शनिवार, 24 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– दसवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धदसवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

मार्कण्डेयजी को भगवान्‌ शङ्कर का वरदान

 

 सूत उवाच -

एवं स्तुतः स भगवान् आदिदेवः सतां गतिः ।

परितुष्टः प्रसन्नात्मा प्रहसन् तं अभाषत ॥ १८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 वरं वृणीष्व नः कामं वरदेशा वयं त्रयः ।

 अमोघं दर्शनं येषां मर्त्यो यद् विन्दतेऽमृतम् ॥ १९ ॥

 ब्राह्मणाः साधवः शान्ता निःसङ्‌गा भूतवत्सलाः ।

 एकान्तभक्ता अस्मासु निर्वैराः समदर्शिनः ॥ २० ॥

 सलोका लोकपालास्तान् वन्दन्त्यर्चन्त्युपासते ।

 अहं च भगवान् ब्रह्मा स्वयं च हरिरीश्वरः ॥ २१ ॥

 न ते मय्यच्युतेऽजे च भिदामण्वपि चक्षते ।

 नात्मनश्च जनस्यापि तद् युष्मान् वयमीमहि ॥ २२ ॥

 न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवाश्चेतनोज्झिताः ।

 ते पुनन्ति उरुकालेन यूयं दर्शनमात्रतः ॥ २३ ॥

 ब्राह्मणेभ्यो नमस्यामो येऽस्मद् रूपं त्रयीमयम् ।

 बिभ्रत्यात्मसमाधान तपःस्वाध्यायसंयमैः ॥ २४ ॥

 श्रवणाद् दर्शनाद् वापि महापातकिनोऽपि वः ।

 शुध्येरन् अन्त्यजाश्चापि किमु संभाषणादिभिः ॥ २५ ॥

 

 सूत उवाच -

इति चन्द्रललामस्य धर्मगुह्योपबृंहितम् ।

 वचोऽमृतायनं ऋषिः नातृप्यत् कर्णयोः पिबन् ॥ २६ ॥

 स चिरं मायया विष्णोः भ्रामितः कर्शितो भृशम् ।

 शिववागमृतध्वस्त क्लेशपुञ्जस्तमब्रवीत् ॥ २७ ॥

 

 श्रीमार्कण्डेय उवाच -

अहो ईश्वरलीलेयं दुर्विभाव्या शरीरिणाम् ।

 यन्नमन्तीशितव्यानि स्तुवन्ति जगदीश्वराः ॥ २८ ॥

 धर्मं ग्राहयितुं प्रायः प्रवक्तारश्च देहिनाम् ।

 आचरन्ति अनुमोदन्ते क्रियमाणं स्तुवन्ति च ॥ २९ ॥

 नैतावता भगवतः स्वमायामयवृत्तिभिः ।

 न दुष्येतानुभावस्तैः मायिनः कुहकं यथा ॥ ३० ॥

 सृष्ट्वेदं मनसा विश्वं आत्मनानुप्रविश्य यः ।

 गुणैः कुर्वद्‌भिराभाति कर्तेव स्वप्नदृग् यथा ॥ ३१ ॥

 तस्मै नमो भगवते त्रिगुणाय गुणात्मने ।

 केवलायाद्वितीयाय गुरवे ब्रह्ममूर्तये ॥ ३२ ॥

 कं वृणे नु परं भूमन् वरं त्वद् वरदर्शनात् ।

 यद्दर्शनात्पूर्णकामः सत्यकामः पुमान् भवेत् ॥ ३३ ॥

 वरमेकं वृणेऽथापि पूर्णात् कामाभिवर्षणात् ।

 भगवति अच्युतां भक्तिं तत्परेषु तथा त्वयि ॥ ३४ ॥

 

 सूत उवाच -

इत्यर्चितोऽभिष्टुतश्च मुनिना सूक्तया गिरा ।

 तं आह भगवान् शर्वः शर्वया चाभिनन्दितः ॥ ३५ ॥

 कामो महर्षे सर्वोऽयं भक्तिमान् त्वं अमधोक्षजे ।

 आकल्पान्ताद् यशः पुण्यं अमजरामरता तथा ॥ ३६ ॥

 ज्ञानं त्रैकालिकं ब्रह्मन् विज्ञानं च विरक्तिमत् ।

 ब्रह्मवर्चस्विनो भूयात् पुराणाचार्यतास्तु ते ॥ ३७ ॥

 

 

