सोमवार, 22 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

सत्सङ्ग की महिमा और कर्म तथा कर्मत्याग की विधि

 

श्रीभगवानुवाच

न रोधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म एव च

न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा १

व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः

यथावरुन्धे सत्सङ्गः सर्वसङ्गापहो हि माम् २

सत्सङ्गेन हि दैतेया यातुधाना मृगाः खगाः

गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारणगुह्यकाः ३

विद्याधरा मनुष्येषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोऽन्त्यजाः

रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिंस्तस्मिन्युगे युगे ४

बहवो मत्पदं प्राप्तास्त्वाष्ट्रकायाधवादयः

वृषपर्वा बलिर्बाणो मयश्चाथ विभीषणः ५

सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृध्रो वणिक्पथः

व्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यो यज्ञपत्न्यस्तथापरे ६

ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः

अव्रतातप्ततपसः मत्सङ्गान्मामुपागताः ७

केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगाः

येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरञ्जसा ८

यं न योगेन साङ्ख्येन दानव्रततपोऽध्वरैः

व्याख्यास्वाध्यायसन्न्यासैः प्राप्नुयाद्यत्नवानपि ९

रामेण सार्धं मथुरां प्रणीते

श्वाफल्किना मय्यनुरक्तचित्ताः

विगाढभावेन न मे वियोग

तीव्राधयोऽन्यं ददृशुः सुखाय १०

तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता

मयैव वृन्दावनगोचरेण

क्षणार्धवत्ताः पुनरङ्ग तासां

हीना मया कल्पसमा बभूवुः ११

ता नाविदन्मय्यनुषङ्गबद्ध

धियः स्वमात्मानमदस्तथेदम्

यथा समाधौ मुनयोऽब्धितोये

नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे १२

मत्कामा रमणं जारमस्वरूपविदोऽबलाः

ब्रह्म मां परमं प्रापुः सङ्गाच्छतसहस्रशः १३

तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम्

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च १४

मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्

याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः १५

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! जगत्में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्सङ्ग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्सङ्ग जिस प्रकार मुझे वशमें कर लेता है वैसा साधन न योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय। तपस्या, त्याग, इष्टापूत्र्त और दक्षिणासे भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँतक कहूँ—व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्सङ्गके समान मुझे वशमें करनेमें समर्थ नहीं हैं ॥ १-२ ॥ निष्पाप उद्धवजी ! यह एक युगकी नहीं, सभी युगोंकी एक-सी बात है। सत्सङ्ग  के द्वारा ही दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण-गुह्यक और विद्याधरोंको मेरी प्राप्ति हुई है। मनुष्योंमें वैश्य, शूद्र, स्त्री और अन्त्यज आदि रजोगुणी-तमोगुणी प्रकृतिके बहुत-से जीवोंने मेरा परमपद प्राप्त किया है। वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, जाम्बवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रजकी गोपियाँ, यज्ञपत्नियाँ और दूसरे लोग भी सत्सङ्गके प्रभावसे ही मुझे प्राप्त कर सके हैं ॥ ३—६ ॥ उन लोगोंने न तो वेदोंका स्वाध्याय किया था और न विधिपूर्वक महापुरुषोंकी उपासना की थी। इसी प्रकार उन्होंने कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत और कोई तपस्या भी नहीं की थी। बस, केवल सत्सङ्गके प्रभावसे ही वे मुझे प्राप्त हो गये ॥ ७ ॥ गोपियाँ, गायें, यमलार्जुन आदि वृक्ष, व्रजके हरिन आदि पशु, कालिय आदि नाग—ये तो साधन-साध्यके सम्बन्धमें सर्वथा ही मूढ़बुद्धि थे। इतने ही नहीं, ऐसे-ऐसे और भी बहुत हो गये हैं, जिन्होंने केवल प्रेमपूर्ण भावके द्वारा ही अनायास मेरी प्राप्ति कर ली और कृतकृत्य हो गये ॥ ८ ॥ उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियोंकी व्याख्या, स्वाध्याय और संन्यास आदि साधनोंके द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते; परन्तु सत्सङ्गके द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ ॥ ९ ॥ उद्धव ! जिस समय अक्रूरजी भैया बलरामजीके साथ मुझे व्रजसे मथुरा ले आये, उस समय गोपियोंका हृदय गाढ़ प्रेमके कारण मेरे अनुरागके रंगमें रँगा हुआ था। मेरे वियोगकी तीव्र व्याधिसे वे व्याकुल हो रही थीं और मेरे अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उन्हें सुखकारक नहीं जान पड़ती थी ॥ १० ॥ तुम जानते हो कि मैं ही उनका एकमात्र प्रियतम हूँ। जब मैं वृन्दावनमें था, तब उन्होंने बहुत-सी रात्रियाँ—वे रासकी रात्रियाँ मेरे साथ आधे क्षणके समान बिता दी थीं; परन्तु प्यारे उद्धव ! मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये एक-एक कल्पके समान हो गयीं ॥ ११ ॥ जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि समाधिमें स्थित होकर तथा गङ्गा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्रमें मिलकर अपने नाम-रूप खो देती हैं, वैसे ही वे गोपियाँ परम प्रेमके द्वारा मुझमें इतनी तन्मय हो गयी थीं कि उन्हें लोक-परलोक, शरीर और अपने कहलानेवाले पति-पुत्रादिकी भी सुध-बुध नहीं रह गयी थी ॥ १२ ॥ उद्धव ! उन गोपियोंमें बहुत-सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक स्वरूपको नहीं जानती थीं। वे मुझे भगवान्‌ न जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जारभावसे मुझसे मिलनेकी आकांक्षा किया करती थीं। उन साधनहीन सैकड़ों, हजारों अबलाओंने केवल सङ्गके प्रभावसे ही मुझ परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लिया ॥ १३ ॥ इसलिये उद्धव ! तुम श्रुति-स्मृति, विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति और सुननेयोग्य तथा सुने हुए विषयका भी परित्याग करके सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियोंके आत्मस्वरूप मुझ एककी ही शरण सम्पूर्ण रूपसे ग्रहण करो; क्योंकि मेरी शरणमें आ जानेसे तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे ॥ १४-१५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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