बुधवार, 21 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– सातवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

 श्रीमद्भागवतमहापुराण

 द्वादश स्कन्धसातवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

 अथर्ववेद की शाखाएँ और पुराणों के लक्षण

 

 रक्षाच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगे युगे ।

 तिर्यङ्‌मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यन्ते यैस्त्रयीद्विषः ॥ १४ ॥

 मन्वन्तरं मनुर्देवा मनुपुत्राः सुरेश्वराः ।

 ऋषयोंऽशावताराश्च हरेः षड्‌विधमुच्यते ॥ १५ ॥

 राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः ।

 वंशानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्च ये ॥ १६ ॥

 नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यन्तिको लयः ।

 संस्थेति कविभिः प्रोक्तः चतुर्धास्य स्वभावतः ॥ १७ ॥

 हेतुर्जीवोऽस्य सर्गादेः अविद्याकर्मकारकः ।

 यं चानुशायिनं प्राहुः अव्याकृतमुतापरे ॥ १८ ॥

 व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत् स्वप्नसुषुप्तिषु ।

 मायामयेषु तद्ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः ॥ १९ ॥

 पदार्थेषु यथा द्रव्यं सन्मात्रं रूपनामसु ।

 बीजादि पञ्चतान्तासु ह्यवस्थासु युतायुतम् ॥ २० ॥

 विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम् ।

 योगेन वा तदात्मानं वेदेहाया निवर्तते ॥ २१ ॥

 एवं लक्षणलक्ष्याणि पुराणानि पुराविदः ।

 मुनयोऽष्टादश प्राहुः क्षुल्लकानि महान्ति च ॥ २२ ॥

 ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं लैङ्‌गं सगारुडं ।

 नारदीयं भागवतं आग्नेयं स्कान्दसंज्ञितम् ॥ २३ ॥

 भविष्यं ब्रह्मवैवर्तं मार्कण्डेयं सवामनम् ।

 वाराहं मात्स्यं कौर्मं च ब्रह्माण्डाख्यं इति त्रिषट् ॥ २४ ॥

 ब्रह्मन्निदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुनेः ।

 शिष्यशिष्यप्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम् ॥ २५ ॥

 

भगवान्‌ युग-युगमें पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवता आदिके रूपमें अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं। इन्हीं अवतारोंमें वे वेदधर्मके विरोधियोंका संहार भी करते हैं। उनकी यह अवतार-लीला विश्वकी रक्षाके लिये ही होती है, इसीलिये उसका नाम ‘रक्षा’ है ॥ १४ ॥ मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और भगवान्‌के अंशावतार—इन्हीं छ: बातोंकी विशेषतासे युक्त समयको ‘मन्वन्तर’ कहते हैं ॥ १५ ॥ ब्रह्माजीसे जितने राजाओंकी सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तानपरम्परा- को ‘वंश’ कहते हैं। उन राजाओंके तथा उनके वंशधरोंके चरित्रका नाम ‘वंशानुचरित’ है ॥ १६ ॥ इस विश्वब्रह्माण्डका स्वभावसे ही प्रलय हो जाता है। उसके चार भेद हैं—नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिक। तत्त्वज्ञ विद्वानोंने इन्हींको ‘संस्था’ कहा है ॥ १७ ॥ पुराणोंके लक्षणमें ‘हेतु’ नामसे जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तवमें वही सर्ग-विसर्ग आदिका हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकारके कर्मकलापमें उलझ गया है। जो लोग उसे चैतन्यप्रधानकी दृष्टिसे देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृतिमें शयन करनेवाला कहते हैं; और जो उपाधिकी दृष्टिसे कहते हैं, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृतिरूप कहते हैं ॥ १८ ॥ जीवकी वृत्तियोंके तीन विभाग हैं—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। जो इन अवस्थाओंमें इनके अभिमानी विश्व, तैजस और प्राज्ञके मायामय रूपोंमें प्रतीत होता है और इन अवस्थाओंसे परे तुरीयतत्त्वके रूपमें भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसीको यहाँ ‘अपाश्रय’ शब्दसे कहा गया है ॥ १९ ॥ नामविशेष और रूपविशेषसे युक्त पदार्थोंपर विचार करें, तो वे सत्तामात्र वस्तुके रूपमें सिद्ध होते हैं। उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं। असलमें वह सत्ता ही उन विशेषताओंके रूपमें प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है। ठीक इसी न्यायसे शरीर और विश्वब्रह्माण्डकी उत्पत्तिसे लेकर मृत्यु और महाप्रलयपर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूपमें परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है। यही वाक्य-भेदसे अधिष्ठान और साक्षीके रूपमें ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रयतत्त्व है ॥ २० ॥ जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यासके द्वारा सत्त्वगुण-रजोगुण-तमोगुण सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जाग्रत्-स्वप्न आदि स्वाभाविक वृत्तियोंका त्याग करके उपराम हो जाता है, तब शान्तवृत्तिमें ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्योंके द्वारा आत्मज्ञानका उदय होता है। उस समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म-वासना और कर्मप्रवृत्तिसे निवृत्त हो जाता है ॥ २१ ॥

शौनकादि ऋषियो ! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंने इन्हीं लक्षणोंके द्वारा पुराणोंकी यह पहचान बतलायी है। ऐसे लक्षणोंसे युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं ॥ २२ ॥ उनके नाम ये हैं— ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिङ्गपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामन पुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण यह अठारह हैं ॥ २३-२४ ॥ शौनकजी ! व्यासजीकी शिष्य-परम्पराने जिस प्रकार वेदसंहिता और पुराणसंहिताओंका अध्ययन- अध्यापन, विभाजन आदि किया वह मैंने तुम्हें सुना दिया। यह प्रसङ्ग सुनने और पढऩेवालों के ब्रह्मतेजकी अभिवृद्धि करता है ॥ २५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...