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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
तत्त्वों की संख्या और
पुरुष-प्रकृति-विवेक
श्रीभगवानुवाच
प्रकृतिः
पुरुषश्चेति विकल्पः पुरुषर्षभ
एष
वैकारिकः सर्गो गुणव्यतिकरात्मकः २९
ममाङ्ग
माया गुणमय्यनेकधा
विकल्पबुद्धीश्च
गुणैर्विधत्ते
वैकारिकस्त्रिविधोऽध्यात्ममेक-
मथाधिदैवमधिभूतमन्यत्
३०
दृग्रूपमार्कं
वपुरत्र रन्ध्रे
परस्परं
सिध्यति यः स्वतः खे
आत्मा
यदेषामपरो य आद्यः
स्वयानुभूत्याखिलसिद्धसिद्धिः
एवं
त्वगादि श्रवणादि चक्षुर्
जिह्वादि
नासादि च चित्तयुक्तम् ३१
योऽसौ
गुणक्षोभकृतो विकारः
प्रधानमूलान्महतः
प्रसूतः
अहं
त्रिवृन्मोहविकल्पहेतु—
र्वैकारिकस्तामस
ऐन्द्रियश्च ३२
आत्मापरिज्ञानमयो
विवादो
ह्यस्तीति
नास्तीति भिदार्थनिष्ठः
व्यर्थोऽपि
नैवोपरमेत पुंसां
मत्तः
परावृत्तधियां स्वलोकात् ३३
श्रीउद्धव
उवाच
त्वत्तः
परावृत्तधियः स्वकृतैः कर्मभिः प्रभो
उच्चावचान्यथा
देहान्गृह्णन्ति विसृजन्ति च ३४
तन्ममाख्याहि
गोविन्द दुर्विभाव्यमनात्मभिः
न
ह्येतत्प्रायशो लोके विद्वांसः सन्ति वञ्चिताः ३५
श्रीभगवानुवाच
मनः
कर्ममयं नॄणामिन्द्रियैः पञ्चभिर्युतम्
लोकाल्लोकं
प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते ३६
ध्यायन्मनोऽनु
विषयान्दृष्टान्वानुश्रुतानथ
उद्यत्सीदत्कर्मतन्त्रं
स्मृतिस्तदनु शाम्यति ३७
विषयाभिनिवेशेन
नात्मानं यत्स्मरेत्पुनः
जन्तोर्वै
कस्यचिद्धेतोर्मृत्युरत्यन्तविस्मृतिः ३८
जन्म
त्वात्मतया पुंसः सर्वभावेन भूरिद
विषयस्वीकृतिं
प्राहुर्यथा स्वप्नमनोरथः ३९
स्वप्नं
मनोरथं चेत्थं प्राक्तनं न स्मरत्यसौ
तत्र
पूर्वमिवात्मानमपूर्वं चानुपश्यति ४०
इन्द्रियायनसृष्ट्येदं
त्रैविध्यं भाति वस्तुनि
बहिरन्तर्भिदाहेतुर्जनोऽसज्जनकृद्यथा
४१
नित्यदा
ह्यङ्ग भूतानि भवन्ति न भवन्ति च
कालेनालक्ष्यवेगेन
सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते ४२
यथार्चिषां
स्रोतसां च फलानां वा वनस्पतेः
तथैव
सर्वभूतानां वयोऽवस्थादयः कृताः ४३
सोऽयं
दीपोऽर्चिषां यद्वत्स्रोतसां तदिदं जलम्
सोऽयं
पुमानिति नृणां मृषा गीर्धीर्मृषायुषाम् ४४
मा
स्वस्य कर्मबीजेन जायते सोऽप्ययं पुमान्
म्रियते
वामरो भ्रान्त्या यथाग्निर्दारुसंयुतः ४५
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी !
प्रकृति और पुरुष, शरीर
और आत्मा—इन दोनोंमें अत्यन्त भेद है। इस प्राकृत जगत्में जन्म-मरण एवं
वृद्धि-ह्रास आदि विकार लगे ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि यह गुणोंके क्षोभसे
ही बना है ॥ २९ ॥ प्रिय मित्र ! मेरी माया त्रिगुणात्मिका है। वही अपने सत्त्व, रज आदि गुणोंसे अनेकों प्रकारकी भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती है।
यद्यपि इसका विस्तार असीम है, फिर भी इस विकारात्मक सृष्टिको तीन भागोंमें बाँट सकते हैं। वे तीन
भाग हैं— अध्यात्म, अधिदैव
और अधिभूत ॥ ३० ॥ उदाहरणार्थ—नेत्रेन्द्रिय अध्यात्म है,
उसका विषय रूप अधिभूत है और नेत्रगोलकमें स्थित सूर्यदेवताका अंश
अधिदैव है। ये तीनों परस्पर एक-दूसरेके आश्रयसे सिद्ध होते हैं। और इसलिये
अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। परन्तु आकाशमें
स्थित सूर्यमण्डल इन तीनोंकी अपेक्षासे मुक्त है,
क्योंकि वह स्वत:सिद्ध है। इसी प्रकार आत्मा भी उपर्युक्त तीनों
भेदोंका मूलकारण, उनका
साक्षी और उनसे परे है। वही अपने स्वयंसिद्ध प्रकाशसे समस्त सिद्ध पदार्थोंकी
मूलसिद्धि है। उसीके द्वारा सबका प्रकाश होता है। जिस प्रकार चक्षुके तीन भेद
बताये गये, उसी प्रकार त्वचा, श्रोत्र, जिह्वा, नासिका और चित्त आदिके भी तीन-तीन भेद हैं [*] ॥ ३१ ॥ प्रकृतिसे महत्तत्त्व बनता है और महत्तत्त्वसे अहङ्कार। इस
प्रकार यह अहङ्कार गुणोंके क्षोभसे उत्पन्न हुआ प्रकृतिका ही एक विकार है।
अहङ्कारके तीन भेद हैं—सात्त्विक, तामस और राजस। यह अहङ्कार ही अज्ञान और सृष्टिकी विविधताका मूलकारण
है ॥ ३२ ॥ आत्मा ज्ञानस्वरूप है; उसका इन पदार्थोंसे न तो कोई सम्बन्ध है और न उसमें कोई विवादकी ही
बात है ! अस्ति-नास्ति ( है-नहीं), सगुण-निर्गुण, भाव-अभाव, सत्य-मिथ्या आदि रूपसे जितने भी वाद-विवाद हैं, सबका मूलकारण भेददृष्टि ही है। इसमें सन्देह नहीं कि इस विवादका
कोई प्रयोजन नहीं है; यह
सर्वथा व्यर्थ है तथापि जो लोग मुझसे—अपने वास्तविक स्वरूपसे विमुख हैं, वे इस विवादसे मुक्त नहीं हो सकते ॥ ३३ ॥
उद्धवजीने पूछा—भगवन् ! आपसे विमुख
जीव अपने किये हुए पुण्य-पापोंके फलस्वरूप ऊँची-नीची योनियोंमें जाते-आते रहते
हैं। अब प्रश्न यह है कि व्यापक आत्माका एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाना, अकर्ताका कर्म करना और नित्य-वस्तुका जन्म-मरण कैसे सम्भव है? ॥ ३४ ॥ गोविन्द ! जो लोग आत्मज्ञानसे रहित हैं, वे तो इस विषयको ठीक-ठीक सोच भी नहीं सकते। और इस विषयके विद्वान्
संसारमें प्राय: मिलते नहीं, क्योंकि सभी लोग आपकी मायाकी भूल- भुलैयामें पड़े हुए हैं। इसलिये
आप ही कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाइये ॥ ३५ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय
उद्धव ! मनुष्योंका मन कर्म-संस्कारोंका पुञ्ज है। उन संस्कारोंके अनुसार भोग
प्राप्त करनेके लिये उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई हैं। इसीका नाम है
लिङ्ग- शरीर। वही कर्मोंके अनुसार एक शरीरसे दूसरे शरीरमें, एक लोकसे दूसरे लोकमें आता-जाता रहता है। आत्मा इस लिङ्गशरीरसे
