मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्ध बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०३)

 

श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची

 

 विप्रशापापदेशेन संहारः स्वकुलस्य च ।

 उद्धवस्य च संवादो वसुदेवस्य चाद्‌भुतः ॥ ४१ ॥

 यत्रात्मविद्या ह्यखिला प्रोक्ता धर्मविनिर्णयः ।

 ततो मर्त्यपरित्याग आत्मयोगानुभावतः ॥ ४२ ॥

 युगलक्षणवृत्तिश्च कलौ नॄणामुपप्लवः ।

 चतुर्विधश्च प्रलय उत्पत्तिस्त्रिविधा तथा ॥ ४३ ॥

 देहत्यागश्च राजर्षेः विष्णुरातस्य धीमतः ।

 शाखाप्रणयनं ऋषेः मार्कण्डेयस्य सत्कथा ॥

 महापुरुषविन्यासः सूर्यस्य जगदात्मनः ॥ ४४ ॥

 इति चोक्तं द्विजश्रेष्ठा यत्पृष्टोऽहं इहास्मि वः ।

 लीलावतारकर्माणि कीर्तितानीह सर्वशः ॥ ४५ ॥

 पतितः स्खलितश्चार्तः क्षुत्त्वा वा विवशो ब्रुवन् ।

 हरये नम इत्युच्चैः मुच्यते सर्वपातकात् ॥ ४६ ॥

सङ्‌कीर्त्यमानो भगवान् अनन्तः

     श्रुतानुभावो व्यसनं हि पुंसाम् ।

 प्रविश्य चित्तं विधुनोत्यशेषं

     यथा तमोऽर्कोऽभ्रमिवातिवातः ॥ ४७ ॥

मृषा गिरस्ता ह्यसतीरसत्कथा

     न कथ्यते यद्‌भगवानधोक्षजः ।

 तदेव सत्यं तदुहैव मङ्‌गलं

     तदेव पुण्यं भगवद्‌गुणोदयम् ॥ ४८ ॥

 तदेव रम्यं रुचिरं नवं नवं

     तदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम् ।

 तदेव शोकार्णवशोषणं नृणां

     यदुत्तमःश्लोकयशोऽनुगीयते ॥ ४९ ॥

 न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो

     जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।

 तद् ध्वाङ्‌क्षतीर्थं न तु हंससेवितं

     यत्राच्युतस्तत्र हि साधवोऽमलाः ॥ ५० ॥

 तद्वाग्विसर्गो जनताघसंप्लवो

     यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।

 नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्‌कितानि यत्

     श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥ ५१ ॥

 नैष्कर्म्यमप्यच्युत भाववर्जितं

     न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।

 कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे

     न ह्यर्पितं कर्म यदप्यनुत्तमम् ॥ ५२ ॥

 यशःश्रियामेव परिश्रमः परो

     वर्णाश्रमाचारतपःश्रुतादिषु ।

 अविस्मृतिः श्रीधरपादपद्मयोः

     गुणानुवादश्रवणादरादिभिर्हरेः ॥ ५३ ॥

अविस्मृतिः कृष्णपदारविन्दयोः

     क्षिणोत्यभद्राणि च शं तनोति च ।

 सत्त्वस्य शुद्धिं परमात्मभक्तिं

     ज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम् ॥ ५४ ॥

यूयं द्विजाग्र्या बत भूरिभागा

     यच्छश्वदात्मन्यखिलात्मभूतम् ।

 नारायणं देवमदेवमीशं

     अजस्रभावा भजताविवेश्य ॥ ५५ ॥

हं च संस्मारित आत्मतत्त्वं

     श्रुतं पुरा मे परमर्षिवक्त्रात् ।

 प्रायोपवेशे नृपतेः परीक्षितः

     सदस्यृषीणां महतां च श्रृण्वताम् ॥ ५६ ॥

 एतद्वः कथितं विप्राः कथनीयोरुकर्मणः ।

 माहात्म्यं वासुदेवस्य सर्वाशुभविनाशनम् ॥ ५७ ॥

