॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वादश स्कन्ध– ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट०१)
भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधों का रहस्य
तथा विभिन्न सूर्यगणों का वर्णन
अथेममर्थं पृच्छामो भवन्तं बहुवित्तमम्
समस्ततन्त्रराद्धान्ते भवान्भागवत तत्त्ववित् १
तान्त्रिकाः परिचर्यायां केवलस्य श्रियः पतेः
अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पं कल्पयन्ति यथा च यैः २
तन्नो वर्णय भद्रं ते क्रियायोगं बुभुत्सताम्
येन क्रियानैपुणेन मर्त्यो यायादमर्त्यताम् ३
सूत उवाच
नमस्कृत्य गुरून्वक्ष्ये विभूतीर्वैष्णवीरपि
याः प्रोक्ता वेदतन्त्राभ्यामाचार्यैः पद्मजादिभिः ४
मायाद्यैर्नवभिस्तत्त्वैः स विकारमयो विराट्
निर्मितो दृश्यते यत्र सचित्के भुवनत्रयम् ५
एतद्वै पौरुषं रूपं भूः पादौ द्यौः शिरो नभः
नाभिः सूर्योऽक्षिणी नासे वायुः कर्णौ दिशः प्रभोः ६
प्रजापतिः प्रजननमपानो मृत्युरीशितुः
तद्बाहवो लोकपाला मनश्चन्द्रो भ्रुवौ यमः ७
लज्जोत्तरोऽधरो लोभो दन्ता ज्योत्स्ना स्मयो भ्रमः
रोमाणि भूरुहा भूम्नो मेघाः पुरुषमूर्धजाः ८
यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मितः
तावानसावपि महा पुरुषो लोकसंस्थया ९
कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः
तत्प्रभा व्यापिनी साक्षात्श्रीवत्समुरसा विभुः १०
स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत्
वासश्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत्स्वरम् ११
बिभर्ति साङ्ख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले
मौलिं पदं पारमेष्ठ्यं सर्वलोकाभयङ्करम् १२
अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठितः
धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते १३
ओजःसहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत्
अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम् १४
नभोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम्
कालरूपं धनुः शार्ङ्गं तथा कर्ममयेषुधिम् १५
इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यन्दनम्
तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम् १६
मण्डलं देवयजनं दीक्षा संस्कार आत्मनः
परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षयः १७
भगवान्भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन्
धर्मं यशश्च भगवांश्चामरव्यजनेऽभजत् १८
आतपत्रं तु वैकुण्ठं द्विजा धामाकुतोभयम्
त्रिवृद्वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम् १९
अनपायिनी भगवती श्रीः साक्षादात्मनो हरेः
विष्वक्सेनस्तन्त्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः
नन्दादयोऽष्टौ द्वाःस्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः २०
वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नः पुरुषः स्वयम्
अनिरुद्ध इति ब्रह्मन्मूर्तिव्यूहोऽभिधीयते २१
स विश्वस्तैजसः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभिः
अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान्परिभाव्यते २२
अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम्
बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान्हरिरीश्वरः २३
द्विजऋषभ स एष ब्रह्मयोनिः स्वयंदृक्
स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत्
सृजति हरति पातीत्याख्ययानावृताक्षो
विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलभ्यः २४
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग्
राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य
गोविन्द गोपवनिताव्रजभृत्यगीत
तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गल पाहि भृत्यान् २५
य इदं कल्य उत्थाय महापुरुषलक्षणम्
तच्चित्तः प्रयतो जप्त्वा ब्रह्म वेद गुहाशयम् २६
शौनकजीने कहा—सूतजी ! आप भगवान् के परमभक्त और
बहुज्ञोंमें शिरोमणि हैं। हमलोग समस्त शास्त्रोंके सिद्धान्तके सम्बन्धमें आपसे एक
विशेष प्रश्र पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं ॥ १ ॥
हमलोग क्रियायोग का यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि
उसका कुशलता- पूर्वक ठीक-ठीक आचरण करनेसे मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता
है। अत: आप हमें यह बतलाइये कि पाञ्चरात्रादि तन्त्रोंकी विधि जाननेवाले लोग केवल
श्रीलक्ष्मीपति भगवान्की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वोंसे उनके चरणादि अङ्ग,
गरुडादि उपाङ्ग, सुदर्शनादि आयुध और
कौस्तुभादि आभूषणोंकी कल्पना करते हैं ? भगवान् आपका कल्याण
करें ॥ २-३ ॥
सूतजीने कहा—शौनकजी ! ब्रह्मादि आचार्योंने, वेदोंने और पाञ्चरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थोंने विष्णुभगवान्की जिन
विभूतियोंका वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेवके चरणोंमें
नमस्कार करके आप- लोगोंको वही सुनाता हूँ ॥ ४ ॥ भगवान् के जिस चेतनाधिष्ठित
विराट् रूपमें यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह प्रकृति,
सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—इन नौ तत्त्वोंके सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा
पञ्चभूत—इन सोलह विकारोंसे बना हुआ है ॥ ५ ॥ यह भगवान्का ही पुरुषरूप है। पृथ्वी
इसके चरण हैं, स्वर्ग मस्तक है, अन्तरिक्ष
नाभि है, सूर्य नेत्र हैं, वायु नासिका
है और दिशाएँ कान हैं ॥ ६ ॥ प्रजापति लिङ्ग है, मृत्यु गुदा
