सोमवार, 26 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्ध बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची

 

 मन्वन्तरानुकथनं गजेन्द्रस्य विमोक्षणम् ।

 मन्वन्तरावताराश्च विष्णोर्हयशिरादयः ॥ १९ ॥

 कौर्मं धान्वतरं मात्स्यं वामनं च जगत्पतेः ।

 क्षीरोदमथनं तद्वद् अमृतार्थे दिवौकसाम् ॥ २० ॥

 देवासुरमहायुद्धं राजवंशानुकीर्तनम् ।

 इक्ष्वाकुजन्म तद्वंशः सुद्युम्नस्य महात्मनः ॥ २१ ॥

 इलोपाख्यानमत्रोक्तं तारोपाख्यानमेव च ।

 सूर्यवंशानुकथनं शशादाद्या नृगादयः ॥ २२ ॥

 सौकन्यं चाथ शर्यातेः ककुत्स्थस्य च धीमतः ।

 खट्वाङ्‌गस्य च मान्धातुः सौभरेः सगरस्य च ॥ २३ ॥

 रामस्य कोशलेन्द्रस्य चरितं किल्बिषापहम् ।

 निमेरङ्‌गपरित्यागो जनकानां च सम्भवः ॥ २४ ॥

 रामस्य भार्गवेन्द्रस्य निःक्षतृईकरणं भुवः ।

 ऐलस्य सोमवंशस्य ययातेर्नहुषस्य च ॥ २५ ॥

 दौष्मन्तेर्भरतस्यापि शान्तनोस्तत्सुतस्य च ।

 ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशोऽनुकीर्तितः ॥ २६ ॥

 यत्रावतीर्णो भगवान् कृष्णाख्यो जगदीश्वरः ।

 वसुदेवगृहे जन्म ततो वृद्धिश्च गोकुले ॥ २७ ॥

 तस्य कर्माण्यपाराणि कीर्तितान्यसुरद्विषः ।

 पूतनासुपयःपानं शकटोच्चाटनं शिशोः ॥ २८ ॥

 तृणावर्तस्य निष्पेषः तथैव बकवत्सयोः ।

 धेनुकस्य सहभ्रातुः प्रलम्बस्य च संक्षयः ॥ २९ ॥

 गोपानां च परित्राणं दावाग्नेः परिसर्पतः ।

 दमनं कालियस्याहेः महाहेर्नन्दमोक्षणम् ॥ ३० ॥

 व्रतचर्या तु कन्यानां यत्र तुष्टोऽच्युतो व्रतैः ।

 प्रसादो यज्ञपत्‍नीभ्यो विप्राणां चानुतापनम् ॥ ३१ ॥

 गोवर्धनोद्धारणं च शक्रस्य सुरभेरथ ।

 यज्ञभिषेकं कृष्णस्य स्त्रीभिः क्रीडा च रात्रिषु ॥ ३२ ॥

 शङ्‌खचूडस्य दुर्बुद्धेः वधोऽरिष्टस्य केशिनः ।

 अक्रूरागमनं पश्चात् प्रस्थानं रामकृष्णयोः ॥ ३३ ॥

 व्रजस्त्रीणां विलापश्च मथुरालोकनं ततः ।

 गजमुष्टिकचाणूर कंसादीनां तथा वधः ॥ ३४ ॥

 मृतस्यानयनं सूनोः पुनः सान्दीपनेर्गुरोः ।

 मथुरायां निवसता यदुचक्रस्य यत्प्रियम् ।

 कृतमुद्धवरामाभ्यां युतेन हरिणा द्विजाः ॥ ३५ ॥

 जरासन्धसमानीत सैन्यस्य बहुशो वधः ।

 घातनं यवनेन्द्रस्य कुशस्थल्या निवेशनम् ॥ ३६ ॥

 आदानं पारिजातस्य सुधर्मायाः सुरालयात् ।

 रुक्मिण्या हरणं युद्धे प्रमथ्य द्विषतो हरेः ॥ ३७ ॥

 हरस्य जृम्भणं युद्धे बाणस्य भुजकृन्तनम् ।

 प्राग्ज्योतिषपतिं हत्वा कन्यानां हरणं च यत् ॥ ३८ ॥

 चैद्यपौण्ड्रकशाल्वानां दन्तवक्रस्य दुर्मतेः ।

 शम्बरो द्विविदः पीठो मुरः पञ्चजनादयः ॥ ३९ ॥

 माहात्म्यं च वधस्तेषां वाराणस्याश्च दाहनम् ।

 भारावतरणं भूमेः निमित्तीकृत्य पाण्डवान् ॥ ४० ॥

 

