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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
गुण-दोष-व्यवस्था का स्वरूप और
रहस्य
फलश्रुतिरियं
नॄणां न श्रेयो रोचनं परम्
श्रेयोविवक्षया
प्रोक्तं यथा भैषज्यरोचनम् २३
उत्पत्त्यैव
हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च
आसक्तमनसो
मर्त्या आत्मनोऽनर्थहेतुषु २४
न
तानविदुषः स्वार्थं भ्राम्यतो वृजिनाध्वनि
कथं
युञ्ज्यात्पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुधः २५
एवं
व्यवसितं केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः
फलश्रुतिं
कुसुमितां न वेदज्ञा वदन्ति हि २६
कामिनः
कृपणा लुब्धाः पुष्पेषु फलबुद्धयः
अग्निमुग्धा
धूमतान्ताः स्वं लोकं न विदन्ति ते २७
न
ते मामङ्ग जानन्ति हृदिस्थं य इदं यतः
उक्थशस्त्रा
ह्यसुतृपो यथा नीहारचक्षुषः २८
ते
मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः
हिंसायां
यदि रागः स्याद्यज्ञ एव न चोदना २९
हिंसाविहारा
ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया
यजन्ते
देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन्खलाः ३०
स्वप्नोपमममुं
लोकमसन्तं श्रवणप्रियम्
आशिषो
हृदि सङ्कल्प्य त्यजन्त्यर्थान्यथा वणिक् ३१
रजःसत्त्वतमोनिष्ठा
रजःसत्त्वतमोजुषः
उपासत
इन्द्र मुख्यान्देवादीन्न यथैव माम् ३२
इष्ट्वेह
देवता यज्ञैर्गत्वा रंस्यामहे दिवि
तस्यान्त
इह भूयास्म महाशाला महाकुलाः ३३
एवं
पुष्पितया वाचा व्याक्षिप्तमनसां नृणाम्
मानिनां
चातिलुब्धानां मद्वार्तापि न रोचते ३४
वेदा
ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे
परोक्षवादा
ऋषयः परोक्षं मम च प्रियम् ३५
शब्दब्रह्म
सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम्
अनन्तपारं
गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ३६
मयोपबृंहितं
भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना
भूतेषु
घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते ३७
यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते
मुखात्
आकाशाद्घोषवान्प्राणो
मनसा स्पर्शरूपिणा ३८
छन्दोमयोऽमृतमयः
सहस्रपदवीं प्रभुः
ॐकाराद्व्यञ्जितस्पर्श
स्वरोष्मान्तस्थभूषिताम् ३९
विचित्रभाषाविततां
छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः
अनन्तपारां
बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम् ४०
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्च
बृहती पङ्क्तिरेव च
त्रिष्टुब्जगत्यतिच्छन्दो
ह्यत्यष्ट्यतिजगद्विराट् ४१
किं
विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्
इत्यस्या
हृदयं लोके नान्यो मद्वेद कश्चन ४२
मां
विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम्
एतावान्सर्ववेदार्थः
शब्द आस्थाय मां भिदाम्
मायामात्रमनूद्यान्ते
प्रतिषिध्य प्रसीदति ४३
उद्धवजी ! यह स्वर्गादिरूप फलका
वर्णन करनेवाली श्रुति मनुष्योंके लिये उन-उन लोकोंको परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती, परन्तु बहिर्मुख पुरुषोंके लिये अन्त:करणशुद्धिके द्वारा परम
कल्याणमय मोक्षकी विवक्षासे ही कर्मोंमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये वैसा वर्णन
करती है। जैसे बच्चोंसे औषधिमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये रोचक वाक्य कहे जाते
हैं। (बेटा ! प्रेमसे गिलोयका काढ़ा पी लो तो तुम्हारी चोटी बढ़ जायगी) ॥ २३ ॥
