॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वादश स्कन्ध– आठवाँ अध्याय (पोस्ट०१)
मार्कण्डेयजी की तपस्या और वर-प्राप्ति
श्रीशौनक उवाच –
सूत जीव चिरं साधो वद नो वदतां वर ।
तमस्यपारे भ्रमतां नॄणां त्वं पारदर्शनः ॥ १ ॥
आहुश्चिरायुषं ऋषिं
मृकण्डुतनयं जनाः ।
यः कल्पान्ते
उर्वरितो येन ग्रस्तमिदं जगत् ॥ २ ॥
स वा अस्मत्
कुलोत्पन्नः कल्पेऽस्मिन् भार्गवर्षभः ।
नैवाधुनापि भूतानां
सम्प्लवः कोऽपि जायते ॥ ३ ॥
एक एवार्णवे
भ्राम्यन् ददर्श पुरुषं किल ।
वटपत्रपुटे तोकं
शयानं त्वेकमद्भुतम् ॥ ४ ॥
एष नः संशयो भूयान्
सूत कौतूहलं यतः ।
तं नश्छिन्धि
महायोगिन् पुराणेष्वपि सम्मतः ॥ ५ ॥
सूत उवाच -
प्रश्नस्त्वया महर्षेऽयं कृतो लोकभ्रमापहः ।
नारायणकथा यत्र
गीता कलिमलापहा ॥ ६ ॥
प्राप्तद्विजाति
संस्कारो मार्कण्डेयः पितुः क्रमात् ।
छन्दांस्यधीत्य
धर्मेण तपःस्वाध्यायसंयुतः ॥ ७ ॥
बृहद्व्रतधरः
शान्तो जटिलो वल्कलाम्बरः ।
बिभ्रत्कमण्डलुं
दण्डं उपवीतं समेखलम् ॥ ८ ॥
कृष्णाजिनं
साक्षसूत्रं कुशांश्च नियमर्द्धये ।
अग्न्यर्कगुरुविप्रात्म स्वर्चयन्
सन्ध्ययोर्हरिम् ॥ ९ ॥
सायं प्रातः स
गुरवे भैक्ष्यं आहृत्य वाग्यतः ।
बुभुजे गुर्वनुज्ञातः
सकृन्नो चेदुपोषितः ॥ १० ॥
एवं
तपःस्वाध्यायपरो वर्षाणां अयुतायुतम् ।
आराधयन् हृषीकेशं
जिग्ये मृत्युं सुदुर्जयम् ॥ ११ ॥
ब्रह्मा भृगुर्भवो
दक्षो ब्रह्मपुत्राश्च ये परे ।
नृदेवपितृभूतानि
तेनासन् अतिविस्मिताः ॥ १२ ॥
इत्थं बृहद्व्रतधरः
तपःस्वाध्याय संयमैः ।
दध्यावधोक्षजं योगी
ध्वस्तक्लेशान्तरात्मना ॥ १३ ॥
तस्यैवं
युञ्जतश्चित्तं महायोगेन योगिनः ।
व्यतीयाय महान्
कालो मन्वन्तरषडात्मकः ॥ १४ ॥
एतत् पुत्पुरन्दरो
ज्ञात्वा सप्तमेऽस्मिन् किलान्तरे ।
तपोविशङ्कितो
ब्रह्मन् आरेभे तद्विघातनम् ॥ १५ ॥
गन्धर्वाप्सरसः
कामं वसन्तमलयानिलौ ।
मुनये प्रेषयामास
रजस्तोकमदौ तथा ॥ १६ ॥
ते वै तदाश्रमं
जग्मुः हिमाद्रेः पार्श्व उत्तरे ।
पुष्पभद्रा नदी
यत्र चित्राख्या च शिला विभो ॥ १७ ॥
तदाश्रमपदं पुण्यं
पुण्यद्रुमलताञ्चितम् ।
पुण्यद्विजकुलाकीर्णं पुण्यामल जलाशयम् ॥ १८ ॥
मत्तभ्रमरसङ्गीतं
मत्तकोकिल कूजितम् ।
मत्तबर्हिनटाटोपं
मत्तद्विजकुलाकुलम् ॥ १९ ॥
वायुः प्रविष्ट
आदाय हिमनिर्झरशीकरान् ।
सुमनोभिः
परिष्वक्तो ववावुत्तम्भयन् स्मरम् ॥ २० ॥
उद्यच्चन्द्रनिशावक्त्रः प्रवालस्तबकालिभिः ।
