गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– आठवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धआठवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

मार्कण्डेयजी की तपस्या और वर-प्राप्ति

 

तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं तपःस्वाध्यायसंयमैः ।

 अनुग्रहायाविरासीत् नरनारायणो हरिः ॥ ३२ ॥

तौ शुक्लकृष्णौ नवकञ्जलोचनौ

     चतुर्भुजौ रौरववल्कलाम्बरौ ।

 पवित्रपाणी उपवीतकं त्रिवृत्

     कमण्डलुं दण्डमृजुं च वैणवम् ॥ ३३ ॥

 पद्माक्षमालामुत जन्तुमार्जनं

     वेदं च साक्षात् तप एव रूपिणौ ।

 तपत् तडिद्वर्णपिशङ्‌गरोचिषा

     प्रांशू दधानौ विबुधर्षभार्चितौ ॥ ३४ ॥

ते वै भगवतो रूपे नरनारायणौ ऋषी ।

 दृष्ट्वोत्थायादरेणोच्चैः ननामाङ्‌गेन दण्डवत् ॥ ३५ ॥

 स तत् सन्दर्शनानन्द निर्वृतात्मेन्द्रियाशयः ।

 हृष्टरोमाश्रुपूर्णाक्षो न सेहे तावुदीक्षितुम् ॥ ३६ ॥

 उत्थाय प्राञ्जलिः प्रह्व औत्सुक्यादाश्लिषन्निव ।

 नमो नम इतीशानौ बभाशे गद्‌गदाक्षरम् ॥ ३७ ॥

 तयोरासनमादाय पादयोरवनिज्य च ।

 अर्हणेनानुलेपेन धूपमाल्यैः अपूजयत् ॥ ३८ ॥

 सुखमासनमासीनौ प्रसादाभिमुखौ मुनी ।

 पुनरानम्य पादाभ्यां गरिष्ठाविदमब्रवीत् ॥ ३९ ॥

 श्रीमार्कण्डेय उवाच -

किं वर्णये तव विभो यदुदीरितोऽसुः

     संस्पन्दते तमनु वाङ्‌मन इन्द्रियाणि ।

 स्पन्दन्ति वै तनुभृतामजशर्वयोश्च

     स्वस्याप्यथापि भजतामसि भावबन्धुः ॥ ४० ॥

 मूर्ती इमे भगवतो भगवन् त्रिलोक्याः

     क्षेमाय तापविरमाय च मृत्युजित्यै ।

 नाना बिभर्ष्यवितुमन्यतनूर्यथेदं

     सृष्ट्वा पुनर्ग्रससि सर्वमिवोर्णनाभिः ॥ ४१ ॥

 तस्यावितुः स्थिरचरेशितुरङ्‌घ्रिमूलं

     यत्स्थं न कर्मगुणकालरुजः स्पृशन्ति ।

 यद्वै स्तुवन्ति निनमन्ति यजन्त्यभीक्ष्णं

     ध्यायन्ति वेदहृदया मुनयस्तदाप्त्यै ॥ ४२ ॥

 नान्यं तवाङ्‌घ्र्युपनयादपवर्गमूर्तेः

     क्षेमं जनस्य परितोभिय ईश विद्मः ।

 ब्रह्मा बिभेत्यलमतो द्विपरार्धधिष्ण्यः

     कालस्य ते किमुत तत्कृतभौतिकानाम् ॥ ४३ ॥

 तद् वै भजाम्यृतधियस्तव पादमूलं

     हित्वेदमात्मच्छदि चात्मगुरोः परस्य ।

 देहाद्यपार्थमसदन्त्यमभिज्ञमात्रं

     विन्देत ते तर्हि सर्वमनीषितार्थम् ॥ ४४ ॥

 सत्त्वं रजस्तम इतीश तवात्मबन्धो

     मायामयाः स्थितिलयोदयहेतवोऽस्य ।

 लीला धृता यदपि सत्त्वमयी प्रशान्त्यै

     नान्ये नृणां व्यसनमोहभियश्च याभ्याम् ॥ ४५ ॥

 तस्मात्तवेह भगवन्नथ तावकानां

     शुक्लां तनुं स्वदयितां कुशला भजन्ति ।

 यत्सात्वताः पुरुषरूपमुशन्ति सत्त्वं

     लोको यतोऽभयमुतात्मसुखं न चान्यत् ॥ ४६ ॥

 तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूम्ने

     विश्वाय विश्वगुरवे परदैवतायै ।

 नारायणाय ऋषये च नरोत्तमाय

     हंसाय संयतगिरे निगमेश्वराय ॥ ४७ ॥

 यं वै न वेद वितथाक्षपथैर्भ्रमद्धीः

     सन्तं स्वखेष्वसुषु हृद्यपि दृक्पथेषु ।

 तन्माययावृतमतिः स उ एव साक्षाद्

     आद्यस्तवाखिलगुरोरुपसाद्य वेदम् ॥ ४८ ॥

 यद्दर्शनं निगम आत्मरहःप्रकाशं

     मुह्यन्ति यत्र कवयोऽजपरा यतन्तः ।

 तं सर्ववादविषयप्रतिरूपशीलं

     वन्दे महापुरुषमात्मनिगूढबोधम् ॥ ४९ ॥

 