 य एतत्श्रावयेन्नित्यं यामक्षणमनन्यधीः ।

 श्रद्धावान् योऽनुश्रृणुयात् पुनात्यात्मानमेव सः ॥ ५८ ॥

 द्वादश्यामेकादश्यां वा श्रृण्वन्नायुष्यवान् भवेत् ।

 पठत्यनश्नन् प्रयतः ततो भवत्यपातकी ॥ ५९ ॥

 पुष्करे मथुरायां च द्वारवत्यां यतात्मवान् ।

 उपोष्य संहितामेतां पठित्वा मुच्यते भयात् ॥ ६० ॥

 देवता मुनयः सिद्धाः पितरो मनवो नृपाः ।

 यच्छन्ति कामान् गृणतः श्रृण्वतो यस्य कीर्तनात् ॥ ६१ ॥

 ऋचो यजूंषि सामानि द्विजोऽधीत्यानुविन्दते ।

 मधुकुल्या घृतकुल्याः पयःकुल्याश्च तत्फलम् ॥ ६२ ॥

 पुराणसंहितां एतां अधीत्य प्रयतो द्विजः ।

 प्रोक्तं भगवता यत्तु तत्पदं परमं व्रजेत् ॥ ६३ ॥

 विप्रोऽधीत्याप्नुयात् प्रज्ञां राजन्योदधिमेखलाम् ।

 वैश्यो निधिपतित्वं च शूद्रः शुध्येत पातकात् ॥ ६४ ॥

कलिमलसंहतिकालनोऽखिलेशो

     हरिरितरत्र न गीयते ह्यभीक्ष्णम् ।

 इह तु पुनर्भगवानशेषमूर्तिः

     परिपठितोऽनुपदं कथाप्रसङ्‌गैः ॥ ६५ ॥

तमहमजमनन्तमात्मतत्त्वं

     जगदुदयस्थितिसंयमात्मशक्तिम् ।

 द्युपतिभिरजशक्रशङ्‌कराद्यैः

     दुरवसितस्तवमच्युतं नतोऽस्मि ॥ ६६ ॥

 उपचितनवशक्तिभिः स्व आत्मनि

     उपरचितस्थिरजङ्‌गमालयाय ।

 भगवत उपलब्धिमात्रधाम्ने

     सुरऋषभाय नमः सनातनाय ॥ ६७ ॥

स्वसुखनिभृतचेतास्तद्व्युदस्तान्यभावोऽपि

     अजितरुचिरलीलाकृष्टसारस्तदीयम् ।

 व्यतनुत कृपया यः तत्त्वदीपं पुराणं

     तमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनुं नतोऽस्मि ॥ ६८ ॥

 

शौनकादि ऋषियो ! ग्यारहवें स्कन्धमें इस बातका वर्णन हुआ है कि भगवान्‌ ने ब्राह्मणोंके शापके बहाने किस प्रकार यदुवंशका संहार किया। इस स्कन्धमें भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उद्धवका संवाद बड़ा ही अद्भुत है ॥ ४१ ॥ उसमें सम्पूर्ण आत्मज्ञान और धर्म-निर्णयका निरूपण हुआ है और अन्तमें यह बात बतायी गयी है कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने आत्मयोगके प्रभावसे किस प्रकार मर्त्यलोक का परित्याग किया ॥ ४२ ॥ बारहवें स्कन्धमें विभिन्न युगोंके लक्षण और उनमें रहनेवाले लोगोंके व्यवहारका वर्णन किया गया है तथा यह भी बतलाया गया है कि कलियुगमें मनुष्योंकी गति विपरीत होती है। चार प्रकारके प्रलय और तीन प्रकारकी उत्पत्तिका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है ॥ ४३ ॥ इसके बाद परम ज्ञानी राजर्षि परीक्षित्‌के शरीरत्यागकी बात कही गयी है। तदनन्तर वेदोंके शाखा-विभाजनका प्रसङ्ग आया है। मार्कण्डेयजीकी सुन्दर कथा, भगवान्‌ के अङ्ग- उपाङ्गोंका स्वरूपकथन और सबके अन्तमें विश्वात्मा भगवान्‌ सूर्यके गणोंका वर्णन है ॥ ४४ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोगोंने इस सत्सङ्गके अवसरपर मुझसे जो कुछ पूछा था, उसका वर्णन मैंने कर दिया। इसमें सन्देह नहीं कि इस अवसरपर मैंने हर तरहसे भगवान्‌की लीला और उनके अवतार- चरित्रोंका ही कीर्तन किया है ॥ ४५ ॥

