मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

सांख्ययोग

 

 श्रीभगवानुवाच -

 अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि साङ्ख्यं पूर्वैर्विनिश्चितम् ।

 यद्विज्ञाय पुमान् सद्यो जह्याद् वैकल्पिकं भ्रमम् ॥ १ ॥

 आसीज्ज्ञानमथो अर्थ एकमेवाविकल्पितम् ।

 यदा विवेकनिपुणा आदौ कृतयुगेऽयुगे ॥ २ ॥

 तन्मायाफलरूपेण केवलं निर्विकल्पितम् ।

 वाङ्‌मनोऽगोचरं सत्यं द्विधा समभवद् बृहत् ॥ ३ ॥

 तयोरेकतरो ह्यर्थः प्रकृतिः सोभयात्मिका ।

 ज्ञानं त्वन्यतमो भावः पुरुषः सोऽभिधीयते ॥ ४ ॥

 तमो रजः सत्त्वमिति प्रकृतेरभवन् गुणाः ।

 मया प्रक्षोभ्यमाणायाः पुरुषानुमतेन च ॥ ५ ॥

 तेभ्यः समभवत् सूत्रं महान् सूत्रेण संयुतः ।

 ततो विकुर्वतो जातो अहङ्कारो विमोहनः ॥ ६ ॥

 वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिवृत् ।

 तन्मात्रेन्द्रियमनसां कारणं चिदचिन्मयः ॥ ७ ॥

 अर्थस्तन्मात्रिकाज्जज्ञे तामसादिन्द्रियाणि च ।

 तैजसाद् देवता आसन् एकादश च वैकृतात् ॥ ८ ॥

 मया सञ्चोदिता भावाः सर्वे संहत्यकारिणः ।

 अण्डं उत्पादयामासुं ममायतनमुत्तमम् ॥ ९ ॥

 तस्मिन् अहं समभवं अण्डे सलिलसंस्थितौ ।

 मम नाभ्यामभूत् पद्मं विश्वाख्यं तत्र चात्मभूः ॥ १० ॥

 सोऽसृजत्तपसा युक्तो रजसा मदनुग्रहात् ।

 लोकान् सपालान् विश्वात्मा भूर्भुवः स्वरिति त्रिधा ॥ ११ ॥

 देवानामोक आसीत् स्वर्भूतानां च भुवः पदम् ।

 मर्त्यादीनां च भूर्लोकः सिद्धानां त्रितयात् परम् ॥ १२ ॥

 अधोऽसुराणां नागानां भूमेरोकोऽसृजत् प्रभुः ।

 त्रिलोक्यां गतयः सर्वाः कर्मणां त्रिगुणात्मनाम् ॥ १३ ॥

 योगस्य तपसश्चैव न्यासस्य गतयोऽमलाः ।

 महर्जनस्तपः सत्यं भक्तियोगस्य मद्‌गतिः ॥ १४ ॥

 मया कालात्मना धात्रा कर्मयुक्तमिदं जगत् ।

 गुणप्रवाह एतस्मिन् उन्मज्जति निमज्जति ॥ १५ ॥

 अणुर्बृहत् कृशः स्थूलो यो यो भावः प्रसिध्यति ।

 सर्वोऽप्युभयसंयुक्तः प्रकृत्या पुरुषेण च ॥ १६ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें सांख्यशास्त्रका निर्णय सुनाता हूँ। प्राचीन कालके बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंने इसका निश्चय किया है। जब जीव इसे भलीभाँति समझ लेता है, तो वह भेदबुद्धि-मूलक सुख-दु:खादिरूप भ्रमका तत्काल त्याग कर देता है ॥ १ ॥ युगोंसे पूर्व प्रलयकालमें आदिसत्ययुग में और जब कभी मनुष्य विवेकनिपुण होते हैं—इन सभी अवस्थाओंमें यह सम्पूर्ण दृश्य और द्रष्टा, जगत् और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकारके भेदभावसे रहित केवल ब्रह्म ही होते हैं ॥ २ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्ममें किसी प्रकारका विकल्प नहीं है, वह केवल—अद्वितीय सत्य है; मन और वाणीकी उसमें गति नहीं है। वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिम्बित जीवके रूपमें—दृश्य और द्रष्टाके रूपमें—दो भागोंमें विभक्त-सा हो गया ॥ ३ ॥ उनमेंसे एक वस्तुको प्रकृति कहते हैं। उसीने जगत्में कार्य और कारणका रूप धारण किया है। दूसरी वस्तुको, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं ॥ ४ ॥ उद्धवजी ! मैंने ही जीवोंके शुभ-अशुभ कर्मोंके अनुसार प्रकृतिको क्षुब्ध किया। तब उससे सत्त्व, रज और तम—ये तीन गुण प्रकट हुए ॥ ५ ॥ उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्तिप्रधान महत्तत्त्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्तत्त्व में विकार होनेपर अहङ्कार व्यक्त हुआ। यह अहङ्कार ही जीवोंको मोहमें डालनेवाला है ॥ ६ ॥ वह तीन प्रकार का है—सात्त्विक, राजस और तामस। अहङ्कार पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय और मनका कारण है; इसलिये वह जड-चेतन—उभयात्मक है ॥ ७ ॥ तामस अहङ्कार से पञ्चतन्मात्राएँ और उनसे पाँच भूतों की उत्पत्ति हुई। तथा राजस अहङ्कार से इन्द्रियाँ और सात्त्विक अहङ्कार से इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ग्यारह देवता[*] प्रकट हुए ॥८॥ ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणा से एकत्र होकर परस्पर मिल गये और इन्होंने यह ब्रह्माण्डरूप अण्ड उत्पन्न किया। यह अण्ड मेरा उत्तम निवासस्थान है ॥ ९ ॥ जब वह अण्ड जल में स्थित हो गया, तब मैं नारायणरूप से इसमें विराजमान हो गया। मेरी नाभिसे विश्वकमलकी उत्पत्ति हुई। उसीपर ब्रह्माका आविर्भाव हुआ ॥ १० ॥ विश्वसमष्टिके अन्त:करण ब्रह्माने पहले बहुत बड़ी तपस्या की। उसके बाद मेरा कृपा-प्रसाद प्राप्त करके रजोगुणके द्वारा भू:, भुव:, स्व: अर्थात् पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग—इन तीन लोकोंकी और इनके लोकपालोंकी रचना की ॥ ११ ॥ देवताओंके निवासके लिये स्वर्लोक, भूत-प्रेतादिके लिये भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और मनुष्य आदिके लिये भूर्लोक (पृथ्वीलोक) का निश्चय किया गया। इन तीनों लोकोंसे ऊपर महर्लोक, तपलोक आदि सिद्धोंके निवासस्थान हुए ॥ १२ ॥ सृष्टिकार्यमें समर्थ ब्रह्माजीने असुर और नागोंके लिये पृथ्वीके नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताल बनाये। इन्हीं तीनों लोकोंमें त्रिगुणात्मक कर्मोंके अनुसार विविध गतियाँ प्राप्त होती हैं ॥ १३ ॥ योग, तपस्या और संन्यासके द्वारा महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोगसे मेरा परम धाम मिलता है ॥ १४ ॥ यह सारा जगत् कर्म और उनके संस्कारोंसे युक्त है। मैं ही कालरूपसे कर्मोंके अनुसार उनके फलका विधान करता हूँ। इस गुणप्रवाहमें पडक़र जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है—कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यगति उच्चगति प्राप्त हो जाती है ॥ १५ ॥ जगत् में छोटे-बड़े, मोटे-पतले— जितने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनोंके संयोगसे ही सिद्ध होते है ॥ १६ ॥

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[*] पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—इस प्रकार ग्यारह इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ग्यारह देवता हैं।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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