शौनकजी ! मार्कण्डेय मुनि तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा भगवान्‌में चित्त लगानेका प्रयत्न करते रहते थे। अब उनपर कृपाप्रसादकी वर्षा करनेके लिये मुनिजन-नयन-मनोहारी नरोत्तम नर और भगवान्‌ नारायण प्रकट हुए ॥ ३२ ॥ उन दोनोंमें एकका शरीर गौरवर्ण था और दूसरेका श्याम। दोनोंके ही नेत्र तुरंतके खिले हुए कमलके समान कोमल और विशाल थे। चार-चार भुजाएँ थीं। एक मृगचर्म पहने हुए थे, तो दूसरे वृक्षकी छाल। हाथोंमें कुश लिये हुए थे और गलेमें तीन-तीन सूतके यज्ञोपवीत शोभायमान थे। वे कमण्डलु और बाँसका सीधा दण्ड ग्रहण किये हुए थे ॥ ३३ ॥ कमलगट्टेकी माला और जीवोंको हटानेके लिये वस्त्रकी कूँची भी रखे हुए थे। ब्रह्मा, इन्द्र आदिके भी पूज्य भगवान्‌ नर-नारायण कुछ ऊँचे कदके थे और वेद धारण किये हुए थे। उनके शरीरसे चमकती हुई बिजलीके समान पीले-पीले रंगकी कान्ति निकल रही थी। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो स्वयं तप ही मूर्तिमान् हो गया हो ॥ ३४ ॥ जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि भगवान्‌के साक्षात् स्वरूप नर-नारायण ऋषि पधारे हैं, तब वे बड़े आदरभावसे उठकर खड़े हो गये और धरतीपर दण्डवत् लोटकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ भगवान्‌के दिव्य दर्शनसे उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनका रोम-रोम, उनकी सारी इन्द्रियाँ एवं अन्त:करण शान्तिके समुद्रमें गोता खाने लगे। शरीर पुलकित हो गया। नेत्रोंमें आँसू उमड़ आये, जिनके कारण वे उन्हें भर आँख देख भी न सकते ॥ ३६ ॥ तदनन्तर वे हाथ जोडक़र उठ खड़े हुए। उनका अङ्ग-अङ्ग भगवान्‌के सामने झुका जा रहा था। उनके हृदयमें उत्सुकता तो इतनी थी, मानो वे भगवान्‌का आलिङ्गन कर लेंगे। उनसे और कुछ तो बोला न गया, गद्गद वाणीसे केवल इतना ही कहा—‘नमस्कार ! नमस्कार’ ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन्होंने दोनोंको आसनपर बैठाया, बड़े प्रेमसे उनके चरण पखारे और अघ्र्य, चन्दन, धूप और माला आदिसे उनकी पूजा करने लगे ॥ ३८ ॥ भगवान्‌ नर-नारायण सुखपूर्वक आसनपर विराजमान थे और मार्कण्डेयजीपर कृपा-प्रसादकी वर्षा कर रहे थे। पूजाके अनन्तर मार्कण्डेय मुनिने उन सर्वश्रेष्ठ मुनिवेषधारी नर-नारायणके चरणोंमें प्रणाम किया और यह स्तुति की ॥ ३९ ॥

मार्कण्डेय मुनिने कहा—भगवन् ! मैं अल्पज्ञ जीव भला, आपकी अनन्त महिमाका कैसे वर्णन करूँ ? आपकी प्रेरणासे ही सम्पूर्ण प्राणियों—ब्रह्मा, शङ्कर तथा मेरे शरीरमें भी प्राणशक्तिका सञ्चार होता है और फिर उसीके कारण वाणी, मन तथा इन्द्रियोंमें भी बोलने, सोचने-विचारने और करने-जाननेकी शक्ति आती है। इस प्रकार सबके प्रेरक और परम स्वतन्त्र होनेपर भी आप अपना भजन करनेवाले भक्तोंके प्रेम-बन्धनमें बँधे हुए हैं ॥ ४० ॥ प्रभो ! आपने केवल विश्वकी रक्षाके लिये ही जैसे मत्स्य-कूर्म आदि अनेकों अवतार ग्रहण किये हैं, वैसे ही आपने ये दोनों रूप भी त्रिलोकीके कल्याण, उसकी दु:ख-निवृत्ति और विश्वके प्राणियोंको मृत्युपर विजय प्राप्त करानेके लिये ग्रहण किया है। आप रक्षा तो करते ही हैं, मकड़ीके समान अपनेसे ही इस विश्वको प्रकट करते हैं और फिर स्वयं अपनेमें ही लीन भी कर लेते हैं ॥ ४१ ॥ आप चराचरका पालन और नियमन करनेवाले हैं। मैं आपके चरणकमलोंमें प्रणाम करता हूँ। जो आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण कर लेते हैं, उन्हें कर्म, गुण और कालजनित क्लेश स्पर्श भी नहीं कर सकते। वेदके मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपकी प्राप्तिके लिये निरन्तर आपका स्तवन, वन्दन, पूजन और ध्यान किया करते हैं ॥ ४२ ॥ प्रभो ! जीवके चारों ओर भय-ही-भयका बोलबाला है। औरोंकी तो बात ही क्या, आपके कालरूपसे स्वयं ब्रह्मा भी अत्यन्त भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी सीमित—केवल दो परार्धकी है। फिर उनके बनाये हुए भौतिक शरीरवाले प्राणियोंके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। ऐसी अवस्था  में आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करनेके अतिरिक्त और कोई भी परम कल्याण तथा सुख-शान्ति का उपाय हमारी समझमें नहीं आता; क्योंकि आप स्वयं ही मोक्षस्वरूप हैं ॥ ४३ ॥ भगवन् ! आप समस्त जीवों के परम गुरु, सबसे श्रेष्ठ और सत्य ज्ञानस्वरूप हैं। इसलिये आत्मस्वरूप को ढक देनेवाले देह-गेह आदि निष्फल, असत्य, नाशवान् और प्रतीतिमात्र पदार्थों को त्याग कर मैं आपके चरणकमलों  की ही शरण ग्रहण करता हूँ। कोई भी प्राणी यदि आपकी शरण ग्रहण कर लेता है, तो वह उससे अपने सारे अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर लेता है ॥ ४४ ॥ जीवोंके परम सुहृद् प्रभो ! यद्यपि सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण आपकी ही मूर्ति हैं—इन्हींके द्वारा आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति, लय आदि अनेकों मायामयी लीलाएँ करते हैं फिर भी आपकी सत्त्वगुणमयी मूर्ति ही जीवोंको शान्ति प्रदान करती है। रजोगुणी और तमोगुणी मूर्तियोंसे जीवोंको शान्ति नहीं मिल सकती। उनसे तो दु:ख, मोह और भयकी वृद्धि ही होती है ॥ ४५ ॥ भगवन् ! इसलिये बुद्धिमान् पुरुष आपकी और आपके भक्तोंकी परम प्रिय एवं शुद्ध मूर्ति नर-नारायणकी ही उपासना करते हैं। पाञ्चरात्र-सिद्धान्तके अनुयायी विशुद्ध सत्त्वको ही आपका श्रीविग्रह मानते हैं। उसीकी उपासनासे आपके नित्यधाम वैकुण्ठकी प्राप्ति होती है। उस धामकी यह विलक्षणता है कि वह लोक होनेपर भी सर्वथा भयरहित और भोगयुक्त होनेपर भी आत्मानन्दसे परिपूर्ण है। वे रजोगुण और तमोगुणको आपकी मूर्ति स्वीकार नहीं करते ॥ ४६ ॥ भगवन् ! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जगद्गुरु परमाराध्य और शुद्धस्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमार्गके प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगल स्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायणको नमस्कार करता हूँ ॥ ४७ ॥ आप यद्यपि प्रत्येक जीवकी इन्द्रियों तथा उनके विषयोंमें, प्राणोंमें तथा हृदयमें भी विद्यमान हैं तो भी आपकी मायासे जीवकी बुद्धि इतनी मोहित हो जाती है—ढक जाती है कि वह निष्फल और झूठी इन्द्रियोंके जालमें फँसकर आपकी झाँकीसे वञ्चित हो जाता है। किन्तु सारे जगत्के गुरु तो आप ही हैं। इसलिये पहले अज्ञानी होनेपर भी जब आपकी कृपासे उसे आपके ज्ञान-भण्डार वेदोंकी प्राप्ति होती है, तब वह आपके साक्षात् दर्शन कर लेता है ॥ ४८ ॥ प्रभो ! वेदमें आपका साक्षात्कार करानेवाला वह ज्ञान पूर्णरूपसे विद्यमान है, जो आपके स्वरूपका रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करनेका यत्न करते रहनेपर भी मोहमें पड़ जाते हैं। आप भी ऐसे लीलाविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्धमें जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तवमें आप देह आदि समस्त उपाधियोंमें छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानघन ही हैं। हे पुरुषोत्तम ! मैं आपकी वन्दना करता हूँ ॥ ४९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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