आठवें स्कन्धमें मन्वन्तरोंकी कथा, गजेन्द्रमोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरोंमें होनेवाले जगदीश्वर भगवान्‌ विष्णुके अवतार—कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि; अमृत-प्राप्तिके लिये देवताओं और दैत्योंका समुद्र-मन्थन और देवासुर-संग्राम आदि विषयोंका वर्णन है। नवें स्कन्धमें मुख्यत: राजवंशोंका वर्णन है। इक्ष्वाकुके जन्म-कर्म, वंश-विस्तार, महात्मा सुद्युम्र, इला एवं ताराके उपाख्यान—इन सबका वर्णन किया गया है। सूर्यवंशका वृत्तान्त, शशाद और नृग आदि राजाओंका वर्णन, सुकन्याका चरित्र, शर्याति, खट्वाङ्ग, मान्धाता, सौभरि, सगर, बुद्धिमान् ककुत्स्थ और कोसलेन्द्र भगवान्‌ रामके सर्वपापहारी चरित्रका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है। तदनन्तर निमिका देह- त्याग और जनकोंकी उत्पत्तिका वर्णन है ॥ १९-२४ ॥ भृगुवंशशिरोमणि परशुरामजीका क्षत्रियसंहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरूरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्तनन्दन भरत, शन्तनु और उनके पुत्र भीष्म आदिकी संक्षिप्त कथाएँ भी नवम स्कन्धमें ही हैं। सबके अन्तमें ययातिके बड़े लडक़े यदुका वंशविस्तार कहा गया है ॥ २५-२६ ॥

शौनकादि ऋषियो ! इसी यदुवंशमें जगत्पति भगवान्‌ श्रीकृष्णने अवतार ग्रहण किया था। उन्होंने अनेक असुरोंका संहार किया। उनकी लीलाएँ इतनी हैं कि कोई पार नहीं पा सकता। फिर भी दशम स्कन्धमें उनका कुछ कीर्तन किया गया है। वसुदेवकी पत्नी देवकीके गर्भसे उनका जन्म हुआ। गोकुलमें नन्दबाबाके घर जाकर बढ़े। पूतनाके प्राणोंको दूधके साथ पी लिया। बचपनमें ही छकड़ेको उलट दिया ॥ २७-२८ ॥ तृणावर्त, बकासुर एवं वत्सासुरको पीस डाला। सपरिवार धेनुकासुर और प्रलम्बासुरको मार डाला ॥ २९ ॥ दावानलसे घिरे गोपोंकी रक्षा की। कालिय नागका दमन किया। अजगरसे नन्दबाबाको छुड़ाया ॥ ३० ॥ इसके बाद गोपियोंने भगवान्‌को पतिरूपसे प्राप्त करनेके लिये व्रत किया और भगवान्‌ श्रीकृष्णने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत वर दिया। भगवान्‌ ने यज्ञपत्नियोंपर कृपा की। उनके पतियों—ब्राह्मणोंको बड़ा पश्चत्ताप हुआ ॥ ३१ ॥ गोवद्र्धनधारणकी लीला करनेपर इन्द्र और कामधेनुने आकर भगवान्‌का यज्ञाभिषेक किया। शरद् ऋतुकी रात्रियोंमें व्रजसुन्दरियोंके साथ रासक्रीड़ा की ॥ ३२ ॥ दुष्ट शङ्खचूड, अरिष्ट, और केशीके वधकी लीला हुई। तदनन्तर अक्रूरजी मथुरासे वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीने मथुराके लिये प्रस्थान किया ॥ ३३ ॥ उस प्रसंगपर व्रज-सुन्दरियोंने जो विलाप किया था, उसका वर्णन है। राम और श्यामने मथुरामें जाकर वहाँकी सजावट देखी और कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक, चाणूर एवं कंस आदिका संहार किया ॥ ३४ ॥ सान्दीपनि गुरुके यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मृत पुत्रको लौटा लाये। शौनकादि ऋषियो ! जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण मथुरामें निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने उद्धव और बलरामजीके साथ यदुवंशियोंका सब प्रकारसे प्रिय और हित किया ॥ ३५ ॥ जरासन्ध कई बार बड़ी-बड़ी सेनाएँ लेकर आया और भगवान्‌ने उनका उद्धार करके पृथ्वीका भार हलका किया। कालयवनको मुचुकुन्दसे भस्म करा दिया। द्वारकापुरी बसाकर रातों-रात सबको वहाँ पहुँचा दिया ॥ ३६ ॥ स्वर्गसे कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये। भगवान्‌ने दल-के-दल शत्रुओंको युद्धमें पराजित करके रुक्मिणीका हरण किया ॥ ३७ ॥ बाणासुरके साथ युद्धके प्रसङ्गमें महादेवजीपर ऐसा बाण छोड़ा कि वे जँभाई लेने लगे और इधर बाणसुरकी भुजाएँ काट डालीं। प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी भौमासुर को मारकर सोलह हजार कन्याएँ ग्रहण कीं ॥ ३८ ॥ शिशुपाल, पौण्ंड्रक, शाल्व, दुष्ट दन्तवक्त्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पञ्चजन आदि दैत्योंके बल-पौरुषका वर्णन करके यह बात बतलायी गयी कि भगवान्‌ने उन्हें कैसे-कैसे मारा। भगवान्‌के चक्रने काशीको जला दिया और फिर उन्होंने भारतीय युद्धमें पाण्डवोंको निमित्त बनाकर पृथ्वीका बहुत बड़ा भार उतार दिया ॥ ३९-४० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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