शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– नवाँ अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धनवाँ अध्याय (पोस्ट०१)

 

मार्कण्डेयजी का माया-दर्शन

 

सूत उवाच

स्तुतो भगवानित्थं मार्कण्डेयेन धीमता ।

नारायणो नरसखः प्रीत आह भृगूद्वहम् ॥ १ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

भो भो ब्रह्मर्षिवर्योऽसि सिद्ध आत्मसमाधिना ।

 मयि भक्त्यानपायिन्या तपःस्वाध्यायसंयमैः ॥ २ ॥

 वयं ते परितुष्टाः स्म त्वद्‌बृहद्‌व्रतचर्यया ।

 वरं प्रतीच्छ भद्रं ते वरदेशादभीप्सितम् ॥ ३ ॥

 

 श्रीऋषिरुवाच -

 जितं ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराच्युत ।

 वरेणैतावतालं नो यद्‌ भवान् समदृश्यत ॥ ४ ॥

 गृहीत्वाजादयो यस्य श्रीमत् पादाब्जदर्शनम् ।

 मनसा योगपक्वेन स भवान् मेऽक्षगोचरः ॥ ५ ॥

 अथाप्यम्बुजपत्राक्ष पुण्यश्लोकशिखामणे ।

 द्रक्ष्ये मायां यया लोकः सपालो वेद सद्‌भिदाम् ॥ ६ ॥

 

