॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वादश स्कन्ध– दसवाँ अध्याय (पोस्ट०१)
मार्कण्डेयजी को भगवान् शङ्कर का वरदान
सूत उवाच -
स एवं अनुभूयेदं नारायणविनिर्मितम् ।
वैभवं योगमायायाः तमेव शरणं ययौ ॥ १ ॥
श्रीमार्कण्डेय उवाच -
प्रपन्नोऽस्म्यङ्घ्रिमूलं ते प्रपन्नाभयदं हरे ।
यन्माययापि विबुधा
मुह्यन्ति ज्ञानकाशया ॥ २ ॥
सूत उवाच -
तमेवं निभृतात्मानं वृषेण दिवि पर्यटन् ।
रुद्राण्या भगवान्
रुद्रो ददर्श स्वगणैर्वृतः ॥ ३ ॥
अथोमा तं ऋषिं
वीक्ष्य गिरिशं समभाषत ।
पश्येमं भगवन्
विप्रं निभृतात्मेन्द्रियाशयम् ॥ ४ ॥
निभृतोदझषव्रातं
वातापाये यथार्णवः ।
कुर्वस्य तपसः
साक्षात् संसिद्धिं सिद्धिदो भवान् ॥ ५ ॥
श्रीभगवानुवाच -
नैवेच्छत्याशिषः क्वापि ब्रह्मर्षिर्मोक्षमप्युत ।
भक्तिं परां भगवति
लब्धवान् पुरुषेऽव्यये ॥ ६ ॥
अथापि संवदिष्यामो
भवान्येतेन साधुना ।
अयं हि परमो लाभो
नृणां साधुसमागमः ॥ ७ ॥
सूत उवाच -
इत्युक्त्वा तमुपेयाय भगवान् स सतां गतिः ।
ईशानः
सर्वविद्यानां ईश्वरः सर्वदेहिनाम् ॥ ८ ॥
तयोरागमनं साक्षाद्
ईशयोर्जगदात्मनोः ।
न वेद
रुद्धधीवृत्तिः आत्मानं विश्वमेव च ॥ ९ ॥
भगवान् तदभिज्ञाय
गिरिशो योगमायया ।
आविशत्तद्गुहाकाशं
वायुश्छिद्रमिवेश्वरः ॥ १० ॥
आत्मन्यपि शिवं
प्राप्तं तडित्पिङ्गजटाधरम् ।
त्र्यक्षं दशभुजं
प्रांशुं उद्यन्तं इव भास्करम् ॥ ११ ॥
व्याघ्रचर्माम्बरं
शूल खट्वाङ्गचर्मभिः ।
अक्षमालाडमरुक
कपालासिधनुः सह ॥ १२ ॥
बिभ्राणं सहसा भातं
विचक्ष्य हृदि विस्मितः ।
किमिदं कुत एवेति
समाधेर्विरतो मुनिः ॥ १३ ॥
नेत्रे उन्मील्य
ददृशे सगणं सोमयाऽऽगतम् ।
रुद्रं
त्रिलोकैकगुरुं ननाम शिरसा मुनिः ॥ १४ ॥
तस्मै सपर्यां
व्यदधात् सगणाय सहोमया ।
स्वागतासनपाद्यार्घ्य गन्धस्रग् धूपदीपकैः ॥ १५
॥
आह चात्मानुभावेन
पूर्णकामस्य ते विभो ।
करवाम किमीशान
येनेदं निर्वृतं जगत् ॥ १६ ॥
नमः शिवाय शान्ताय
सत्त्वाय प्रमृडाय च ।
रजोजुषेऽप्य घोराय
नमस्तुभ्यं तमोजुषे ॥ १७ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! मार्कण्डेय मुनिने इस
प्रकार नारायण-निर्मित योगमाया- वैभवका अनुभव किया। अब यह निश्चय करके कि इस
मायासे मुक्त होनेके लिये मायापति भगवान् की शरण ही एकमात्र उपाय है, उन्हींकी शरणमें स्थित हो गये ॥ १ ॥
मार्कण्डेयजीने मन-ही-मन कहा—प्रभो ! आपकी माया
वास्तवमें प्रतीतिमात्र होनेपर भी सत्य ज्ञानके समान प्रकाशित होती है और
बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके खेलोंमें मोहित हो जाते हैं। आपके श्रीचरणकमल ही
शरणागतोंको सब प्रकारसे अभयदान करते हैं। इसलिये मैंने उन्हींकी शरण ग्रहण की है ॥
२ ॥
सूतजी कहते हैं—मार्कण्डेयजी इस प्रकार शरणागतिकी
भावनामें तन्मय हो रहे थे। उसी समय भगवान् शङ्कर भगवती पार्वतीजीके साथ नन्दीपर
सवार होकर आकाशमार्गसे विचरण करते हुए उधर आ निकले और मार्कण्डेयजीको उसी
अवस्थामें देखा। उनके साथ बहुत-से गण भी थे ॥ ३ ॥ जब भगवती पार्वतीने मार्कण्डेय
मुनिको ध्यानकी अवस्थामें देखा, तब उनका हृदय वात्सल्य-स्नेहसे उमड़
आया। उन्होंने शङ्करजीसे कहा—‘भगवन् ! तनिक इस ब्राह्मणकी ओर तो देखिये। जैसे
तूफान शान्त हो जानेपर समुद्रकी लहरें और मछलियाँ शान्त हो जाती हैं और समुद्र
धीर-गम्भीर हो जाता है, वैसे ही इस ब्राह्मणका शरीर, इन्द्रिय और अन्त:करण शान्त हो रहा है। समस्त सिद्धियोंके दाता आप ही हैं।
