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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
तत्त्वों की संख्या और
पुरुष-प्रकृति-विवेक
पुरुषः
प्रकृतिर्व्यक्तमहङ्कारो नभोऽनिलः
ज्योतिरापः
क्षितिरिति तत्त्वान्युक्तानि मे नव १४
श्रोत्रं
त्वग्दर्शनं घ्राणो जिह्वेति ज्ञानशक्तयः
वाक्पाण्युपस्थपाय्वङ्घ्रिः
कर्माण्यङ्गोभयं मनः १५
शब्दः
स्पर्शो रसो गन्धो रूपं चेत्यर्थजातयः
गत्युक्त्युत्सर्गशिल्पानि
कर्मायतनसिद्धयः १६
सर्गादौ
प्रकृतिर्ह्यस्य कार्यकारणरूपिणी
सत्त्वादिभिर्गुणैर्धत्ते
पुरुषोऽव्यक्त ईक्षते १७
व्यक्तादयो
विकुर्वाणा धातवः पुरुषेक्षया
लब्धवीर्याः
सृजन्त्यण्डं संहताः प्रकृतेर्बलात् १८
सप्तैव
धातव इति तत्रार्थाः पञ्च खादयः
ज्ञानमात्मोभयाधारस्ततो
देहेन्द्रियासवः १९
षडित्यत्रापि
भूतानि पञ्च षष्ठः परः पुमान्
तैर्युक्त
आत्मसम्भूतैः सृष्ट्वेदं समपाविशत् २०
चत्वार्येवेति
तत्रापि तेज आपोऽन्नमात्मनः
जातानि
तैरिदं जातं जन्मावयविनः खलु २१
सङ्ख्याने
सप्तदशके भूतमात्रेन्द्रियाणि च
पञ्च
पञ्चैकमनसा आत्मा सप्तदशः स्मृतः २२
तद्वत्षोडशसङ्ख्याने
आत्मैव मन उच्यते
भूतेन्द्रियाणि
पञ्चैव मन आत्मा त्रयोदश २३
एकादशत्व
आत्मासौ महाभूतेन्द्रियाणि च
अष्टौ
प्रकृतयश्चैव पुरुषश्च नवेत्यथ २४
इति
नानाप्रसङ्ख्यानं तत्त्वानामृषिभिः कृतम्
सर्वं
न्याय्यं युक्तिमत्त्वाद्विदुषां किमशोभनम् २५
श्रीउद्धव
उवाच
प्रकृतिः
पुरुषश्चोभौ यद्यप्यात्मविलक्षणौ
अन्योन्यापाश्रयात्कृष्ण
दृश्यते न भिदा तयोः
प्रकृतौ
लक्ष्यते ह्यात्मा प्रकृतिश्च तथात्मनि २६
एवं
मे पुण्डरीकाक्ष महान्तं संशयं हृदि
छेत्तुमर्हसि
सर्वज्ञ वचोभिर्नयनैपुणैः २७
त्वत्तो
ज्ञानं हि जीवानां प्रमोषस्तेऽत्र शक्तितः
त्वमेव
ह्यात्ममायाया गतिं वेत्थ न चापरः २८
उद्धवजी ! (यदि तीनों गुणोंको
प्रकृति से अलग मान लिया जाय, जैसा कि उनकी उत्पत्ति और प्रलयको देखते हुए मानना चाहिये, तो तत्त्वोंकी संख्या स्वयं ही अट्ठाईस हो जाती है। उन तीनोंके अतिरिक्त
पचीस ये हैं—) पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, आकाश, वायु, तेज, जल
और पृथ्वी—ये नौ तत्त्व मैं पहले ही गिना चुका हूँ ॥ १४ ॥ श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, नासिका और रसना—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ;
वाक्, पाणि, पाद, पायु
और उपस्थ—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ; तथा मन, जो कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों ही हैं। इस प्रकार कुल
ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस
और गन्ध— ये ज्ञानेन्द्रियोंके पाँच विषय। इस प्रकार तीन,
नौ, ग्यारह
और पाँच— सब मिलाकर अट्ठाईस तत्त्व होते हैं। कर्मेन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले
पाँच कर्म—चलना, बोलना, मल
त्यागना, पेशाब करना और काम करना—इनके द्वारा तत्त्वोंकी संख्या नहीं बढ़ती।
इन्हें कर्मेन्द्रियस्वरूप ही मानना चाहिये ॥ १५-१६ ॥ सृष्टिके आरम्भमें कार्य
(ग्यारह इन्द्रिय और पञ्चभूत) और कारण (महत्तत्त्व आदि) के रूपमें प्रकृति ही रहती
है। वही सत्त्वगुण, रजोगुण
और तमोगुणकी सहायतासे जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और संहारसम्बन्धी अवस्थाएँ धारण करती है। अव्यक्त पुरुष
तो प्रकृति और उसकी अवस्थाओंका केवल साक्षीमात्र बना रहता है ॥ १७ ॥ महत्तत्त्व