 सूत उवाच -

एवं वरान् स मुनये दत्त्वागात् त्र्यक्ष ईश्वरः ।

 देव्यै तत्कर्म कथयन् अनुभूतं पुरामुना ॥ ३८ ॥

 सोऽप्यवाप्तमहायोग महिमा भार्गवोत्तमः ।

 विचरति अधुनाप्यद्धा हरावेकान्ततां गतः ॥ ३९ ॥

 अनुवर्णितमेतत्ते मार्कण्डेयस्य धीमतः ।

 अनुभूतं भगवतो मायावैभवमद्‌भुतम् ॥ ४० ॥

 एतत् केचिद् अविद्वांसो मायासंसृतिरात्मनः ।

 अनाद्यावर्तितं नॄणां कादाचित्कं प्रचक्षते ॥ ४१ ॥

य एवमेतद्‌भृगुवर्य वर्णितं

     रथाङ्‌गपाणेः अनुभावभावितम् ।

 संश्रावयेत् संश्रृणुयादु तावुभौ

     तयोर्न कर्माशयसंसृतिर्भवेत् ॥ ४२ ॥

 

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! जब मार्कण्डेय मुनिने संतोंके परम आश्रय देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनपर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और बड़े प्रसन्न चित्तसे हँसते हुए कहने लगे ॥ १८ ॥

भगवान्‌ शङ्कर ने कहा—मार्कण्डेयजी ! ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं—हम तीनों ही वरदाताओं के स्वामी हैं, हमलोगों का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। हमलोगों से ही मरणशील मनुष्य भी अमृतत्व की प्राप्ति कर लेता है। इसलिये तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो ॥ १९ ॥ ब्राह्मण स्वभावसे ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं। वे किसी के साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होनेपर भी प्राणियों का कष्ट देखकर उसके निवारण के लिये पूरे हृदयसे जुट जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेमी एवं भक्त होते हैं ॥ २० ॥ सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राह्मणों की वन्दना, पूजा और उपासना किया करते हैं। केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान्‌ ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात् ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवामें संलग्र रहते हैं ॥ २१ ॥ ऐसे शान्त महापुरुष मुझमें, विष्णुभगवान्‌में, ब्रह्मामें, अपनेमें और सब जीवोंमें अणुमात्र भी भेद नहीं देखते। सदा- सर्वदा, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्माका ही दर्शन करते हैं। इसलिये हम तुम्हारे-जैसे महात्माओंकी स्तुति और सेवा करते हैं ॥ २२ ॥ मार्कण्डेयजी ! केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड मूर्तियाँ ही देवता नहीं होतीं। सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे-जैसे संत हैं; क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनोंमें पवित्र करते हैं, परन्तु तुमलोग दर्शनमात्रसे ही पवित्र कर देते हो ॥ २३ ॥ हमलोग तो ब्राह्मणोंको ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्तकी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा हमारे वेदमय शरीरको धारण करते हैं ॥ २४ ॥ मार्कण्डेयजी ! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे-जैसे महापुरुषोंके चरित्रश्रवण और दर्शनसे ही शुद्ध हो जाते हैं; फिर वे तुमलोगोंके सम्भाषण और सहवास आदिसे शुद्ध हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है ॥ २५ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! चन्द्रभूषण भगवान्‌ शङ्करकी एक-एक बात धर्मके गुप्ततम रहस्यसे परिपूर्ण थी। उसके एक-एक अक्षरमें अमृतका समुद्र भरा हुआ था। मार्कण्डेय मुनि अपने कानोंके द्वारा पूरी तन्मयताके साथ उसका पान करते रहे; परन्तु उन्हें तृप्ति न हुई ॥ २६ ॥ वे चिरकालतक विष्णुभगवान्‌की मायासे भटक चुके थे और बहुत थके हुए भी थे। भगवान्‌ शिवकी कल्याणी वाणीका अमृतपान करनेसे उनके सारे क्लेश नष्ट हो गये। उन्होंने भगवान्‌ शङ्करसे इस प्रकार कहा ॥ २७ ॥