जो मनुष्य गिरते-पड़ते, फिसलते, दु:ख भोगते अथवा छींकते समय विवशतासे भी ऊँचे स्वरसे बोल उठता है—‘हरये नम:’, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥ यदि देश, काल एवं वस्तुसे अपरिच्छिन्न भगवान्‌ श्रीकृष्णके नाम, लीला, गुण आदिका सङ्कीर्तन किया जाय अथवा उनके प्रभाव, महिमा आदिका श्रवण किया जाय तो वे स्वयं ही हृदयमें आ विराजते हैं और श्रवण तथा कीर्तन करनेवाले पुरुषके सारे दु:ख मिटा देते हैं—ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकारको और आँधी बादलोंको तितर-बितर कर देती है ॥ ४७ ॥ जिस वाणीके द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान्‌ के नाम, लीला, गुण आदिका उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होनेपर भी निरर्थक है—सारहीन है, सुन्दर होनेपर भी असुन्दर है और उत्तमोत्तम विषयोंका प्रतिपादन करनेवाली होनेपर भी असत्कथा है। जो वाणी और वचन भगवान्‌के गुणोंसे परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मङ्गलमय हैं और वे ही परम सत्य हैं ॥ ४८ ॥ जिस वचनके द्वारा भगवान्‌ के परम पवित्र यशका गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है। उससे अनन्त कालतक मनको परमानन्दकी अनुभूति होती रहती है। मनुष्योंका सारा शोक, चाहे वह समुद्रके समान लंबा और गहरा क्यों न हो, उस वचनके प्रभावसे सदाके लिये सूख जाता है ॥ ४९ ॥ जिस वाणीसे—चाहे वह रस, भाव, अलङ्कार आदिसे युक्त ही क्यों न हो—जगत् को पवित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंकने के स्थानके समान अत्यन्त अपवित्र है। मानससरोवर-निवासी हंस अथवा ब्रह्मधाम में विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त उसका कभी सेवन नहीं करते। निर्मल हृदयवाले साधुजन तो वहीं निवास करते हैं, जहाँ भगवान्‌ रहते हैं ॥ ५० ॥ इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो व्याकरण आदिकी दृष्टिसे दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परन्तु जिसके प्रत्येक श्लोकमें भगवान्‌के सुयशसूचक नाम जड़े हुए हैं, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं ॥ ५१ ॥ वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि भगवान्‌ की भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो कर्म भगवान्‌ को अर्पण नहीं किया गया है—वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो—सर्वदा अमङ्गलरूप, दु:ख देनेवाला ही है; वह तो शोभन—वरणीय हो ही कैसे सकता है ? ॥ ५२ ॥ वर्णाश्रमके अनुकूल आचरण, तपस्या और अध्ययन आदिके लिये जो बहुत बड़ा परिश्रम किया जाता है, उसका फल है—केवल यश अथवा लक्ष्मीकी प्राप्ति। परन्तु भगवान्‌के गुण, लीला, नाम आदिका श्रवण, कीर्तन आदि तो उनके श्रीचरणकमलोंकी अविचल स्मृति प्रदान करता है ॥ ५३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंकी अविचल स्मृति सारे पाप-ताप और अमङ्गलोंको नष्ट कर देती और परम शान्तिका विस्तार करती है। उसीके द्वारा अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, भगवान्‌की भक्ति प्राप्त होती है एवं परवैराग्यसे युक्त भगवान्‌के स्वरूपका ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है ॥ ५४ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोग बड़े भाग्यवान् हैं। धन्य हैं, धन्य हैं ! क्योंकि आपलोग बड़े प्रेमसे निरन्तर अपने हृदयमें सर्वान्तर्यामी, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् आदिदेव सबके आराध्यदेव एवं स्वयं दूसरे आराध्यदेवसे रहित नारायण भगवान्‌को स्थापित करके भजन करते रहते हैं ॥ ५५ ॥ जिस समय राजर्षि परीक्षित्‌ अनशन करके बड़े-बड़े ऋषियोंकी भरी सभामें सबके सामने श्रीशुकदेवजी महाराजसे श्रीमद्भागवतकी कथा सुन रहे थे, उस समय वहीं बैठकर मैंने भी उन्हीं परमर्षिके मुखसे इस आत्मतत्त्वका श्रवण किया था। आपलोगोंने उसका स्मरण कराकर मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। मैं इसके लिये आपलोगोंका बड़ा ऋणी हूँ ॥ ५६ ॥

