्रिय उद्धव ! मेरे शिष्य सनकादि परमर्षियोंने योगका यही स्वरूप बताया है कि साधक अपने मनको सब ओरसे खींचकर विराट् आदिमें नहीं, साक्षात् मुझमें ही पूर्णरूपसे लगा दें ॥ १४ ॥

उद्धवजीने कहा—श्रीकृष्ण ! आपने जिस समय जिस रूपसे, सनकादि परमर्षियोंको योगका आदेश दिया था, उस रूपको मैं जानना चाहता हूँ ॥ १५ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! सनकादि परमर्षि ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। उन्होंने एक बार अपने पिता   से योग  की सूक्ष्म अन्तिम सीमाके सम्बन्धमें इस प्रकार प्रश्र किया था ॥ १६ ॥

सनकादि परमर्षियोंने पूछा—पिताजी ! चित्त गुणों अर्थात् विषयोंमें घुसा ही रहता है और गुण भी चित्तकी एक-एक वृत्तिमें प्रविष्ट रहते ही हैं। अर्थात् चित्त और गुण आपस में मिले-जुले ही रहते हैं। ऐसी स्थितिमें जो पुरुष इस संसारसागर से पार होकर मुक्तिपद प्राप्त करना चाहता है, वह इन दोनोंको एक-दूसरेसे अलग कैसे कर सकता है ? ॥ १७ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! यद्यपि ब्रह्माजी सब देवताओंके शिरोमणि, स्वयम्भू और प्राणियोंके जन्मदाता हैं। फिर भी सनकादि परमर्षियोंके इस प्रकार पूछनेपर ध्यान करके भी वे इस प्रश्न का मूलकारण न समझ सके; क्योंकि उनकी बुद्धि कर्मप्रवण थी ॥ १८ ॥ उद्धव ! उस समय ब्रह्माजीने इस प्रश्न का उत्तर देनेके लिये भक्तिभावसे मेरा चिन्तन किया । तब मैं हंसका रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हुआ ॥ १९ ॥ मुझे देखकर सनकादि ब्रह्माजीको आगे करके मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणोंकी वन्दना करके मुझसे पूछा कि ‘आप कौन हैं ?’ ॥ २० ॥ प्रिय उद्धव ! सनकादि परमार्थतत्त्व के जिज्ञासु थे; इसलिये उनके पूछनेपर उस समय मैंने जो कुछ कहा वह तुम मुझसे सुनो— ॥ २१ ॥ ‘ब्राह्मणो ! यदि परमार्थरूप वस्तु नानात्वसे सर्वथा रहित है, तब आत्मा के सम्बन्धमें आप लोगोंका ऐसा प्रश्र कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? अथवा मैं यदि उत्तर देनेके लिये बोलूँ भी तो किस जाति, गुण, क्रिया और सम्बन्ध आदिका आश्रय लेकर उत्तर दूँ ? ॥ २२ ॥ देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी शरीर पञ्चभूतात्मक होनेके कारण अभिन्न ही हैं और परमार्थरूपसे भी अभिन्न हैं। ऐसी स्थितिमें ‘आप कौन हैं?’ आप लोगोंका यह प्रश्न ही केवल वाणीका व्यवहार है। विचारपूर्वक नहीं है, अत: निरर्थक है ॥ २३ ॥ मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ, मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धान्त आप लोग तत्त्वविचारके द्वारा समझ लीजिये ॥ २४ ॥ पुत्रो ! यह चित्त चिन्तन करते-करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्तमें प्रविष्ट हो जाते हैं, यह बात सत्य है, तथापि विषय और चित्त ये दोनों ही मेरे स्वरूपभूत जीवके देह हैं—उपाधि हैं। अर्थात् आत्माका चित्त और विषयके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है ॥ २५ ॥ इसलिये बार-बार विषयोंका सेवन करते रहनेसे जो चित्त विषयोंमें आसक्त हो गया है और विषय भी चित्तमें प्रविष्ट हो गये हैं, इन दोनोंको अपने वास्तविकसे अभिन्न मुझ परमात्माका साक्षात्कार करके त्याग देना चाहिये ॥ २६ ॥ जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ सत्त्वादि गुणोंके अनुसार होती हैं और बुद्धिकी वृत्तियाँ हैं, सच्चिदानन्दका स्वभाव नहीं। इन वृत्तियोंका साक्षी होनेके कारण जीव उनसे विलक्षण है। यह सिद्धान्त श्रुति, युक्ति और अनुभूतिसे युक्त है ॥ २७ ॥ क्योंकि बुद्धि-वृत्तियोंके द्वारा होनेवाला यह बन्धन ही आत्मामें त्रिगुणमयी वृत्तियोंका दान करता है। इसलिये तीनों अवस्थाओंसे विलक्षण और उनमें अनुगत मुझ तुरीय तत्त्वमें स्थित होकर इस बुद्धिके बन्धनका परित्याग कर दे। तब विषय और चित्त दोनोंका युगपत् त्याग हो जाता है ॥ २८ ॥ यह बन्धन अहङ्कारकी ही रचना है और यही आत्माके परिपूर्णतम सत्य, अखण्डज्ञान और परमानन्दस्वरूपको छिपा देता है। इस बातको जानकर विरक्त हो जाय। और अपने तीन अवस्थाओंमें अनुगत तुरीयस्वरूपमें होकर संसारकी चिन्ताको छोड़ दे ॥ २९ ॥ जबतक पुरुषकी भिन्न-भिन्न पदार्थोंमें सत्यत्वबुद्धि, अहंबुद्धि और ममबुद्धि युक्तियोंके द्वारा निवृत्त नहीं हो जाती, तबतक वह अज्ञानी यद्यपि जागता है तथापि सोता हुआ-सा रहता है—जैसे स्वप्नावस्थामें जान पड़ता है कि मैं जाग रहा हूँ ॥ ३० ॥ आत्मासे अन्य देह आदि प्रतीयमान नामरूपात्मक प्रपञ्चका कुछ भी अस्तित्व नहीं है। इसलिये उनके कारण होनेवाले वर्णाश्रमादिभेद, स्वर्गादि फल और उनके कारणभूत कर्म—ये सब-के-सब इस आत्माके लिये वैसे ही मिथ्या हैं; जैसे स्वप्नदर्शी पुरुषके द्वारा देखे हुए सब-के-सब पदार्थ ॥ ३१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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