मार्कण्डेयजीने कहा—सचमुच सर्वशक्तिमान् भगवान्‌की यह लीला सभी प्राणियोंकी समझके परे है। भला, देखो तो सही—ये सारे जगत्के स्वामी होकर भी अपने अधीन रहनेवाले मेरे-जैसे जीवोंकी वन्दना और स्तुति करते हैं ॥ २८ ॥ धर्मके प्रवचनकार प्राय: प्राणियोंको धर्मका रहस्य और स्वरूप समझानेके लिये उसका आचरण और अनुमोदन करते हैं तथा कोई धर्मका आचरण करता है, तो उसकी प्रशंसा भी करते हैं ॥ २९ ॥ जैसे जादूगर अनेकों खेल दिखलाता है और उन खेलोंसे उसके प्रभावमें कोई अन्तर नहीं पड़ता, वैसे ही आप अपनी स्वजनमोहिनी मायाकी वृत्तियोंको स्वीकार करके किसीकी वन्दना-स्तुति आदि करते हैं तो केवल इस कामके द्वारा आपकी महिमामें कोई त्रुटि नहीं आती ॥ ३० ॥ आपने स्वप्नद्रष्टाके समान अपने मनसे ही सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि की है और इसमें स्वयं प्रवेश करके कर्ता न होनेपर भी कर्म करनेवाले गुणोंके द्वारा कर्ताके समान प्रतीत होते हैं ॥ ३१ ॥ भगवन् ! आप त्रिगुणस्वरूप होनेपर भी उनके परे उनकी आत्माके रूपमें स्थित हैं। आप ही समस्त ज्ञानके मूल, केवल, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३२ ॥ अनन्त ! आपके श्रेष्ठ दर्शनसे बढक़र ऐसी और कौन-सी वस्तु है, जिसे मैं वरदानके रूपमें माँगूँ ? मनुष्य आपके दर्शनसे ही पूर्णकाम और सत्यसङ्कल्प हो जाता है ॥ ३३ ॥ आप स्वयं तो पूर्ण हैं ही, अपने भक्तोंकी भी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। इसलिये मैं आपका दर्शन प्राप्त कर लेनेपर भी एक वर और माँगता हूँ। वह यह कि भगवान्‌में, उनके शरणागत भक्तोंमें और आपमें मेरी अविचल भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे ॥ ३४ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! जब मार्कण्डेय मुनिने सुमधुर वाणीसे इस प्रकार भगवान्‌ शङ्करकी स्तुति और पूजा की, तब उन्होंने भगवती पार्वतीकी प्रसाद-प्रेरणासे यह बात कही ॥ ३५ ॥ महर्षे ! तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण हों। इन्द्रियातीत परमात्मामें तुम्हारी अनन्य भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे। कल्पपर्यन्त तुम्हारा पवित्र यश फैले और तुम अजर एवं अमर हो जाओ ॥ ३६ ॥ ब्रह्मन् ! तुम्हारा ब्रह्मतेज तो सर्वदा अक्षुण्ण रहेगा ही। तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमानके समस्त विशेष ज्ञानोंका एक अधिष्ठानरूप ज्ञान, और वैराग्ययुक्त स्वरूपस्थितिकी प्राप्ति हो जाय। तुम्हें पुराणका आचार्यत्व भी प्राप्त हो ॥ ३७ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! इस प्रकार त्रिलोचन भगवान्‌ शङ्कर मार्कण्डेय मुनिको वर देकर भगवती पार्वतीसे मार्कण्डेय मुनिकी तपस्या और उनके प्रलय-सम्बन्धी अनुभवोंका वर्णन करते हुए वहाँसे चले गये ॥ ३८ ॥ भृगुवंशशिरोमणि मार्कण्डेय मुनिको उनके महायोगका परम फल प्राप्त हो गया। वे भगवान्‌के अनन्यप्रेमी हो गये। अब भी वे भक्तिभावभरित हृदयसे पृथ्वीपर विचरण किया करते हैं ॥ ३९ ॥ परम ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनिने भगवान्‌की योगमायासे जिस अद्भुत लीलाका अनुभव किया था, वह मैंने आपलोगोंको सुना दिया ॥ ४० ॥ शौनकजी ! यह जो मार्कण्डेयजीने अनेक कल्पोंका—सृष्टिप्रलयोंका अनुभव किया, वह भगवान्‌की मायाका ही वैभव था, तात्कालिक था और उन्हींके लिये था, सर्वसाधारणके लिये नहीं। कोई-कोई इस मायाकी रचनाको न जानकर अनादिकालसे बार-बार होनेवाले सृष्टि-प्रलय ही इसको भी बतलाते हैं। (इसलिये आपको यह शङ्का नहीं करनी चाहिये कि इसी कल्पके हमारे पूर्वज मार्कण्डेयजीकी आयु इतनी लम्बी कैसे हो गयी ?) ॥ ४१ ॥ भृगुवंशशिरोमणे ! मैंने आपको यह जो मार्कण्डेयचरित्र सुनाया है, वह भगवान्‌ चक्रपाणिके प्रभाव और महिमासे भरपूर है। जो इसका श्रवण एवं कीर्तन करते हैं, वे दोनों ही कर्म-वासनाओंके कारण प्राप्त होनेवाले आवागमन के चक्करसे सर्वदाके लिये छूट जाते हैं ॥ ४२ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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