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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
तत्त्वों की संख्या और
पुरुष-प्रकृति-विवेक
निषेकगर्भजन्मानि
बाल्यकौमारयौवनम्
वयोमध्यं
जरा मृत्युरित्यवस्थास्तनोर्नव ४६
एता
मनोरथमयीर्हान्यस्योच्चावचास्तनूः
गुणसङ्गादुपादत्ते
क्वचित्कश्चिज्जहाति च ४७
आत्मनः
पितृपुत्राभ्यामनुमेयौ भवाप्ययौ
न
भवाप्ययवस्तूनामभिज्ञो द्वयलक्षणः ४८
तरोर्बीजविपाकाभ्यां
यो विद्वाञ्जन्मसंयमौ
तरोर्विलक्षणो
द्रष्टा एवं द्रष्टा तनोः पृथक् ४९
प्रकृतेरेवमात्मानमविविच्याबुधः
पुमान्
तत्त्वेन
स्पर्शसम्मूढः संसारं प्रतिपद्यते ५०
सत्त्वसङ्गादृषीन्देवान्रजसासुरमानुषान्
तमसा
भूततिर्यक्त्वं भ्रामितो याति कर्मभिः ५१
नृत्यतो
गायतः पश्यन्यथैवानुकरोति तान्
एवं
बुद्धिगुणान्पश्यन्ननीहोऽप्यनुकार्यते ५२
यथाम्भसा
प्रचलता तरवोऽपि चला इव
चक्षुषा
भ्राम्यमाणेन दृश्यते भ्रमतीव भूः ५३
यथा
मनोरथधियो विषयानुभवो मृषा
स्वप्नदृष्टाश्च
दाशार्ह तथा संसार आत्मनः ५४
अर्थे
ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते
ध्यायतो
विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ५५
तस्मादुद्धव
मा भुङ्क्ष्व विषयानसदिन्द्रियैः
आत्माग्रहणनिर्भातं
पश्य वैकल्पिकं भ्रमम् ५६
क्षिप्तोऽवमानितोऽसद्भिः
प्रलब्धोऽसूयितोऽथ वा
ताडितः
सन्निरुद्धो वा वृत्त्या वा परिहापितः ५७
निष्ठ्युतो
मूत्रितो वाज्ञैर्बहुधैवं प्रकम्पितः
श्रेयस्कामः
कृच्छ्रगत आत्मनात्मानमुद्धरेत् ५८
श्रीउद्धव
उवाच
यथैवमनुबुध्येयं
वद नो वदतां वर
सुदुःसहमिमं
मन्य आत्मन्यसदतिक्रमम् ५९
विदुषामपि
विश्वात्मन्प्रकृतिर्हि बलीयसी
ऋते
त्वद्धर्मनिरतान्शान्तास्ते चरणालयान् ६०
उद्धवजी ! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़
अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु—ये नौ अवस्थाएँ शरीरकी ही हैं ॥ ४६ ॥ यह शरीर
जीवसे भिन्न है और ये उँची- नीची अवस्थाएँ उसके मनोरथके अनुसार ही हैं; परन्तु वह अज्ञानवश गुणोंके सङ्गसे इन्हें अपनी मानकर भटकने लगता
है और कभी-कभी विवेक हो जानेपर इन्हें छोड़ भी देता है ॥ ४७ ॥ पिताको पुत्रके
जन्मसे और पुत्रको पिताकी मृत्युसे अपने-अपने जन्म-मरणका अनुमान कर लेना चाहिये।
जन्म-मृत्युसे युक्त देहोंका द्रष्टा जन्म और मृत्युसे युक्त शरीर नहीं है ॥ ४८ ॥
जैसे जौ-गेहूँ आदिकी फसल बोनेपर उग आती है और पक जानेपर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटनेका जाननेवाला साक्षी है, वह उनसे सर्वथा पृथक् है; वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओंका साक्षी है, वह शरीरसे सर्वथा पृथक् है ॥ ४९ ॥ अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति
और शरीरसे आत्माका विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्त्वत: अलग अनुभव नहीं करते और
विषयभोगमें सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसीमें मोहित हो जाते हैं। इसीसे उन्हें
जन्म-मृत्युरूप संसारमें भटकना पड़ता है ॥ ५० ॥ जब अविवेकी जीव अपने कर्मोंके