सर्वथा पृथक् है। उसका आना-जाना नहीं होता;
परन्तु जब वह अपनेको लिङ्गशरीर ही समझ बैठता है, उसीमें अहङ्कार कर लेता है,
तब उसे भी अपना जाना-आना प्रतीत होने लगता है ॥ ३६ ॥ मन कर्मोंके
अधीन है। वह देखे हुए या सुने हुए विषयोंका चिन्तन करने लगता है और क्षणभरमें ही
उनमें तदाकार हो जाता है तथा उन्हीं पूर्वचिन्तित विषयोंमें लीन हो जाता है।
धीरे-धीरे उसकी स्मृति, पूर्वापरका अनुसन्धान भी नष्ट हो जाता है ॥ ३७ ॥ उन देवादि शरीरोंमें
इसका इतना अभिनिवेश, इतनी
तल्लीनता हो जाती है कि जीवको अपने पूर्व शरीरका स्मरण भी नहीं रहता। किसी भी
कारणसे शरीरको सर्वथा भूल जाना ही मृत्यु है ॥ ३८ ॥ उदार उद्धव ! जब यह जीव किसी
भी शरीरको अभेद-भावसे‘मैं’ के रूपमें स्वीकार कर लेता है,
तब उसे ही जन्म कहते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे स्वप्नकालीन और मनोरथकालीन शरीरमें अभिमान करना ही स्वप्न और
मनोरथ कहा जाता है ॥ ३९ ॥ यह वर्तमान देहमें स्थित जीव जैसे पूर्व देहका स्मरण
नहीं करता, वैसे ही स्वप्न या मनोरथमें स्थित जीव भी पहलेके स्वप्न और मनोरथको
स्मरण नहीं करता, प्रत्युत
उस वर्तमान स्वप्न और मनोरथमें पूर्व सिद्ध होनेपर भी अपनेको नवीन-सा ही समझता है
॥ ४० ॥ इन्द्रियोंके आश्रय मन या शरीरकी सृष्टिसे आत्मवस्तुमें यह उत्तम, मध्यम और अधमकी त्रिविधता भासती है। उनमें अभिमान करनेसे ही आत्मा
बाह्य और आभ्यन्तर भेदोंका हेतु मालूम पडऩे लगता है,
जैसे दुष्ट पुत्रको उत्पन्न करनेवाला पिता पुत्रके शत्रु-मित्र
आदिके लिये भेदका हेतु हो जाता है ॥ ४१ ॥ प्यारे उद्धव ! कालकी गति सूक्ष्म है।
उसे साधारणत: देखा नहीं जा सकता। उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरोंकी उत्पत्ति और
नाश होते रहते हैं। सूक्ष्म होनेके कारण ही प्रतिक्षण होनेवाले जन्म-मरण नहीं दीख
पड़ते ॥ ४२ ॥ जैसे कालके प्रभावसे दियेकी लौ,
नदियोंके प्रवाह अथवा वृक्षके फलोंकी विशेष-विशेष अवस्थाएँ बदलती
रहती हैं, वैसे ही समस्त प्राणियोंके शरीरोंकी आयु,
अवस्था आदि भी बदलती रहती है ॥ ४३ ॥ जैसे यह उन्हीं ज्योतियोंका
वही दीपक है, प्रवाहका यह वही जल है—ऐसा समझना और कहना मिथ्या है, वैसे ही विषय-चिन्तनमें व्यर्थ आयु बितानेवाले अविवेकी पुरुषोंका
ऐसा कहना और समझना कि यह वही पुरुष है, सर्वथा मिथ्या है ॥ ४४ ॥ यद्यपि वह भ्रान्त पुरुष भी अपने कर्मोंके
बीजद्वारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है;
वह भी अजन्मा और अमर ही है,
फिर भी भ्रान्तिसे वह उत्पन्न होता है और मरता-सा भी है, जैसे कि काष्ठ से युक्त अग्नि पैदा होता और नष्ट होता दिखायी पड़ता
है ॥ ४५ ॥
..................................
[1] यथा त्वचा, स्पर्श और वायु; श्रवण, शब्द और दिशा; जिह्वा, रस और वरुण; नासिका, गन्ध और अश्विनीकुमार;
चित्त, चिन्तनका विषय और वासुदेव;
मन, मनका विषय और चन्द्रमा;
अहङ्कार, अहङ्कार का विषय और रुद्र;
बुद्धि, समझनेका विषय और ब्रह्मा—इन सभी त्रिविध तत्त्वोंसे आत्माका कोई
सम्बन्ध नहीं है।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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