॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
गुण-दोष-व्यवस्था का स्वरूप और
रहस्य
श्रीभगवानुवाच
य
एतान्मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान्
क्षुद्रान्कामांश्चलैः
प्राणैर्जुषन्तः संसरन्ति ते १
स्वे
स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः
विपर्ययस्तु
दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः २
शुद्ध्यशुद्धी
विधीयेते समानेष्वपि वस्तुषु
द्रव्यस्य
विचिकित्सार्थं गुणदोषौ शुभाशुभौ
धर्मार्थं
व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चानघ ३
दर्शितोऽयं
मयाचारोधर्ममुद्वहतां धुरम् ४
भूम्यम्ब्वग्न्यनिलाकाशा
भूतानां पञ्चधातवः
आब्रह्मस्थावरादीनां
शारीरा आत्मसंयुताः ५
वेदेन
नामरूपाणि विषमाणि समेष्वपि
धातुषूद्धव
कल्प्यन्त एतेषां स्वार्थसिद्धये ६
देशकालादिभावानां
वस्तूनां मम सत्तम
गुणदोषौ
विधीयेते नियमार्थं हि कर्मणाम् ७
अकृष्णसारो
देशानामब्रह्मण्योऽशुचिर्भवेत्
कृष्णसारोऽप्यसौवीर
कीकटासंस्कृतेरिणम् ८
कर्मण्यो
गुणवान्कालो द्रव्यतः स्वत एव वा
यतो
निवर्तते कर्म स दोषोऽकर्मकः स्मृतः ९
द्रव्यस्य
शुद्ध्यशुद्धी च द्रव्येण वचनेन च
संस्कारेणाथ
कालेन महत्वाल्पतयाथ वा १०
शक्त्याशक्त्याथ
वा बुद्ध्या समृद्ध्या च यदात्मने
अघं
कुर्वन्ति हि यथा देशावस्थानुसारतः ११
धान्यदार्वस्थितन्तूनां
रसतैजसचर्मणाम्
कालवाय्वग्निमृत्तोयैः
पार्थिवानां युतायुतैः १२
अमेध्यलिप्तं
यद्येन गन्धलेपं व्यपोहति
भजते
प्रकृतिं तस्य तच्छौचं तावदिष्यते १३
स्नानदानतपोऽवस्था
वीर्यसंस्कारकर्मभिः
मत्स्मृत्या
चात्मनः शौचं शुद्धः कर्माचरेद्द्विजः १४
मन्त्रस्य
च परिज्ञानं कर्मशुद्धिर्मदर्पणम्
धर्मः
सम्पद्यते षड्भिरधर्मस्तु विपर्ययः १५
क्वचिद्गुणोऽपि
दोषः स्याद्दोषोऽपि विधिना गुणः
गुणदोषार्थनियमस्तद्भिदामेव
बाधते १६
समानकर्माचरणं
पतितानां न पातकम्
औत्पत्तिको
गुणः सङ्गो न शयानः पतत्यधः १७
यतो
यतो निवर्तेत विमुच्येत ततस्ततः
एष
धर्मो नृणां क्षेमः शोकमोहभयापहः १८
विषयेषु
गुणाध्यासात्पुंसः सङ्गस्ततो भवेत्
सङ्गात्तत्र
भवेत्कामः कामादेव कलिर्नृणाम् १९
कलेर्दुर्विषहः
क्रोधस्तमस्तमनुवर्तते
तमसा
ग्रस्यते पुंसश्चेतना व्यापिनी द्रुतम् २०
तया
विरहितः साधो जन्तुः शून्याय कल्पते
ततोऽस्य
स्वार्थविभ्रंशो मूर्च्छितस्य मृतस्य च २१
विषयाभिनिवेशेन
नात्मानं वेद नापरम्
वृक्ष
जीविकया जीवन्व्यर्थं भस्त्रेव यः श्वसन् २२
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय
उद्धव ! मेरी प्राप्तिके तीन मार्ग हैं—भक्तियोग,
ज्ञानयोग और कर्मयोग। जो इन्हें छोडक़र चञ्चल इन्द्रियोंके द्वारा
क्षुद्र भोग भोगते रहते हैं, वे बार-बार जन्म- मृत्युरूप संसारके चक्करमें भटकते रहते हैं ॥ १ ॥
अपने-अपने अधिकारके अनुसार धर्ममें दृढ़ निष्ठा रखना ही गुण कहा गया है और इसके
विपरीत अनधिकार चेष्टा करना दोष है। तात्पर्य यह कि गुण और दोष दोनोंकी व्यवस्था
अधिकारके अनुसार की जाती है, किसी वस्तुके अनुसार नहीं ॥ २ ॥ वस्तुओंके समान होनेपर भी
शुद्धि-अशुद्धि, गुण-दोष और शुभ-अशुभ आदिका जो विधान किया जाता है, उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थका ठीक-ठीक निरीक्षण-परीक्षण हो सके
और उनमें सन्देह उत्पन्न करके ही यह योग्य है कि अयोग्य,