शौनकादि ऋषियो ! भगवान्‌ वासुदेवकी एक-एक लीला सर्वदा श्रवण-कीर्तन करनेयोग्य है। मैंने इस प्रसङ्गमें उन्हींकी महिमाका वर्णन किया है; जो सारे अशुभ संस्कारोंको धो बहाती है ॥ ५७ ॥ जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे एक पहर अथवा एक क्षण ही प्रतिदिन इसका कीर्तन करता है और जो श्रद्धाके साथ इसका श्रवण करता है, वह अवश्य ही शरीरसहित अपने अन्त:करणको पवित्र बना लेता है ॥ ५८ ॥ जो पुरुष द्वादशी अथवा एकादशीके दिन इसका श्रवण करता है, वह दीर्घायु हो जाता है और जो संयमपूर्वक निराहार रहकर पाठ करता है, उसके पहलेके पाप तो नष्ट हो ही जाते हैं, पापकी प्रवृत्ति भी नष्ट हो जाती है ॥ ५९ ॥ जो मनुष्य इन्द्रियों और अन्त:करणको अपने वशमें करके उपवासपूर्वक पुष्कर, मथुरा अथवा द्वारकामें इस पुराण-संहिताका पाठ करता है, वह सारे भयोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ६० ॥ जो मनुष्य इसका श्रवण या उच्चारण करता है, उसके कीर्तनसे देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनु और नरपति सन्तुष्ट होते हैं और उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ॥ ६१ ॥ ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके पाठसे ब्राह्मणको मधुकुल्या, घृतकुल्या और पय:कुल्या (मधु, घी एवं दूधकी नदियाँ अर्थात् सब प्रकारकी सुख-समृद्धि) की प्राप्ति होती है। वही फल श्रीमद्भागवत के पाठसे भी मिलता है ॥ ६२ ॥ जो द्विज संयमपूर्वक इस पुराणसंहिताका अध्ययन करता है, उसे उसी परमपद की प्राप्ति होती है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान्‌ ने किया है ॥ ६३ ॥ इसके अध्ययनसे ब्राह्मण को ऋतम्भरा प्रज्ञा (तत्त्वज्ञानको प्राप्त करानेवाली बुद्धि) की प्राप्ति होती है और क्षत्रियको समुद्रपर्यन्त भूमण्डलका राज्य प्राप्त होता है। वैश्य कुबेरका पद प्राप्त करता है और शूद्र सारे पापोंसे छुटकारा पा जाता है ॥ ६४ ॥

भगवान्‌ ही सबके स्वामी हैं और समूह-के-समूह कलिमलों को ध्वंस करनेवाले हैं। यों तो उनका वर्णन करनेके लिये बहुत-से पुराण हैं, परन्तु उनमें सर्वत्र और निरन्तर भगवान्‌का वर्णन नहीं मिलता। श्रीमद्भागवतमहापुराणमें तो प्रत्येक कथा-प्रसङ्गमें पद-पदपर सर्वस्वरूप भगवान्‌का ही वर्णन हुआ है ॥ ६५ ॥ वे जन्म-मृत्यु आदि विकारोंसे रहित, देशकालादिकृत परिच्छेदोंसे मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्व ही हैं। जगत्की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करनेवाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्हीं एकरस सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६६ ॥ जिन्होंने अपने स्वरूपमें ही प्रकृति आदि नौ शक्तियोंका सङ्कल्प करके इस चराचर जगत्की सृष्टि की है और जो इसके अधिष्ठानरूपसे स्थित हैं तथा जिनका परम पद केवल अनुभूतिस्वरूप है, उन्हीं देवताओंके आराध्यदेव सनातन भगवान्‌के चरणोंमें मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६७ ॥

श्रीशुकदेवजी महाराज अपने आत्मानन्दमें ही निमग्र थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थितिसे उनकी भेददृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी। फिर भी मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरकी मधुमयी, मङ्गलमयी, मनोहारिणी लीलाओंने उनकी वृत्तियोंको अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत्के प्राणियोंपर कृपा करके भगवत्तत्त्वको प्रकाशित करनेवाले इस महापुराणका विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ ६८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

द्वादशस्कन्धे द्वादशस्कन्धार्थनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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