 सूत उवाच -

 इतीडितोऽर्चितः कामं ऋषिणा भगवान् मुने ।

 तथेति स स्मयन् प्रागाद् बदर्याश्रममीश्वरः ॥ ७ ॥

 तमेव चिन्तयन्नर्थं ऋषिः स्वाश्रम एव सः ।

 वसन् अग्न्यर्कसोमाम्बु भूवायुवियदात्मसु ॥ ८ ॥

 ध्यायन् सर्वत्र च हरिं भावद्रव्यैरपूजयत् ।

 क्वचित् पूजां विसस्मार प्रेमप्रसरसम्प्लुतः ॥ ९ ॥

 तस्यैकदा भृगुश्रेष्ठ पुष्पभद्रातटे मुनेः ।

 उपासीनस्य सन्ध्यायां ब्रह्मन् वायुरभून्महान् ॥ १० ॥

तं चण्डशब्दं समुदीरयन्तं

     बलाहका अन्वभवन् करालाः ।

 अक्षस्थविष्ठा मुमुचुस्तडिद्‌भिः

     स्वनन्त उच्चैरभि वर्षधाराः ॥ ११ ॥

 ततो व्यदृश्यन्त चतुः समुद्राः

     समन्ततः क्ष्मातलमाग्रसन्तः ।

 समीरवेगोर्मिभिरुग्रनक्र

     महाभयावर्तगभीरघोषाः ॥ १२ ॥

अन्तर्बहिश्चाद्‌भिरतिद्युभिः खरैः

     शतह्रदाभिरुपतापितं जगत् ।

 चतुर्विधं वीक्ष्य सहात्मना मुनिः

     जलाप्लुतां क्ष्मां विमनाः समत्रसत् ॥ १३ ॥

 तस्यैवमुद्वीक्षत ऊर्मिभीषणः

     प्रभञ्जनाघूर्णितवार्महार्णवः ।

 आपूर्यमाणो वरषद्‌भिरम्बुदैः

     क्ष्मामप्यधाद् द्वीपवर्षाद्रिभिः समम् ॥ १४ ॥

 सक्ष्मान्तरिक्षं सदिवं सभागणं

     त्रैलोक्यमासीत् सह दिग्भिराप्लुतम् ।

 स एक एवोर्वरितो महामुनिः

     बभ्राम विक्षिप्य जटा जडान्धवत् ॥ १५ ॥

 क्षुत्तृट्परीतो मकरैस्तिमिङ्‌गिलैः

     उपद्रुतो वीचिनभस्वताहतः ।

 तमस्यपारे पतितो भ्रमन् दिशो

     न वेद खं गां च परिश्रमेषितः ॥ १६ ॥

  क्वचिद् गतो महावर्ते तरलैस्ताडितः क्वचित् ।

 यादोभिर्भक्ष्यते क्वापि स्वयं अन्योन्यघातिभिः ॥ १७ ॥

 क्वचिच्छोकं क्वचिन्मोहं क्वचिद् दुखं सुखं भयम् ।

 क्वचित् मृत्युं अवाप्नोति व्याध्यादिभिरुतार्दितः ॥ १८ ॥

 अयुतायतवर्षाणां सहस्राणि शतानि च ।

 व्यतीयुर्भ्रमतः तस्मिन् विष्णुमायावृतात्मनः ॥ १९ ॥

 

सूतजी कहते हैं—जब ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनिने इस प्रकार स्तुति की, तब भगवान्‌ नर- नारायण ने प्रसन्न होकर मार्कण्डेयजीसे कहा ॥ १ ॥

भगवान्‌ नारायणने कहा—सम्मान्य ब्रहमर्षि-शिरोमणि ! तुम चित्तकी एकग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम और मेरी अनन्य भक्तिसे सिद्ध हो गये हो ॥ २ ॥ तुम्हारे इस आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतकी निष्ठा देखकर हम तुमपर बहुत ही प्रसन्न हुए हैं। तुम्हारा कल्याण हो ! मैं समस्त वर देनेवालोंका स्वामी हूँ। इसलिये तुम अपना अभीष्ट वर मुझसे माँग लो ॥ ३ ॥

मार्कण्डेय मुनिने कहा—देवदेवेश ! शरणागत-भयहारी अच्युत ! आपकी जय हो ! जय हो ! हमारे लिये बस इतना ही वर पर्याप्त है कि आपने कृपा करके अपने मनोहर स्वरूपका दर्शन कराया ॥ ४ ॥ ब्रह्मा-शङ्कर आदि देवगण योग-साधनाके द्वारा एकाग्र हुए मनसे ही आपके परम सुन्दर श्रीचरणकमलोंका दर्शन प्राप्त करके कृतार्थ हो गये हैं। आज उन्हीं आपने मेरे नेत्रोंके सामने प्रकट होकर मुझे धन्य बनाया है ॥ ५ ॥ पवित्रकीर्ति महानुभावोंके शिरोमणि कमलनयन ! फिर भी आपकी आज्ञाके अनुसार मैं आपसे वर माँगता हूँ। मैं आपकी वह माया देखना चाहता हूँ, जिससे मोहित होकर सभी लोक और लोकपाल अद्वितीय वस्तु ब्रह्ममें अनेकों प्रकारके भेद-विभेद देखने लगते हैं ॥ ६ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! जब इस प्रकार मार्कण्डेय मुनिने भगवान्‌ नर-नारायणकी इच्छानुसार स्तुति-पूजा कर ली एवं वरदान माँग लिया, तब उन्होंने मुसकराते हुए कहा—‘ठीक है, ऐसा ही होगा।’ इसके बाद वे अपने आश्रम बदरीवनको चले गये ॥ ७ ॥ मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रमपर ही रहकर निरन्तर इस बातका चिन्तन करते रहते कि मुझे मायाके दर्शन कब होंगे। वे अग्रि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं अन्त:करणमें—और तो क्या, सर्वत्र भगवान्‌का ही दर्शन करते हुए मानसिक वस्तुओंसे उनका पूजन करते रहते। कभी-कभी तो उनके हृदयमें प्रेमकी ऐसी बाढ़ आ जाती कि वे उसके प्रवाहमें डूबने-उतराने लगते, उन्हें इस बातकी भी याद न रहती कि कब कहाँ किस प्रकार भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये ? ॥ ८-९ ॥