गोपद्रुमलताजालैः
तत्रासीत् कुसुमाकरः ॥ २१ ॥
अन्वीयमानो
गन्धर्वैः गीतवादित्रयूथकैः ।
अदृश्यतात्तचापेषुः
स्वःस्त्रीयूथपतिः स्मरः ॥ २२ ॥
हुत्वाग्निं
समुपासीनं ददृशुः शक्रकिङ्कराः ।
मीलिताक्षं
दुराधर्षं मूर्तिमन्तं इवानलम् ॥ २३ ॥
ननृतुस्तस्य पुरतः
स्त्रियोऽथो गायका जगुः ।
मृदङ्गवीणापणवैः
वाद्यं चक्रुर्मनोरमम् ॥ २४ ॥
सन्दधेऽस्त्रं
स्वधनुषि कामः पञ्चमुखं तदा ।
मधुर्मनो रजस्तोक
इन्द्रभृत्या व्यकम्पयन् ॥ २५ ॥
क्रीडन्त्याः
पुञ्जिकस्थल्याः कन्दुकैः स्तनगौरवात् ।
भृशमुद्विग्नमध्यायाः केशविस्रंसितस्रजः ॥ २६ ॥
इतस्ततो
भ्रमद्दृष्टेः चलन्त्या अनु कन्दुकम् ।
वायुर्जहार तद्वासः
सूक्ष्मं त्रुटितमेखलम् ॥ २७ ॥
विससर्ज तदा बाणं
मत्वा तं स्वजितं स्मरः ।
सर्वं तत्राभवन्
मोघं अनीशस्य यथोद्यमः ॥ २८ ॥
त इत्थमपकुर्वन्तो
मुनेस्तत्तेजसा मुने ।
दह्यमाना निववृतुः
प्रबोध्याहिमिवार्भकाः ॥ २९ ॥
इतीन्द्रानुचरैर्ब्रह्मन् धर्षितोऽपि महामुनिः ।
यन्नागादहमो भावं न
तच्चित्रं महत्सु हि ॥ ३० ॥
दृष्ट्वा निस्तेजसं
कामं सगणं भगवान् स्वराट् ।
श्रुत्वानुभावं
ब्रह्मर्षेः विस्मयं समगात् परम् ॥ ३१ ॥
शौनकजीने कहा—साधुशिरोमणि सूतजी ! आप आयुष्मान् हों।
सचमुच आप वक्ताओंके सिरमौर हैं। जो लोग संसारके अपार अन्धकारमें भूल-भटक रहे हैं, उन्हें आप वहाँसे निकालकर प्रकाशस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार करा देते
हैं। आप कृपा करके हमारे एक प्रश्रका उत्तर दीजिये ॥ १ ॥ लोग कहते हैं कि
मृकण्ड-ऋषिके पुत्र मार्कण्डेय ऋषि चिरायु हैं और जिस समय प्रलय ने सारे जगत् को निगल लिया था, उस समय भी वे बचे रहे ॥ २ ॥ परन्तु सूतजी ! वे तो इसी कल्पमें हमारे ही
वंशमें उत्पन्न हुए एक श्रेष्ठ भृगु-वंशी हैं और जहाँतक हमें मालूम है, इस कल्पमें अबतक प्राणियोंका कोई प्रलय नहीं हुआ है ॥ ३ ॥ ऐसी स्थितिमें
यह बात कैसे सत्य हो सकती है कि जिस समय सारी पृथ्वी प्रलय कालीन समुद्रमें डूब
गयी थी, उस समय मार्कण्डेयजी उसमें डूब-उतरा रहे थे और
उन्होंने अक्षयवटके पत्तेके दोनेमें अत्यन्त अद्भुत और सोये हुए बालमुकुन्दका
दर्शन किया ॥ ४ ॥ सूतजी ! हमारे मनमें बड़ा सन्देह है और इस बातको जाननेकी बड़ी
उत्कण्ठा है। आप बड़े योगी हैं, पौराणिकोंमें सम्मानित हैं।
आप कृपा करके हमारा यह सन्देह मिटा दीजिये ॥ ५ ॥