है, लोकपालगण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन
है और यमराज भौंहें हैं ॥ ७ ॥ लज्जा ऊपरका होठ है, लोभ
नीचेका होठ है, चन्द्रमा की चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुसकान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट्
पुरुष के सिरपर उगे हुए बाल हैं ॥ ८ ॥ शौनकजी ! जिस प्रकार यह व्यष्टि पुरुष अपने
परिमाण से सात बित्ते का है उसी प्रकार वह समष्टि पुरुष भी इस लोकसंस्थिति के साथ
अपने सात बित्ते का है ॥ ९ ॥
स्वयं भगवान् अजन्मा हैं। वे कौस्तुभमणिके बहाने
जीव-चैतन्यरूप आत्मज्योतिको ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभाको ही
वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सरूपसे ॥ १० ॥ वे अपनी सत्त्व, रज आदि
गुणोंवाली मायाको वनमालाके रूपसे, छन्दको पीताम्बरके रूपसे
तथा अ+उ+म्—इन तीन मात्रावाले प्रणवको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण करते हैं ॥ ११ ॥
देवाधिदेव भगवान् सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकोंको अभय करनेवाले
ब्रह्मलोकको ही मुकुटके रूपमें धारण करते हैं ॥ १२ ॥ मूलप्रकृति ही उनकी शेषशय्या
है, जिसपर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादियुक्त
सत्त्वगुण ही उनके नाभिकमलके रूपमें वर्णित हुआ है ॥ १३ ॥ वे मन, इन्द्रिय और शरीरसम्बन्धी शक्तियोंसे युक्त प्राणतत्त्वरूप कौमोदकी गदा,
जलतत्त्वरूप पाञ्चजन्य शङ्ख और तेजस्तत्त्वरूप सुदर्शनचक्रको धारण
करते हैं ॥ १४ ॥ आकाशके समान निर्मल आकाश-स्वरूप खड्ग, तमोमय
अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शार्ङ्गधनुष और कर्मका ही तरकस धारण
किये हुए हैं ॥ १५ ॥ इन्द्रियोंको ही भगवान्के बाणोंके रूपमें कहा गया है।
क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथके बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदिकी
मुद्राओंसे उनकी वरदान, अभयदान आदिके रूपमें क्रियाशीलता
प्रकट होती है ॥ १६ ॥ सूर्यमण्डल अथवा अग्रि-मण्डल ही भगवान्की पूजाका स्थान है,
अन्त:करणकी शुद्धि ही मन्त्रदीक्षा है और अपने समस्त पापोंको नष्ट
कर देना ही भगवान्की पूजा है ॥ १७ ॥
ब्राह्मणो ! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य—इन छ: पदार्थोंका नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान् अपने करकमलमें धारण करते हैं। धर्म और यशको क्रमश: चँवर एवं
व्यजन (पंखे) के रूपसे तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठको छत्ररूपसे धारण किये हुए
हैं। तीनों वेदोंका ही नाम गरुड है। वे ही अन्तर्यामी परमात्माका वहन करते हैं ॥
१८-१९ ॥ आत्मस्वरूप भगवान्की उनसे कभी न बिछुडऩेवाली आत्मशक्तिका ही नाम लक्ष्मी
है। भगवान्के पार्षदोंके नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पाञ्चरात्रादि आगमरूप हैं।
भगवान्के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियोंको
ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं ॥ २० ॥ शौनकजी ! स्वयं भगवान् ही वासुदेव,
सङ्कर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध—इन चार
मूर्तियोंके रूपमें अवस्थित हैं; इसलिये उन्हींको
चतुव्र्यूहके रूपमें कहा जाता है ॥ २१ ॥ वे ही जाग्रत्-अवस्थाके अभिमानी ‘विश्व’
बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयोंको ग्रहण करते और वे ही
स्वप्नावस्थाके अभिमानी ‘तैजस’ बनकर बाह्य विषयोंके बिना ही मन-ही-मन अनेक
विषयोंको देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्थाके अभिमानी ‘प्राज्ञ’
बनकर विषय और मनके संस्कारोंसे युक्त अज्ञानसे ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी
‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानोंके अधिष्ठान रहते हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार अङ्ग, उपाङ्ग, आयुध और आभूषणोंसे युक्त तथा वासुदेव,
सङ्कर्षण, प्रद्युम्र एवं अनिरुद्ध—इन चार
मूर्तियोंके रूपमें प्रकट सर्व- शक्तिमान् भगवान् श्रीहरि ही क्रमश: विश्व,
तैजस, प्राज्ञ एवं तुरीयरूपसे प्रकाशित होते
हैं ॥ २३ ॥
शौनकजी ! वही सर्वस्वरूप भगवान् वेदोंके मूल कारण
हैं, वे स्वयंप्रकाश एवं अपनी महिमासे परिपूर्ण हैं। वे अपनी
मायासे ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामोंसे इस विश्वकी सृष्टि, स्थिति
और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामोंसे उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं
होता। यद्यपि शास्त्रोंमें भिन्नके समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तोंको आत्मस्वरूपसे ही प्राप्त होते हैं ॥ २४ ॥
सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप अर्जुनके सखा हैं। आपने यदुवंशशिरोमणिके रूपमें
अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके द्रोही भूपालोंको भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा
एकरस रहता है। व्रजकी गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यशका
गान करते रहते हैं। गोविन्द ! आपके नाम, गुण और लीलादिका
श्रवण करनेसे ही जीवका मङ्गल हो जाता है। हम सब आपके सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी
रक्षा कीजिये ॥ २५ ॥
पुरुषोत्तम भगवान्के चिह्नभूत अङ्ग, उपाङ्ग और आयुध आदिके इस वर्णनका जो मनुष्य भगवान्में ही चित्त लगाकर
पवित्र होकर प्रात:काल पाठ करेगा, उसे सबके हृदयमें रहनेवाले
ब्रह्मस्वरूप परमात्माका ज्ञान हो जायगा ॥ २६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें