रविवार, 4 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास

 

श्रीबादरायणिरुवाच

स एवमाशंसित उद्धवेन

भागवतमुख्येन दाशार्हमुख्यः

सभाजयन्भृत्यवचो मुकुन्द-

स्तमाबभाषे श्रवणीयवीर्यः १

 

श्रीभगवानुवाच

बार्हस्पत्य स नास्त्यत्र साधुर्वै दुर्जनेरितैः

दुरक्तैर्भिन्नमात्मानं यः समाधातुमीश्वरः २

न तथा तप्यते विद्धः पुमान्बाणैस्तु मर्मगैः

यथा तुदन्ति मर्मस्था ह्यसतां परुषेषवः ३

कथयन्ति महत्पुण्यमितिहासमिहोद्धव

तमहं वर्णयिष्यामि निबोध सुसमाहितः ४

केनचिद्भिक्षुणा गीतं परिभूतेन दुर्जनैः

स्मरता धृतियुक्तेन विपाकं निजकर्मणाम् ५

अवन्तिषु द्विजः कश्चिदासीदाढ्यतमः श्रिया

वार्तावृत्तिः कदर्यस्तु कामी लुब्धोऽतिकोपनः ६

ज्ञातयोऽतिथयस्तस्य वाङ्मात्रेणापि नार्चिताः

शून्यावसथ आत्मापि काले कामैरनर्चितः ७

दुःशीलस्य कदर्यस्य द्रुह्यन्ते पुत्रबान्धवाः

दारा दुहितरो भृत्या विषण्णा नाचरन्प्रियम् ८

तस्यैवं यक्षवित्तस्य च्युतस्योभयलोकतः

धर्मकामविहीनस्य चुक्रुधुः पञ्चभागिनः ९

तदवध्यानविस्रस्त पुण्यस्कन्धस्य भूरिद

अर्थोऽप्यगच्छन्निधनं बह्वायासपरिश्रमः १०

ज्ञात्यो जगृहुः किञ्चित्किञ्चिद्दस्यव उद्धव

दैवतः कालतः किञ्चिद्ब्रह्मबन्धोर्नृपार्थिवात् ११

स एवं द्रविणे नष्टे धर्मकामविवर्जितः

उपेक्षितश्च स्वजनैश्चिन्तामाप दुरत्ययाम् १२

तस्यैवं ध्यायतो दीर्घं नष्टरायस्तपस्विनः

खिद्यतो बाष्पकण्ठस्य निर्वेदः सुमहानभूत् १३

स चाहेदमहो कष्टं वृथात्मा मेऽनुतापितः

न धर्माय न कामाय यस्यार्थायास ईदृशः १४

प्रायेणाथाः कदर्याणां न सुखाय कदाचन

इह चात्मोपतापाय मृतस्य नरकाय च १५

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! वास्तवमें भगवान्‌ की लीलाकथा ही श्रवण करनेयोग्य है। वे ही प्रेम और मुक्तिके दाता हैं। जब उनके परमप्रेमी भक्त उद्धवजीने इस प्रकार प्रार्थना की, तब यदुवंशविभूषण श्रीभगवान्‌ ने उनके प्रश्न की प्रशंसा करके उनसे इस प्रकार कहा— ॥॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—देवगुरु बृहस्पतिके शिष्य उद्धवजी ! इस संसारमें प्राय: ऐसे संत पुरुष नहीं मिलते, जो दुर्जनोंकी कटुवाणीसे ङ्क्षबधे हुए अपने हृदयको सँभाल सकें ॥ २ ॥ मनुष्यका हृदय मर्मभेदी बाणोंसे ङ्क्षबधनेपर भी उतनी पीडाका अनुभव नहीं करता, जितनी पीडा उसे दुष्टजनोंके मर्मान्तक एवं कठोर वाग्बाण पहुँचाते हैं ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! इस विषयमें महात्मालोग एक बड़ा पवित्र प्राचीन इतिहास कहा करते हैं; मैं वही तुम्हें सुनाऊँगा, तुम मन लगाकर उसे सुनो ॥ ४ ॥ एक भिक्षुकको दुष्टोंने बहुत सताया था। उस समय भी उसने अपना धैर्य न छोड़ा और उसे अपने पूर्वजन्मके कर्मोंका फल समझकर कुछ अपने मानसिक उद्गार प्रकट किये थे। उन्हींका इस इतिहासमें वर्णन है ॥ ५ ॥

