॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
सांख्ययोग
यस्तु
यस्यादिरन्तश्च स वै मध्यं च तस्य सन् ।
विकारो व्यवहारार्थो यथा तैजसपार्थिवाः ॥ १७ ॥
यदुपादाय पूर्वस्तु भावो विकुरुतेऽपरम् ।
आदिरन्तो यदा यस्य तत् सत्यमभिधीयते ॥ १८ ॥
प्रकृतिर्यस्य उपादानं आधारः पुरुषः परः ।
सतोऽभिव्यञ्जकः कालो ब्रह्म तत्त्रितयं त्वहम् ॥
१९ ॥
सर्गः प्रवर्तते तावत् पौवापर्येण नित्यशः ।
महान् गुणविसर्गार्थः स्थित्यन्तो यावदीक्षणम् ॥
२० ॥
विराण्मयाऽऽसाद्यमानो लोककल्पविकल्पकः ।
पञ्चत्वाय विशेषाय कल्पते भुवनैः सह ॥ २१ ॥
अन्ने प्रलीयते मर्त्यं अन्नं धानासु लीयते ।
धाना भूमौ प्रलीयन्ते भूमिर्गन्धे प्रलीयते ॥ २२
॥
अप्सु प्रलीयते गन्ध आपश्च स्वगुणे रसे ।
लीयते ज्योतिषि रसो ज्योती रूपे प्रलीयते ॥ २३ ॥
रूपं वायौ स च स्पर्शे लीयते सोऽपि चाम्बरे ।
अम्बरं शब्दतन्मात्र इन्द्रियाणि स्वयोनिषु ॥ २४
॥
योनिर्वैकारिके सौम्य लीयते मनसीश्वरे ।
शब्दो भूतादिमप्येति भूतादिर्महति प्रभुः ॥ २५ ॥
स लीयते महान् स्वेषु गुणेशु गुणवत्तमः ।
तेऽव्यक्ते संप्रलीयन्ते तत्काले लीयतेऽव्यये ॥
२६ ॥
कालो मायामये जीवे जीव आत्मनि मय्यजे ।
आत्मा केवल आत्मस्थो विकल्पापायलक्षणः ॥ २७ ॥
एवमन्वीक्षमाणस्य कथं वैकल्पिको भ्रमः ।
मनसो हृदि तिष्ठेत व्योम्नीवार्कोदये तमः ॥ २८ ॥
एष साङ्ख्यविधिः प्रोक्तः संशयग्रन्थिभेदनः ।
प्रतिलोमानुलोमाभ्यां परावरदृशा मया ॥ २९ ॥
जिसके आदि और अन्तमें जो है, वही बीचमें भी है और वही सत्य है। विकार तो केवल व्यवहारके लिये की
हुई कल्पनामात्र है। जैसे कंगन-कुण्डल आदि सोनेके विकार,
और घड़े-सकोरे आदि मिट्टीके विकार पहले सोना या मिट्टी ही थे, बादमें भी सोना या मिट्टी ही रहेंगे। अत: बीचमें भी वे सोना या
मिट्टी ही हैं। पूर्ववर्ती कारण (महत्तत्त्व आदि) भी जिस परम कारणको उपादान बनाकर
अपर (अहंकार आदि) कार्य-वर्गकी सृष्टि करते हैं,
वही उनकी अपेक्षा भी परम सत्य है। तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी
भी कार्यके आदि और अन्तमें विद्यमान रहता है,
वही सत्य है ॥ १७-१८ ॥ इस प्रपञ्चका उपादान-कारण प्रकृति है, परमात्मा अधिष्ठान है और इसको प्रकट करनेवाला काल है।
व्यवहार-कालकी यह त्रिविधता वस्तुत: ब्रह्म-स्वरूप है और मैं वही शुद्ध ब्रह्म हूँ
॥ १९ ॥ जबतक परमात्माकी ईक्षणशक्ति अपना काम करती रहती है,
जबतक उनकी पालन-प्रवृत्ति बनी रहती है,
तबतक जीवोंके कर्मभोगके लिये कारण-कार्यरूपसे अथवा पिता-पुत्रादिके
रूपसे यह सृष्टिचक्र निरन्तर चलता रहता है ॥ २० ॥
यह विराट् ही विविध लोकोंकी सृष्टि, स्थिति और संहारकी लीलाभूमि है। जब मैं कालरूपसे इसमें व्याप्त
होता हूँ, प्रलयका संकल्प करता हूँ, तब यह भुवनोंके साथ विनाशरूप विभागके योग्य हो जाता है ॥ २१ ॥ उसके
लीन होनेकी प्रक्रिया यह है कि प्राणियोंके शरीर अन्नमें,
अन्न बीजमें, बीज भूमिमें और भूमि गन्ध-तन्मात्रामें लीन हो जाती है ॥ २२ ॥ गन्ध
जलमें, जल अपने गुण रसमें , रस तेजमें और तेज रूपमें लीन हो जाता है ॥ २३ ॥ रूप वायुमें, वायु स्पर्शमें, स्पर्श आकाशमें तथा आकाश शब्दतन्मात्रामें लीन हो जाता है।
इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओंमें और अन्तत: राजस अहङ्कारमें समा जाती हैं ॥ २४ ॥
हे सौम्य ! राजस अहङ्कार अपने नियन्ता सात्त्विक अहङ्काररूप मनमें, शब्दतन्मात्रा पञ्चभूतोंके कारण तामस अहङ्कारमें और सारे जगत्को
मोहित करनेमें समर्थ त्रिविध अहङ्कार महत्तत्त्वमें लीन हो जाता है ॥ २५ ॥
ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिप्रधान महत्तत्त्व अपने कारण गुणोंमें लीन हो जाता है।
गुण अव्यक्त प्रकृतिमें और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी कालमें लीन हो जाती है ॥
२६ ॥ काल मायामय जीवमें और जीव मुझ अजन्मा आत्मामें लीन हो जाता है। आत्मा किसीमें
लीन नहीं होता, वह उपाधिरहित अपने स्वरूपमें ही स्थित रहता है। वह जगत् की सृष्टि
और लयका अधिष्ठान एवं अवधि है ॥ २७ ॥ उद्धवजी ! जो इस प्रकार विवेकदृष्टि से देखता
है, उसके चित्तमें यह प्रपञ्च का भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित्
उसकी स्फूर्ति हो भी जाय, तो वह अधिक काल तक हृदय में ठहर कैसे सकता है ? क्या सूर्योदय होने पर भी
आकाश में अन्धकार ठहर सकता है ॥ २८ ॥
उद्धवजी ! मैं कार्य और कारण दोनों का ही साक्षी हूँ। मैंने तुम्हें सृष्टि से प्रलय और प्रलय से सृष्टि तक की सांख्यविधि
बतला दी। इससे सन्देह की गाँठ कट जाती है और पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता
है ॥ २९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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