इसमें सन्देह नहीं कि संसारके विषयभोगोंमें,
प्राणोंमें और सगे-सम्बन्धियोंमें सभी मनुष्य जन्मसे ही आसक्त हैं
और उन वस्तुओंकी आसक्ति उनकी आत्मोन्नतिमें बाधक एवं अनर्थका कारण है ॥ २४ ॥ वे
अपने परम पुरुषार्थको नहीं जानते, इसलिये स्वर्गादिका जो वर्णन मिलता है,
वह ज्यों-का-त्यों सत्य है—ऐसा विश्वास करके देवादि योनियोंमें
भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियोंके घोर अन्धकारमें आ पड़ते हैं। ऐसी
अवस्थामें कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिरसे उन्हें उन्हीं विषयोंमें क्यों प्रवृत्त
करेगा ? ॥ २५ ॥ दुर्बुद्धिलोग (कर्मवादी) वेदोंका यह अभिप्राय न समझकर
कर्मासक्तिवश पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकोंका वर्णन देखते हैं और उन्हींको परम
फल मानकर भटक जाते हैं। परन्तु वेदवेत्ता लोग श्रुतियोंका ऐसा तात्पर्य नहीं
बतलाते ॥ २६ ॥ विषय-वासनाओंमें फँसे हुए दीन-हीन,
लोभी पुरुष रंग-बिरंगे पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकों को ही सब
कुछ समझ बैठते हैं, अग्नि
के द्वारा सिद्ध होनेवाले यज्ञ-यागादि कर्मोंमें ही मुग्ध हो जाते हैं। उन्हें
अन्त में
देवलोक, पितृलोक आदि की ही प्राप्ति होती है। दूसरी ओर भटक जाने के
कारण उन्हें अपने निजधाम आत्मपद का पता नहीं लगता ॥ २७ ॥ प्यारे उद्धव ! उनके पास
साधना है तो केवल कर्मकी और उसका कोई फल है तो इन्द्रियोंकी तृप्ति। उनकी आँखें
धुँधली हो गयी हैं; इसीसे
वे यह बात नहीं जानते कि जिससे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है,
जो स्वयं इस जगत् के रूपमें है,
वह परमात्मा मैं उनके हृदयमें ही हूँ ॥ २८ ॥ यदि हिंसा और उसके फल
मांस-भक्षण में राग ही हो, उसका त्याग न किया जा सकता हो,
तो यज्ञमें ही करे— यह परिसंख्या विधि है,
स्वाभाविक प्रवृत्तिका संकोच है,
सन्ध्यावन्दनादि के समान अपूर्व विधि नहीं है। इस प्रकार मेरे
परोक्ष अभिप्रायको न जानकर विषयलोलुप पुरुष हिंसा का खिलवाड़ खेलते हैं और
दुष्टतावश अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये वध किये हुए पशुओं के मांस से यज्ञ
करके देवता, पितर तथा भूतपतियों के यजन का ढोंग करते हैं ॥२९-३०॥
उद्धवजी ! स्वर्गादि परलोक स्वप्न के
दृश्योंके समान हैं, वास्तवमें
वे असत् हैं, केवल उनकी बातें सुननेमें बहुत मीठी लगती हैं। सकाम पुरुष वहाँके
भोगोंके लिये मन-ही-मन अनेकों प्रकारके संकल्प कर लेते हैं और जैसे व्यापारी अधिक
लाभकी आशासे मूलधनको भी खो बैठता है, वैसे ही वे सकाम यज्ञोंद्वारा अपने धनका नाश करते हैं ॥ ३१ ॥ वे
स्वयं रजोगुण, सत्त्वगुण या तमोगुणमें स्थित रहते हैं और रजोगुणी, सत्त्वगुणी अथवा तमोगुणी इन्द्रादि देवताओंकी उपासना करते हैं। वे
उन्हीं सामग्रियोंसे उतने ही परिश्रमसे मेरी पूजा नहीं करते ॥ ३२ ॥ वे जब इस
प्रकारकी पुष्पिता वाणी—रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें सुनते हैं कि ‘हमलोग इस लोकमें
यज्ञोंके द्वारा देवताओंका यजन करके स्वर्गमें जायँगे और वहाँ दिव्य आनन्द भोगेंगे, उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा,
तब हम बड़े कुलीन परिवारमें पैदा होंगे,
हमारे बड़े-बड़े महल होंगे और हमारा कुटुम्ब बहुत सुखी और बहुत
बड़ा होगा’ तब उनका चित्त क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जतानेवाले घमंडियोंको
मेरे सम्बन्धकी बातचीत भी अच्छी नहीं लगती ॥ ३३-३४ ॥
उद्धवजी ! वेदोंमें तीन काण्ड