प्राचीन समयकी बात है, उज्जैनमें एक ब्राह्मण रहता था। उसने खेती-व्यापार आदि करके बहुत-सी धन-सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बातमें आ जाया करता था ॥ ६ ॥ उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियोंको कभी मीठी बातसे भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलानेकी तो बात ही क्या है। वह धर्म-कर्मसे रीते घरमें रहता और स्वयं भी अपनी धन-सम्पत्तिके द्वारा समयपर अपने शरीरको भी सुखी नहीं करता था ॥ ७ ॥ उसकी कृपणता और बुरे स्वभावके कारण उसके बेटे-बेटी, भाई-बन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुखी रहते और मन-ही-मन उसका अनिष्टचिन्तन किया करते थे। कोई भी उसके मनको प्रिय लगनेवाला व्यवहार नहीं करता था ॥ ८ ॥ वह लोक-परलोक दोनोंसे ही गिर गया था। बस, यक्षोंके समान धनकी रखवाली करता रहता था। उस धनसे वह न तो धर्म कमाता था और न भोग ही भोगता था। बहुत दिनोंतक इस प्रकार जीवन बितानेसे उसपर पञ्चमहायज्ञके भागी देवता बिगड़ उठे ॥ ९ ॥ उदार उद्धवजी ! पञ्चमहायज्ञके भागियोंके तिरस्कारसे उसके पूर्व- पुण्योंका सहारा—जिसके बलसे अबतक धन टिका हुआ था—जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रमसे इकट्ठाकिया था, वह धन उसकी आँखोंके सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया ॥ १० ॥ उस नीच ब्राह्मणका कुछ धन तो उसके कुटुम्बियोंने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गये। कुछ आग लग जाने आदि दैवी कोपसे नष्ट हो गया, कुछ समयके फेरसे मारा गया। कुछ साधारण मनुष्योंने ले लिया और बचा-खुचा कर और दण्डके रूपमें शासकोंने हड़प लिया ॥ ११ ॥ उद्धवजी ! इस प्रकार उसकी सारी सम्पत्ति जाती रही। न तो उसने धर्म ही कमाया और न भोग ही भोगे। इधर उसके सगे-सम्बन्धियोंने भी उसकी ओरसे मुँह मोड़ लिया। अब उसे बड़ी भयानक चिन्ताने घेर लिया ॥ १२ ॥ धनके नाशसे उसके हृदयमें बड़ी जलन हुई। उसका मन खेदसे भर गया। आँसुओंके कारण गला रुँध गया। परन्तु इस तरह चिन्ता करते-करते ही उसके मनमें संसारके प्रति महान् दु:खबुद्धि और उत्कट वैराग्य का उदय हो गया ॥ १३ ॥

अब वह ब्राह्मण मन-ही-मन कहने लगा—‘हाय ! हाय !! बड़े खेदकी बात है, मैंने इतने दिनोंतक अपनेको व्यर्थ ही इस प्रकार सताया। जिस धनके लिये मैंने सरतोड़ परिश्रम किया, वह न तो धर्मकर्ममें लगा और न मेरे सुखभोगके ही काम आया ॥ १४ ॥ प्राय: देखा जाता है कि कृपण पुरुषोंको धनसे कभी सुख नहीं मिलता। इस लोकमें तो वे धन कमाने और रक्षाकी चिन्तासे जलते रहते हैं और मरनेपर धर्म न करनेके कारण नरकमें जाते हैं ॥ १५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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