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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
सत्सङ्ग की महिमा और कर्म तथा
कर्मत्याग की विधि
श्रीउद्धव
उवाच
संशयः
शृण्वतो वाचं तव योगेश्वरेश्वर
न
निवर्तत आत्मस्थो येन भ्राम्यति मे मनः १६
श्रीभगवानुवाच
स
एष जीवो विवरप्रसूतिः
प्राणेन
घोषेण गुहां प्रविष्टः
मनोमयं
सूक्ष्ममुपेत्य रूपं
मात्रा
स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठः १७
यथानलः
खेऽनिलबन्धुरुष्मा
बलेन
दारुण्यधिमथ्यमानः
अणुः
प्रजातो हविषा समेधते
तथैव
मे व्यक्तिरियं हि वाणी १८
एवं
गदिः कर्म गतिर्विसर्गो
घ्राणो
रसो दृक्स्पर्शः श्रुतिश्च
सङ्कल्पविज्ञानमथाभिमानः
सूत्रं
रजःसत्त्वतमोविकारः १९
अयं
हि जीवस्त्रिवृदब्जयोनि-
रव्यक्त
एको वयसा स आद्यः
विश्लिष्टशक्तिर्बहुधेव
भाति
बीजानि
योनिं प्रतिपद्य यद्वत् २०
यस्मिन्निदं
प्रोतमशेषमोतं
पटो
यथा तन्तुवितानसंस्थः
य
एष संसारतरुः पुराणः
कर्मात्मकः
पुष्पफले प्रसूते २१
द्वे
अस्य बीजे शतमूलस्त्रिनालः
पञ्चस्कन्धः
पञ्चरसप्रसूतिः
दशैकशाखो
द्विसुपर्णनीड-
स्त्रिवल्कलो
द्विफलोऽर्कं प्रविष्टः २२
अदन्ति
चैकं फलमस्य गृध्रा
ग्रामेचरा
एकमरण्यवासाः
हंसा
य एकं बहुरूपमिज्यैर्मा-
यामयं
वेद स वेद वेदम् २३
एवं
गुरूपासनयैकभक्त्या
विद्याकुठारेण
शितेन धीरः
विवृश्च्य
जीवाशयमप्रमत्तः
सम्पद्य
चात्मानमथ त्यजास्त्रम् २४
उद्धवजीने कहा—सनकादि योगेश्वरोंके
भी परमेश्वर प्रभो ! यों तो मैं आपका उपदेश सुन रहा हूँ,
परन्तु इससे मेरे मनका सन्देह मिट नहीं रहा है। मुझे स्वधर्मका
पालन करना चाहिये या सब कुछ छोडक़र आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिये, मेरा मन इसी दुविधामें लटक रहा है। आप कृपा करके मुझे भली-भाँति
समझाइये ॥ १६ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय
उद्धव ! जिस परमात्माका परोक्षरूपसे वर्णन किया जाता है,
वे साक्षात् अपरोक्ष—प्रत्यक्ष ही हैं,
क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओंको सत्ता-स्फूर्ति—जीवन-दान करनेवाले
हैं, वे ही पहले अनाहत नादस्वरूप परा वाणी नामक प्राणके साथ
मूलाधारचक्रमें प्रवेश करते हैं। उसके बाद मणिपूरकचक्र (नाभिस्थान) में आकर
पश्यन्ती वाणीका मनोमय सूक्ष्मरूप धारण करते हैं। तदनन्तर कण्ठदेशमें स्थित
विशुद्ध नामक चक्रमें आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणीके रूपमें व्यक्त होते हैं। फिर
क्रमश: मुखमें आकर ह्रस्व-दीर्घादि मात्रा,
उदात्त-अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्णरूप स्थूल—वैखरी वाणीका
रूप ग्रहण कर लेते हैं ॥ १७ ॥ अग्रि आकाशमें ऊष्मा अथवा विद्युत्के रूपसे
अव्यक्तरूपमें स्थित है। जब बलपूर्वक काष्ठमन्थन किया जाता है, तब वायुकी सहायतासे वह पहले अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारीके रूपमें
प्रकट होती है और फिर आहुति देनेपर प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है, वैसे ही मैं भी शब्दब्रह्मस्वरूपसे क्रमश: परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणीके रूपमें प्रकट होता हूँ ॥ १८ ॥ इसी प्रकार