इसलिये कृपा करके आप इस ब्राह्मणकी तपस्याका प्रत्यक्ष फल दीजिये’ ॥ ४-५ ॥
भगवान् शङ्कर ने कहा—देवि ! ये ब्रहमर्षि लोक अथवा
परलोककी कोई भी वस्तु नहीं चाहते। और तो क्या, इनके मनमें कभी
मोक्षकी भी आकाङ्क्षा नहीं होती। इसका कारण यह है कि घट- घटवासी अविनाशी भगवान्के
चरणकमलोंमें इन्हें परम भक्ति प्राप्त हो चुकी है ॥ ६ ॥ प्रिये ! यद्यपि इन्हें
हमारी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी मैं इनके साथ बातचीत
करूँगा; क्योंकि ये महात्मा पुरुष हैं। जीवमात्रके लिये सबसे
बड़े लाभकी बात यही है कि संत पुरुषोंका समागम प्राप्त हो ॥ ७ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! भगवान् शङ्कर समस्त
विद्याओंके प्रवर्तक और सारे प्राणियोंके हृदयमें विराजमान अन्तर्यामी प्रभु हैं।
जगत्के जितने भी संत हैं, उनके एकमात्र आश्रय और आदर्श भी वही हैं। भगवती पार्वतीसे इस
प्रकार कहकर भगवान् शङ्कर मार्कण्डेय मुनिके पास गये ॥ ८ ॥ उस समय मार्कण्डेय
मुनिकी समस्त मनोवृत्तियाँ भगवद्भावमें तन्मय थीं। उन्हें अपने शरीर और जगत् का
बिलकुल पता न था। इसलिये उस समय वे यह भी न जान सके कि मेरे सामने सारे विश्वके
आत्मा स्वयं भगवान् गौरी-शङ्कर पधारे हुए हैं ॥ ९ ॥ शौनकजी ! सर्वशक्तिमान्
भगवान् कैलासपतिसे यह बात छिपी न रही कि मार्कण्डेय मुनि इस समय किस अवस्थामें
हैं। इसलिये जैसे वायु अवकाशके स्थानमें अनायास ही प्रवेश कर जाती है, वैसे ही वे अपनी योगमायासे मार्कण्डेय मुनिके हृदयाकाशमें प्रवेश कर गये ॥
१० ॥ मार्कण्डेय मुनिने देखा कि उनके हृदयमें तो भगवान् शङ्करके दर्शन हो रहे
हैं। शङ्करजीके सिरपर बिजलीके समान चमकीली पीली-पीली जटाएँ शोभायमान हो रही हैं।
तीन नेत्र हैं और दस भुजाएँ। लंबा-तगड़ा शरीर उदयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी है ॥
११ ॥ शरीरपर बाघाम्बर धारण किये हुए हैं और हाथोंमें शूल, खट्वांग,
ढाल, रुद्राक्ष-माला, डमरू,
खप्पर, तलवार और धनुष लिये हैं ॥ १२ ॥
मार्कण्डेय मुनि अपने हृदयमें अकस्मात् भगवान् शङ्करका यह रूप देखकर विस्मित हो
गये। ‘यह क्या है ? कहाँसे आया ?’ इस
प्रकारकी वृत्तियोंका उदय हो जानेसे उन्होंने अपनी समाधि खोल दी ॥ १३ ॥ जब
उन्होंने आँखें खोलीं, तब देखा कि तीनों लोकोंके एकमात्र
गुरु भगवान् शङ्कर श्रीपार्वतीजी तथा अपने गणोंके साथ पधारे हुए हैं। उन्होंने
उनके चरणोंमें माथा टेककर प्रणाम किया ॥ १४ ॥ तदनन्तर मार्कण्डेय मुनिने स्वागत,
आसन, पाद्य, अघ्र्य,
गन्ध, पुष्पमाला, धूप और
दीप आदि उपचारोंसे भगवान् शङ्कर, भगवती पार्वती और उनके
गणोंकी पूजा की ॥ १५ ॥ इसके पश्चात् मार्कण्डेय मुनि उनसे कहने लगे—‘सर्वव्यापक और
सर्वशक्तिमान् प्रभो ! आप अपनी आत्मानुभूति और महिमासे ही पूर्णकाम हैं। आपकी
शान्ति और सुखसे ही सारे जगत्में सुख-शान्तिका विस्तार हो रहा है, ऐसी अवस्थामें मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ १६ ॥ मैं
आपके त्रिगुणातीत सदाशिव स्वरूपको और सत्त्वगुणसे युक्त शान्तस्वरूपको नमस्कार
करता हूँ। मैं आपके रजोगुणयुक्त सर्वप्रवर्तक स्वरूप एवं तमोगुणयुक्त अघोर
स्वरूपको नमस्कार करता हूँ’ ॥ १७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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