सूतजीने कहा—शौनकजी ! आपने बड़ा सुन्दर प्रश्र किया।
इससे लोगोंका भ्रम मिट जायगा। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस कथामें भगवान्
नारायणकी महिमा है। जो इसका गान करता है, उसके सारे
कलिमल नष्ट हो जाते हैं ॥ ६ ॥ शौनकजी ! मृकण्ड ऋषिने अपने पुत्र मार्कण्डेयके सभी
संस्कार समय-समयपर किये। मार्कण्डेयजी विधिपूर्वक वेदोंका अध्ययन करके तपस्या और
स्वाध्यायसे सम्पन्न हो गये थे ॥ ७ ॥ उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यका व्रत ले रखा था।
शान्तभावसे रहते थे। सिरपर जटाएँ बढ़ा रखी थीं। वृक्षोंकी छालका ही वस्त्र पहनते
थे। वे अपने हाथोंमें कमण्डलु और दण्ड धारण करते, शरीरपर
यज्ञोपवीत और मेखला शोभायमान रहती ॥ ८ ॥ काले मृगका चर्म, रुद्राक्षमाला
और कुश—यही उनकी पूँजी थी। यह सब उन्होंने अपने आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतकी पूर्तिके
लिये ही ग्रहण किया था। वे सायङ्काल और प्रात:काल अग्रिहोत्र, सूर्योपस्थान, गुरुवन्दन, ब्राह्मण-सत्कार,
मानस-पूजा और ‘मैं परमात्माका स्वरूप ही हूँ’ इस प्रकारकी भावना
आदिके द्वारा भगवान्की आराधना करते ॥ ९ ॥ सायं-प्रात: भिक्षा लाकर गुरुदेवके
चरणोंमें निवेदन कर देते और मौन हो जाते। गुरुजीकी आज्ञा होती तो एक बार खा लेते,
अन्यथा उपवास कर जाते ॥ १० ॥ मार्कण्डेयजीने इस प्रकार तपस्या और
स्वाध्यायमें तत्पर रहकर करोड़ों वर्षोंतक भगवान्की आराधना की और इस प्रकार उस
मृत्युपर भी विजय प्राप्त कर ली, जिसको जीतना बड़े-बड़े
योगियोंके लिये भी कठिन है ॥ ११ ॥ मार्कण्डेयजीकी मृत्यु-विजयको देखकर ब्रह्मा,
भृगु, शङ्कर, दक्ष
प्रजापति, ब्रह्माजीके अन्यान्य पुत्र तथा मनुष्य, देवता, पितर एवं अन्य सभी प्राणी अत्यन्त विस्मित हो
गये ॥ १२ ॥ आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतधारी एवं योगी मार्कण्डेयजी इस प्रकार तपस्या,
स्वाध्याय और संयम आदिके द्वारा अविद्या आदि सारे क्लेशोंको मिटाकर
शुद्ध अन्त:करणसे इन्द्रियातीत परमात्माका ध्यान करने लगे ॥ १३ ॥ योगी
मार्कण्डेयजी महायोगके द्वारा अपना चित्त भगवान्के स्वरूपमें जोड़ते रहे। इस
प्रकार साधन करते-करते बहुत समय—छ: मन्वन्तर व्यतीत हो गये ॥ १४ ॥ ब्रह्मन् ! इस
सातवें मन्वन्तरमें जब इन्द्रको इस बातका पता चला, तब तो वे