बोलना, हाथोंसे काम करना, पैरोंसे चलना, मूत्रेन्द्रिय तथा गुदासे मल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छूना, सुनना, मनसे संकल्प- विकल्प करना,
बुद्धिसे समझना, अहङ्कारके द्वारा अभिमान करना,
महत्तत्त्वके रूपमें सबका ताना- बाना बुनना तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणके सारे विकार कहाँतक कहूँ—समस्त कर्ता, कारण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ हैं ॥ १९ ॥ यह सबको जीवित
करनेवाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड-कमलका कारण है। यह आदि-पुरुष पहले
एक और अव्यक्त था। जैसे उपजाऊ खेतमें बोया हुआ बीज शाखा-पत्र-पुष्पादि अनेक रूप
धारण कर लेता है, वैसे
ही कालगतिसे मायाका आश्रय लेकर शक्ति-विभाजनके द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपोंमें
प्रतीत होने लगता है ॥ २० ॥ जैसे तागोंके ताने-बानेमें वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे ही यह सारा विश्व परमात्मामें ही ओतप्रोत है। जैसे सूतके बिना
वस्त्रका अस्तित्व नहीं है; किन्तु सूत वस्त्रके बिना भी रह सकता है,
वैसे ही इस जगत्के न रहनेपर भी परमात्मा रहता है; किन्तु यह जगत् परमात्मस्वरूप ही है— परमात्माके बिना इसका कोई
अस्तित्व नहीं है। यह संसारवृक्ष अनादि और प्रवाहरूपसे नित्य है। इसका स्वरूप ही
है—कर्मकी परम्परा तथा इस वृक्षके फल-फूल हैं—मोक्ष और भोग ॥ २१ ॥ इस संसारवृक्षके
दो बीज हैं—पाप और पुण्य। असंख्य वासनाएँ जड़ें हैं और तीन गुण तने हैं। पाँच भूत
इसकी मोटी-मोटी प्रधान शाखाएँ हैं और शब्दादि पाँच विषय रस हैं, ग्यारह इन्द्रियाँ शाखा हैं तथा जीव और ईश्वर—दो पक्षी इसमें
घोंसला बनाकर निवास करते हैं। इस वृक्षमें वात,
पित्त और कफरूप तीन तरहकी छाल है। इसमें दो तरहके फल लगते हैं—सुख
और दु:ख। यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डलतक फैला हुआ है (इस सूर्यमण्डलका भेदन कर
जानेवाले मुक्त पुरुष फिर संसार-चक्रमें नहीं पड़ते) ॥ २२ ॥ जो गृहस्थ शब्द-रूप-रस
आदि विषयोंमें फँसे हुए हैं, वे कामनासे भरे हुए होनेके कारण गीधके समान हैं। वे इस वृक्षका
दु:खरूप फल भोगते हैं, क्योंकि
वे अनेक प्रकारके कर्मोंके बन्धनमें फँसे रहते हैं। जो अरण्यवासी परमहंस विषयोंसे
विरक्त हैं, वे इस वृक्षमें राजहंसके समान हैं और वे इसका सुखरूप फल भोगते हैं।
प्रिय उद्धव ! वास्तवमें मैं एक ही हूँ। यह मेरा जो अनेकों प्रकारका रूप है, वह तो केवल मायामय है। जो इस बातको गुरुओंके द्वारा समझ लेता है, वही वास्तवमें समस्त वेदोंका रहस्य जानता है ॥ २३ ॥ अत: उद्धव !
तुम इस प्रकार गुरुदेवकी उपासनारूप अनन्य भक्तिके द्वारा अपने ज्ञानकी कुल्हाड़ीको
तीखी कर लो और उसके द्वारा धैर्य एवं सावधानीसे जीवभावको काट डालो। फिर
परमात्मस्वरूप होकर उस वृत्तिरूप अस्त्रोंको भी छोड़ दो और अपने अखण्ड स्वरूपमें
ही स्थित हो रहो ॥ २४ ॥ [*]
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे
द्वादशोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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