हैं—कर्म, उपासना और ज्ञान। इन तीनों काण्डोंके द्वारा प्रतिपादित विषय है
ब्रह्म और आत्माकी एकता; सभी मन्त्र और मन्त्रद्रष्टा ऋषि इस विषयको खोलकर नहीं, गुप्तभावसे बतलाते हैं और मुझे भी इस बातको गुप्तरूपसे कहना ही
अभीष्ट है[*] ॥ ३५ ॥ वेदोंका नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूर्ति हैं, इसीसे उनका रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है। वह शब्दब्रह्म परा, पश्यन्ती और मध्यमा वाणीके रूपमें प्राण,
मन और इन्द्रियमय है। समुद्रके समान सीमारहित और गहरा है। उसकी थाह
लगाना अत्यन्त कठिन है। (इसीसे जैमिनि आदि बड़े- बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्यका
ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते) ॥ ३६ ॥ उद्धव ! मैं अनन्तशक्ति- सम्पन्न एवं स्वयं
अनन्त ब्रह्म हूँ। मैंने ही वेदवाणीका विस्तार किया है। जैसे कमलनालमें पतला-सा
सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियोंके अन्त:करणमें अनाहतनादके रूपमें
प्रकट होती है ॥ ३७ ॥ भगवान् हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं। उनकी
उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्दके द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई है। जैसे
मकड़ी अपने हृदयसे मुखद्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णोंका संकल्प करनेवाले मनरूप
निमित्त-कारणके द्वारा हृदयाकाशसे अनन्त अपार अनेकों मार्गोंवाली वैखरीरूप
वेदवाणीको स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते है। वह वाणी
हृद्गत सूक्ष्म ओंकारके द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-२५), स्वर ( ‘अ’ से ‘औ’ तक-९), ऊष्मा (श, ष, स, ह) और अन्त:स्थ (य, र, ल, व)—इन वर्णोंसे विभूषित है। उसमें ऐसे छन्द हैं, जिनमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा
विचित्र भाषाके रूपमें वह विस्तृत हुई है ॥ ३८—४० ॥ (चार-चार अधिक वर्णोंवाले
छन्दोंमेंसे कुछ ये हैं—) गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिच्छन्द, अत्यष्टि, अतिजगती और विराट् ॥ ४१ ॥ वह वेदवाणी कर्मकाण्डमें क्या विधान करती
है, उपासनाकाण्डमें किन देवताओंका वर्णन करती है और ज्ञानकाण्डमें किन
प्रतीतियोंका अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकारके विकल्प करती है—इन बातोंको इस
सम्बन्धमें श्रुतिके रहस्यको मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ॥ ४२ ॥ मैं तुम्हें
स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी
श्रुतियाँ कर्मकाण्डमें मेरा ही विधान करती हैं। उपासना काण्डमें उपास्य देवताओंके
रूपमें वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञान- काण्डमें आकाशादिरूपसे मुझमें ही अन्य
वस्तुओंका आरोप करके उनका निषेध कर देती हैं। सम्पूर्ण श्रुतियोंका बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेदका आरोप करती
हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्तमें सबका निषेध करके
मुझमें ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठानरूपसे मैं ही शेष रह जाता हूँ ॥ ४३ ॥
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[*] क्योंकि सब लोग इसके अधिकारी नहीं हैं, अन्त:करण शुद्ध होने पर ही यह बात समझ में आती है।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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