शौनकजी ! एक दिनकी बात है, सन्ध्याके समय पुष्पभद्रा नदीके तटपर मार्कण्डेय मुनि भगवान्‌की उपासनामें तन्मय हो रहे थे। ब्रह्मन् ! उसी समय एकाएक बड़े जोरकी आँधी चलने लगी ॥ १० ॥ उस समय आँधीके कारण बड़ी भयङ्कर आवाज होने लगी और बड़े विकराल बादल आकाशमें मँडराने लगे। बिजली चमक-चमककर कडक़ने लगी और रथके धुरेके समान जलकी मोटी-मोटी धाराएँ पृथ्वीपर गिरने लगीं ॥ ११ ॥ यही नहीं, मार्कण्डेय मुनिको ऐसा दिखायी पड़ा कि चारों ओरसे चारों समुद्र समूची पृथ्वीको निगलते हुए उमड़े आ रहे हैं। आँधीके वेगसे समुद्रमें बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही हैं, बड़े भयङ्कर भँवर पड़ रहे हैं और भयङ्कर ध्वनि कान फाड़े डालती है। स्थान-स्थानपर बड़े-बड़े मगर उछल रहे हैं ॥ १२ ॥ उस समय बाहर-भीतर, चारों ओर जल-ही-जल दीखता था। ऐसा जान पड़ता था कि उस जलराशिमें पृथ्वी ही नहीं, स्वर्ग भी डूबा जा रहा है; ऊपरसे बड़े वेगसे आँधी चल रही है और बिजली चमक रही है, जिससे सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो रहा है। जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि इस जल-प्रलयसे सारी पृथ्वी डूब गयी है, उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज—चारों प्रकारके प्राणी तथा स्वयं वे भी अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, तब वे उदास हो गये और साथ ही अत्यन्त भयभीत भी ॥ १३ ॥ उनके सामने ही प्रलयसमुद्रमें भयङ्कर लहरें उठ रही थीं, आँधीके वेगसे जलराशि उछल रही थी और प्रलयकालीन बादल बरस-बरसकर समुद्रको और भी भरते जा रहे थे। उन्होंने देखा कि समुद्रने द्वीप, वर्ष और पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीको डुबा दिया ॥ १४ ॥ पृथ्वी, अन्तरक्षि, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल (ग्रह, नक्षत्र एवं तारोंका समूह) और दिशाओंके साथ तीनों लोक जलमें डूब गये। बस, उस समय एकमात्र महामुनि मार्कण्डेय ही बच रहे थे। उस समय वे पागल और अंधेके समान जटा फैलाकर यहाँसे वहाँ और वहाँसे यहाँ भाग- भागकर अपने प्राण बचानेकी चेष्टा कर रहे थे ॥ १५ ॥ वे भूख-प्याससे व्याकुल हो रहे थे। किसी ओर बड़े-बड़े मगर तो किसी ओर बड़े-बड़े तिमिङ्गल मच्छ उनपर टूट पड़ते। किसी ओरसे हवाका झोंका आता, तो किसी ओरसे लहरोंके थपेड़े उन्हें घायल कर देते। इस प्रकार इधर-उधर भटकते- भटकते वे अपार अज्ञानान्धकारमें पड़ गये—बेहोश हो गये और इतने थक गये कि उन्हें पृथ्वी और आकाशका भी ज्ञान न रहा ॥ १६ ॥ वे कभी बड़े भारी भँवरमें पड़ जाते, कभी तरल तरङ्गोंकी चोटसे चञ्चल हो उठते। जब कभी जलजन्तु आपसमें एक-दूसरेपर आक्रमण करते, तब ये अचानक ही उनके शिकार बन जाते ॥ १७ ॥ कहीं शोकग्रस्त हो जाते, तो कहीं मोहग्रस्त। कभी दु:ख-ही-दु:खके निमित्त आते, तो कभी तनिक सुख भी मिल जाता। कभी भयभीत होते, कभी मर जाते, तो कभी तरह-तरहके रोग उन्हें सताने लगते ॥ १८ ॥ इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि विष्णुभगवान्‌की मायाके चक्कर में मोहित हो रहे थे। उस प्रलयकाल के समुद्रमें भटकते-भटकते उन्हें सैकड़ों-हजारों ही नहीं, लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये ॥ १९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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