स्वाभाविक प्रवृत्तिको नियन्ङ्क्षत्रत— संकुचित किया जा सके ॥ ३ ॥
उनके द्वारा धर्म-सम्पादन कर सके, समाजका व्यवहार ठीक-ठीक चला सके और अपने व्यक्तिगत जीवनके
निर्वाहमें भी सुविधा हो। इससे यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासनामूलक सहज
प्रवृत्तियोंके द्वारा इनके जालमें न फँसकर शास्त्रानुसार अपने जीवनको नियन्त्रित
और मनको वशीभूत कर लेता है। निष्पाप उद्धव ! यह आचार मैंने ही मनु आदिका रूप धारण
करके धर्मका भार ढोनेवाले कर्मजडोंके लिये उपदेश किया है ॥ ४ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश—ये
पञ्चभूत ही ब्रह्मासे लेकर पर्वत-वृक्षपर्यन्त सभी प्राणियोंके शरीरोंके मूलकारण हैं।
इस तरह वे सब शरीरकी दृष्टिसे तो समान हैं ही,
सबका आत्मा भी एक ही है ॥ ५ ॥ प्रिय उद्धव ! यद्यपि सबके शरीरोंके
पञ्चभूत समान हैं; फिर
भी वेदोंने इनके वर्णाश्रम आदि अलग- अलग नाम और रूप इसलिये बना दिये हैं कि ये
अपनी वासना-मूलक प्रवृत्तियोंको संकुचित करके—नियन्त्रित करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंको सिद्ध कर सकें ॥ ६ ॥ साधुश्रेष्ठ !
देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओंके गुण-दोषोंका विधान भी मेरे द्वारा
इसीलिये किया गया है कि कर्मोंमें लोगोंकी उच्छृङ्खल प्रवृत्ति न हो, मर्यादाका भङ्ग न होने पावे ॥ ७ ॥ देशोंमें वह देश अपवित्र है, जिसमें कृष्णसार मृग न हों और जिसके निवासी ब्राह्मणभक्त न हों।
कृष्णसार मृगके होनेपर भी, केवल उन प्रदेशोंको छोडक़र जहाँ संत पुरुष रहते हैं, कीकट देश अपवित्र ही है। संस्काररहित और ऊसर आदि स्थान भी अपवित्र
ही होते हैं ॥ ८ ॥ समय वही पवित्र है, जिसमें कर्म करनेयोग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म भी हो सके। जिसमें
कर्म करनेकी सामग्री न मिले आगन्तुक दोषोंसे अथवा स्वाभाविक दोषके कारण जिसमें
कर्म ही न हो सके, वह
समय अशुद्ध है ॥ ९ ॥ पदार्थोंकी शुद्धि और अशुद्धि द्रव्य,
वचन, संस्कार, काल, महत्त्व
अथवा अल्पत्वसे भी होती है। (जैसे कोई पात्र जलसे शुद्ध और मूत्रादिसे अशुद्ध हो
जाता है। किसी वस्तुकी शुद्धि अथवा अशुद्धिमें शंका होनेपर ब्राह्मणोंके वचनसे वह
शुद्ध हो जाती है अन्यथा अशुद्ध रहती है। पुष्पादि जल छिडक़नेसे शुद्ध और सूँघने से
अशुद्ध माने जाते हैं। तत्कालका पकाया हुआ अन्न शुद्ध और बासी अशुद्ध माना जाता
है। बड़े सरोवर और नदी आदिका जल शुद्ध और छोटे गड्ढोंका अशुद्ध माना जाता है। इस
प्रकार क्रमसे समझ लेना चाहिये।) ॥ १० ॥ शक्ति,
अशक्ति, बुद्धि और वैभवके अनुसार भी पवित्रता और अपवित्रताकी व्यवस्था होती
है। उसमें भी स्थान और उपयोग करनेवालेकी आयुका विचार करते हुए ही अशुद्ध वस्तुओंके
व्यवहारका दोष ठीक तरहसे आँका जाता है। (जैसे धनी-दरिद्र,
बलवान्-निर्बल, बुद्धिमान्-मूर्ख, उपद्रवपूर्ण और सुखद देश तथा तरुण एवं वृद्धावस्थाके भेदसे शुद्धि
और अशुद्धिकी व्यवस्थामें अन्तर पड़ जाता है।) ॥ ११ ॥ अनाज, लकड़ी, हाथीदाँत
आदि हड्डी, सूत, मधु, नमक, तेल, घी आदि रस, सोना- पारा आदि तैजस पदार्थ,
चाम और घड़ा आदि मिट्टीके बने पदार्थ समयपर अपने-आप हवा लगनेसे, आगमें जलानेसे, मिट्टी लगानेसे अथवा जलमें धोनेसे शुद्ध हो जाते हैं। देश, काल और अवस्थाके अनुसार कहीं जल-मिट्टी आदि शोधक सामग्रीके संयोगसे