अनुसार जन्म-मृत्युके चक्रमें भटकने लगता है,
तब सात्त्विक कर्मोंकी आसक्तिसे वह ऋषिलोक और देवलोकमें राजसिक
कर्मोंकी आसक्तिसे मनुष्य और असुरयोनियोंमें तथा तामसी कर्मोंकी आसक्तिसे
भूत-प्रेत एवं पशु- पक्षी आदि योनियोंमें जाता है ॥ ५१ ॥ जब मनुष्य किसीको
नाचते-गाते देखता है, तब
वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने—तान तोडऩे लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धिके गुणोंको
देखता है, तब स्वयं निष्ङ्क्षक्रय होनेपर भी उसका अनुकरण करनेके लिये बाध्य
हो जाता है ॥ ५२ ॥ जैसे नदी- तालाब आदिके जलके हिलने या चंचल होनेपर उसमें
प्रतिबिम्बित तटके वृक्ष भी उसके साथ हिलते-डोलते-से जान पड़ते हैं, जैसे घुमाये जानेवाले नेत्रके साथ-साथ पृथ्वी भी घूमती हुई-सी
दिखायी देती है, जैसे मनके द्वारा सोचे गये तथा स्वप्नमें देखे गये भोग पदार्थ
सर्वथा अलीक ही होते हैं, वैसे ही हे दाशाहर् ! आत्माका विषयानुभवरूप संसार भी सर्वथा असत्य
है। आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव ही है ॥ ५३-५४ ॥ विषयोंके सत्य न
होनेपर भी जो जीव विषयोंका ही चिन्तन करता रहता है,
उसका यह जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता, जैसे स्वप्नमें प्राप्त अनर्थ-परम्परा जागे बिना निवृत्त नहीं होती
॥ ५५ ॥
प्रिय उद्धव ! इसलिये इन दुष्ट (कभी
तृप्त न होनेवाली) इन्द्रियोंसे विषयोंको मत भोगो। आत्म-विषयक अज्ञान से प्रतीत होनेवाला सांसारिक भेदभाव भ्रममूलक
ही है, ऐसा समझो ॥ ५६ ॥
असाधु पुरुष गर्दन पकडक़र बाहर निकाल
दें, वाणीद्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारें-पीटें, बाँधें, आजीविका छीन लें, ऊपर थूक दें, मूत दें अथवा तरह-तरहसे विचलित करें,
निष्ठासे डिगानेकी चेष्टा करें;
उनके किसी भी उपद्रवसे क्षुब्ध न होना चाहिये; क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं,
उन्हें परमार्थका तो पता ही नहीं है। अत: जो अपने कल्याणका इच्छुक
है, उसे सभी कठिनाइयोंसे अपनी विवेक-बुद्धिद्वारा ही—किसी बाह्य साधनसे
नहीं—अपनेको बचा लेना चाहिये। वस्तुत:आत्मदृष्टि ही समस्त विपत्तियोंसे बचनेका
एकमात्र साधन है ॥ ५७-५८ ॥
उद्धवजीने कहा—भगवन् ! आप समस्त
वक्ताओंके शिरोमणि हैं। मैं इस दुर्जनोंसे किये गये तिरस्कारको अपने मनमें अत्यन्त
असह्य समझता हूँ। अत: जैसे मैं इसको समझ सकूँ,
आपका उपदेश जीवनमें धारण कर सकूँ,
वैसे हमें बतलाइये ॥ ५९ ॥ विश्वात्मन् ! जो आपके भागवतधर्म के आचरणमें प्रेमपूर्वक संलग्न हैं, जिन्होंने आपके चरण-कमलोंका ही आश्रय ले लिया है, उन शान्त पुरुषों के अतिरिक्त बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी
दुष्टोंके द्वारा किया हुआ तिरस्कार सह लेना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि प्रकृति अत्यन्त बलवती है ॥ ६० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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