आदि कारण धातुएँ विकारको प्राप्त होते हुए पुरुषके ईक्षणसे शक्ति प्राप्त करके
परस्पर मिल जाते हैं और प्रकृतिका आश्रय लेकर उसीके बलसे ब्रह्माण्डकी सृष्टि करते
हैं ॥ १८ ॥
उद्धवजी ! जो लोग तत्त्वोंकी संख्या
सात स्वीकार करते हैं, उनके
विचारसे आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी—ये पाँच भूत,
छठा जीव और सातवाँ परमात्मा—जो साक्षी जीव और साक्ष्य जगत् दोनोंका
अधिष्ठान है—ये ही तत्त्व हैं। देह, इन्द्रिय और प्राणादिकी उत्पत्ति तो पञ्चभूतोंसे ही हुई है [
इसलिये वे इन्हें अलग नहीं गिनते ] ॥ १९ ॥ जो लोग केवल छ: तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि पाँच भूत हैं और छठा है परमपुरुष परमात्मा। वह
परमात्मा अपने बनाये हुए पञ्चभूतोंसे युक्त होकर देह आदिकी सृष्टि करता है और
उनमें जीवरूपसे प्रवेश करता है। (इस मतके अनुसार जीवका परमात्मामें और शरीर आदिका
पञ्चभूतोंमें समावेश हो जाता है) ॥ २० ॥ जो लोग कारणके रूपमें चार ही तत्त्व
स्वीकार करते हैं, वे
कहते हैं कि आत्मासे तेज, जल और पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई है और जगत्में जितने पदार्थ हैं, सब इन्हींसे उत्पन्न होते हैं। वे सभी कार्योंका इन्हींमें समावेश
कर लेते हैं ॥ २१ ॥ जो लोग तत्त्वोंकी संख्या सत्रह बतलाते हैं, वे इस प्रकार गणना करते हैं—पाँच भूत,
पाँच तन्मात्राएँ ? पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन और एक आत्मा ॥ २२ ॥ जो लोग तत्त्वोंकी संख्या सोलह बतलाते
हैं, उनकी गणना भी इसी प्रकार है। अन्तर केवल इतना ही है कि वे आत्मामें
मनका भी समावेश कर लेते हैं और इस प्रकार उनकी तत्त्वसंख्या सोलह रह जाती है। जो
लोग तेरह तत्त्व मानते हैं, वे कहते हैं कि आकाशादि पाँच भूत,
श्रोत्रादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ,
एक, मन, एक जीवात्मा और परमात्मा—ये तेरह तत्त्व हैं ॥ २३ ॥ ग्यारह संख्या
माननेवालोंने पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और इनके अतिरिक्त एक आत्माका अस्तित्व
स्वीकार किया है। जो लोग नौ तत्त्व मानते हैं,
वे आकाशादि पाँच भूत और मन-बुद्धि अहंकार—ये आठ प्रकृतियाँ और नवाँ
पुरुष—इन्हींको तत्त्व मानते हैं ॥ २४ ॥ उद्धवजी ! इस प्रकार ऋषि- मुनियोंने
भिन्न-भिन्न प्रकारसे तत्त्वोंकी गणना की है। सबका कहना उचित ही है, क्योंकि सबकी संख्या युक्तियुक्त है। जो लोग तत्त्वज्ञानी हैं, उन्हें किसी भी मतमें बुराई नहीं दीखती। उनके लिये तो सब कुछ ठीक
ही है ॥ २५ ॥
उद्धवजीने कहा—श्यामसुन्दर ! यद्यपि
स्वरूपत: प्रकृति और पुरुष दोनों एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न हैं, तथापि वे आपसमें इतने घुल-मिल गये हैं कि साधारणत: उनका भेद नहीं
जान पड़ता। प्रकृतिमें पुरुष और पुरुषमें प्रकृति अभिन्न-से प्रतीत होते हैं। इनकी
भिन्नता स्पष्ट कैसे हो ? ॥ २६ ॥ कमलनयन श्रीकृष्ण ! मेरे हृदयमें इनकी भिन्नता और
अभिन्नताको लेकर बहुत बड़ा सन्देह है। आप तो सर्वज्ञ हैं,
अपनी युक्तियुक्त वाणीसे मेरे सन्देहका निवारण कर दीजिये ॥ २७ ॥
भगवन् ! आपकी ही कृपासे जीवोंको ज्ञान होता है और आपकी मायाशक्तिसे ही उनके
ज्ञानका नाश होता है। अपनी आत्मस्वरूपिणी मायाकी विचित्र गति आप ही जानते हैं, और कोई नहीं जानता। अतएव आप ही मेरा सन्देह मिटानेमें समर्थ हैं ॥
२८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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