उनकी तपस्यासे शंकित और भयभीत हो गये। इसलिये उन्होंने उनकी तपस्यामें विघ्न डालना
आरम्भ कर दिया ॥ १५ ॥
शौनकजी ! इन्द्रने मार्कण्डेयजीकी तपस्यामें विघ्न
डालनेके लिये उनके आश्रमपर गन्धर्व, अप्सराएँ,
काम, वसन्त, मलयानिल,
लोभ और मदको भेजा ॥ १६ ॥ भगवन्! वे सब उनकी आज्ञाके अनुसार उनके
आश्रमपर गये। मार्कण्डेयजीका आश्रम हिमालयके उत्तरकी ओर है। वहाँ पुष्पभद्रा नामकी
नदी बहती है और उसके पास ही चित्रा नामकी एक शिला है ॥ १७ ॥ शौनकजी !
मार्कण्डेयजीका आश्रम बड़ा ही पवित्र है। चारों ओर हरे-भरे पवित्र वृक्षोंकी
पंक्तियाँ हैं, उनपर लताएँ लहलहाती रहती हैं। वृक्षोंके
झुरमुटमें स्थान-स्थानपर पुण्यात्मा ऋषिगण निवास करते हैं और बड़े ही पवित्र एवं
निर्मल जलसे भरे जलाशय सब ऋतुओंमें एक-से ही रहते हैं ॥ १८ ॥ कहीं मतवाले भौंरे
अपनी सङ्गीतमयी गुंजारसे लोगोंका मन आकर्षित करते रहते हैं तो कहीं मतवाले कोकिल
पञ्चम स्वरमें ‘कुहू-कुहू’ कूकते रहते हैं; कहीं मतवाले मोर
अपने पंख फैलाकर कलापूर्ण नृत्य करते रहते हैं तो कहीं अन्य मतवाले पक्षियोंका
झुंड खेलता रहता है ॥ १९ ॥ मार्कण्डेय मुनिके ऐसे पवित्र आश्रममें इन्द्रके भेजे
हुए वायुने प्रवेश किया। वहाँ उसने पहले शीतल झरनोंकी नन्हीं-नन्हीं फुहियाँ
संग्रह कीं। इसके बाद सुगन्धित पुष्पोंका आलिङ्गन किया और फिर कामभावको उत्तेजित
करते हुए धीरे-धीरे बहने लगा ॥ २० ॥ कामदेवके प्यारे सखा वसन्तने भी अपनी माया
फैलायी। सन्ध्याका समय था। चन्द्रमा उदित हो अपनी मनोहर किरणोंका विस्तार कर रहे
थे। सहस्र-सहस्र डालियोंवाले वृक्ष लताओंका आलिङ्गन पाकर धरतीतक झुके हुए थे।
नयी-नयी कोपलों, फलों और फूलोंके गुच्छे अलग ही शोभायमान हो
रहे थे ॥ २१ ॥ वसन्तका साम्राज्य देखकर कामदेवने भी वहाँ प्रवेश किया। उसके साथ
गाने-बजानेवाले गन्धर्व झुंड-के-झुंड चल रहे थे, उसके चारों
ओर बहुत-सी स्वर्गीय अप्सराएँ चल रही थीं और अकेला काम ही सबका नायक था। उसके
हाथमें पुष्पोंका धनुष और उसपर सम्मोहन आदि बाण चढ़े हुए थे ॥ २२ ॥
उस समय मार्कण्डेय मुनि अग्निहोत्र करके भगवान् की
उपासना कर रहे थे। उनके नेत्र बंद थे। वे इतने तेजस्वी थे, मानो स्वयं अग्निदेव ही मूर्तिमान् होकर बैठे हों ! उनको देखनेसे ही मालूम
हो जाता था कि इनको पराजित कर सकना बहुत ही कठिन है। इन्द्रके आज्ञाकारी सेवकोंने
मार्कण्डेय मुनिको इसी अवस्थामें देखा ॥ २३ ॥ अब अप्सराएँ उनके सामने नाचने लगीं।
कुछ गन्धर्व मधुर गान करने लगे तो कुछ मृदङ्ग, वीणा, ढोल आदि बाजे बड़े मनोहर स्वरमें बजाने लगे ॥ २४ ॥ शौनकजी ! अब कामदेवने
अपने पुष्पनिर्मित धनुषपर पञ्चमुख बाण चढ़ाया। उसके बाणके पाँच मुख हैं—शोषण,
दीपन, सम्मोहन, तापन और
उन्मादन। जिस समय वह निशाना लगानेकी ताकमें था, उस समय
इन्द्रके सेवक वसन्त और लोभ मार्कण्डेय मुनिका मन विचलित करनेके लिये प्रयत्नशील
थे ॥ २५ ॥ उनके सामने ही पुञ्जिकस्थली नामकी सुन्दरी अप्सरा गेंद खेल रही थी।
स्तनोंके भारसे बार-बार उसकी कमर लचक जाया करती थी। साथ ही उसकी चोटियोंमें गुँथे
हुए सुन्दर-सुन्दर पुष्प और मालाएँ बिखरकर धरतीपर गिरती जा रही थीं ॥ २६ ॥ कभी-कभी
वह तिरछी चितवनसे इधर-उधर देख लिया करती थी। उसके नेत्र कभी गेंदके साथ आकाशकी ओर
जाते, कभी धरतीकी ओर और कभी हथेलियोंकी ओर। वह बड़े
हाव-भावके साथ गेंदकी ओर दौड़ती थी। उसी समय उसकी करधनी टूट गयी और वायुने उसकी
झीनी-सी साड़ीको शरीरसे अलग कर दिया ॥ २७ ॥ कामदेवने अपना उपयुक्त अवसर देखकर और
यह समझकर कि अब मार्कण्डेय मुनिको मैंने जीत लिया, उनके ऊपर
अपना बाण छोड़ा। परन्तु उसकी एक न चली। मार्कण्डेय मुनिपर उसका सारा उद्योग निष्फल
हो गया—ठीक वैसे ही, जैसे असमर्थ और अभागे पुरुषोंके प्रयत्न
विफल हो जाते हैं ॥ २८ ॥ शौनकजी ! मार्कण्डेय मुनि अपरिमित तेजस्वी थे। काम,
वसन्त आदि आये तो थे इसलिये कि उन्हें तपस्यासे भ्रष्ट कर दें;
परन्तु अब उनके तेजसे जलने लगे और ठीक उसी प्रकार भाग गये, जैसे छोटे-छोटे बच्चे सोते हुए साँपको जगाकर भाग जाते हैं ॥ २९ ॥ शौनकजी !
इन्द्रके सेवकोंने इस प्रकार मार्कण्डेयजीको पराजित करना चाहा, परन्तु वे रत्तीभर भी विचलित न हुए। इतना ही नहीं, उनके
मनमें इस बातको लेकर तनिक भी अहङ्कार का भाव न हुआ। सच है, महापुरुषोंके
लिये यह कौन-सी आश्चर्यकी बात है ॥ ३० ॥ जब देवराज इन्द्रने देखा कि कामदेव अपनी
सेनाके साथ निस्तेज—हतप्रभ होकर लौटा है और सुना कि ब्रहमर्षि मार्कण्डेयजी परम
प्रभावशाली हैं, तब उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ ॥ ३१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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