शुद्धि करनी पड़ती है तो कहीं-कहीं एक-एकसे भी शुद्धि हो जाती है ॥ १२ ॥ यदि किसी
वस्तुमें कोई अशुद्ध पदार्थ लग गया हो तो छीलनेसे या मिट्टी आदि मलनेसे जब उस
पदार्थकी गन्ध और लेप न रहे और वह वस्तु अपने पूर्वरूपमें आ जाय, तब उसको शुद्ध समझना चाहिये ॥ १३ ॥ स्नान,
दान, तपस्या, वय, सामथ्र्य, संस्कार, कर्म और मेरे स्मरणसे चित्तकी शुद्धि होती है। इनके द्वारा शुद्ध
होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको विहित कर्मोंका आचरण करना चाहिये ॥ १४ ॥
गुरुमुखसे सुनकर भलीभाँति हृदयङ्गम कर लेनेसे मन्त्रकी और मुझे समर्पित कर देनेसे
कर्मकी शुद्धि होती है। उद्धवजी ! इस प्रकार देश,
काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र
और कर्म—इन छहोंके शुद्ध होनेसे धर्म और अशुद्ध होनेसे अधर्म होता है ॥ १५ ॥
कहीं-कहीं शास्त्रविधिसे गुण दोष हो जाता है और दोष गुण। (जैसे ब्राह्मणके लिये
सन्ध्या-वन्दन, गायत्री-जप आदि गुण हैं; परन्तु शूद्रके लिये दोष हैं। और दूध आदिका व्यापार वैश्यके लिये
विहित है; परन्तु ब्राह्मणके लिये अत्यन्त निषिद्ध है।) एक ही वस्तुके
विषयमें किसीके लिये गुण और किसीके लिये दोषका विधान गुण और दोषोंकी वास्तविकताका
खण्डन कर देता है और इससे यह निश्चय होता है कि गुण-दोषका यह भेद कल्पित है ॥ १६ ॥
जो लोग पतित हैं, वे
पतितोंका-सा आचरण करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता,
जब कि श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये वह सर्वथा त्याज्य होता है। जैसे
गृहस्थोंके लिये स्वाभाविक होनेके कारण अपनी पत्नीका सङ्ग पाप नहीं है; परन्तु संन्यासीके लिये घोर पाप है। उद्धवजी ! बात तो यह है कि जो
नीचे सोया हुआ है, वह
गिरेगा कहाँ ? वैसे ही जो पहलेसे ही पतित हैं,
उनका अब और पतन क्या होगा ?
॥ १७ ॥ जिन-जिन दोषों और गुणोंसे मनुष्यका चित्त उपरत हो जाता है, उन्हीं वस्तुओंके बन्धनसे वह मुक्त हो जाता है। मनुष्योंके लिये यह
निवृत्तिरूप धर्म ही परम कल्याणका साधन है;
क्योंकि यही शोक, मोह और भयको मिटानेवाला है ॥ १८ ॥
उद्धवजी ! विषयोंमें कहीं भी
गुणोंका आरोप करनेसे उस वस्तुके प्रति आसक्ति हो जाती है। आसक्ति होनेसे उसे अपने
पास रखनेकी कामना हो जाती है और इस कामनाकी पूर्तिमें किसी प्रकारकी बाधा पडऩेपर
लोगोंमें परस्पर कलह होने लगता है ॥ १९ ॥ कलहसे असह्य क्रोधकी उत्पत्ति होती है और
क्रोधके समय अपने हित-अहितका बोध नहीं रहता,
अज्ञान छा जाता है। इस अज्ञानसे शीघ्र ही मनुष्यकी कार्याकार्यका
निर्णय करने-वाली व्यापक चेतनाशक्ति लुप्त हो जाती है ॥ २० ॥ साधो ! चेतनाशक्ति
अर्थात् स्मृतिके लुप्त हो जानेपर मनुष्यमें मनुष्यता नहीं रह जाती, पशुता आ जाती है और वह शून्यके समान अस्तित्वहीन हो जाता है। अब
उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसे कोई मूचर्छित या मुर्दा हो। ऐसी स्थितिमें न तो उसका स्वार्थ
बनता है और न तो परमार्थ ॥ २१ ॥ विषयोंका चिन्तन करते-करते वह विषयरूप हो जाता है।
उसका जीवन वृक्षोंके समान जड हो जाता है। उसके शरीरमें उसी प्रकार व्यर्थ श्वास
चलता रहता है, जैसे लुहारकी धौंकनीकी हवा। उसे न अपना ज्ञान रहता है और न किसी
दूसरेका। वह सर्वथा आत्मवञ्चित हो जाता है ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें