बुधवार, 7 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण

 

श्रीभगवानुवाच

गुणानामसम्मिश्राणां पुमान्येन यथा भवेत्

तन्मे पुरुषवर्येदमुपधारय शंसतः १

शमो दमस्तितिक्षेक्षा तपः सत्यं दया स्मृतिः

तुष्टिस्त्यागोऽस्पृहा श्रद्धा ह्रीर्दयादिः स्वनिर्वृतिः २

काम ईहा मदस्तृष्णा स्तम्भ आशीर्भिदा सुखम्

मदोत्साहो यशःप्रीतिर्हास्यं वीर्यं बलोद्यमः ३

क्रोधो लोभोऽनृतं हिंसा याच्ञा दम्भः क्लमः कलिः

शोकमोहौ विषादार्ती निद्रा शा भीरनुद्यमः ४

सत्त्वस्य रजसश्चैतास्तमसश्चानुपूर्वशः

वृत्तयो वर्णितप्रायाः सन्निपातमथो शृणु ५

सन्निपातस्त्वहमिति ममेत्युद्धव या मतिः

व्यवहारः सन्निपातो मनोमात्रेन्द्रि यासुभिः ६

धर्मे चार्थे च कामे च यदासौ परिनिष्ठितः

गुणानां सन्निकर्षोऽयं श्रद्धारतिधनावहः ७

प्रवृत्तिलक्षणे निष्ठा पुमान्यर्हि गृहाश्रमे

स्वधर्मे चानु तिष्ठेत गुणानां समितिर्हि सा ८

पुरुषं सत्त्वसंयुक्तमनुमीयाच्छमादिभिः

कामादिभी रजोयुक्तं क्रोधाद्यैस्तमसा युतम् ९

यदा भजति मां भक्त्या निरपेक्षः स्वकर्मभिः

तं सत्त्वप्रकृतिं विद्यात्पुरुषं स्त्रियमेव वा १०

यदा आशिष आशास्य मां भजेत स्वकर्मभिः

तं रजःप्रकृतिं विद्याथिंसामाशास्य तामसम् ११

सत्त्वं रजस्तम इति गुणा जीवस्य नैव मे

चित्तजा यैस्तु भूतानां सज्जमानो निबध्यते १२

यदेतरौ जयेत्सत्त्वं भास्वरं विशदं शिवम्

तदा सुखेन युज्येत धर्मज्ञानादिभिः पुमान् १३

यदा जयेत्तमः सत्त्वं रजः सङ्गं भिदा चलम्

तदा दुःखेन युज्येत कर्मणा यशसा श्रिया १४

यदा जयेद्र जः सत्त्वं तमो मूढं लयं जडम्

युज्येत शोकमोहाभ्यां निद्र या हिंसयाशया १५

यदा त्तिं प्रसीदेत इन्द्रि याणां च निर्वृतिः

देहेऽभयं मनोऽसङ्गं तत्सत्त्वं विद्धि मत्पदम् १६

विकुर्वन्क्रियया चाधीरनिवृत्तिश्च चेतसाम्

गात्रास्वास्थ्यं मनो भ्रान्तं रज एतैर्निशामय १७

सीदच्चित्तं विलीयेत चेतसो ग्रहणेऽक्षमम्

मनो नष्टं तमो ग्लानिस्तमस्तदुपधारय १८

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—पुरुषप्रवर उद्धवजी ! प्रत्येक व्यक्ति  में अलग-अलग गुणोंका प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियों के स्वभाव में भी भेद हो जाता है। अब मैं बतलाता हूँ कि किस गुणसे कैसा-कैसा स्वभाव बनता है। तुम सावधानी से सुनो ॥ १ ॥ सत्त्वगुणकी वृत्तियाँ हैं—शम (मन:संयम), दम (इन्द्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, सन्तोष, त्याग, विषयोंके प्रति अनिच्छा, श्रद्धा, लज्जा (पाप करनेमें स्वाभाविक सङ्कोच), आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि ॥ २ ॥ रजोगुणकी वृत्तियाँ हैं—इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असन्तोष), ऐंठ या अकड़, देवताओंसे धन आदिकी याचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्धादिके लिये मदजनित उत्साह, अपने यशमें प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि ॥ ३ ॥ तमोगुणकी वृत्तियाँ हैं—क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि ॥ ४ ॥ इस प्रकार क्रमसे सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी अधिकांश वृत्तियोंका पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया। अब उनके मेलसे होनेवाली वृत्तियोंका वर्णन सुनो ॥ ५ ॥ उद्धवजी ! ‘मैं हूँ और यह मेरा है’ इस प्रकारकी बुद्धिमें तीनों गुणोंका मिश्रण है। जिन मन, शब्दादि विषय, इन्द्रिय और प्राणोंके कारण पूर्वोक्त वृत्तियोंका उदय होता है, वे सब-के-सब सात्त्विक, राजस और तामस हैं ॥ ६ ॥ जब मनुष्य धर्म, अर्थ और काममें संलग्र रहता है, तब उसे सत्त्वगुणसे श्रद्धा, रजोगुणसे रति और तमोगुणसे धनकी प्राप्ति होती है। यह भी गुणोंका मिश्रण ही है ॥ ७ ॥ जिस समय मनुष्य सकाम कर्म, गृहस्थाश्रम और स्वधर्माचरणमें अधिक प्रीति रखता है, उस समय भी उसमें तीनों गुणोंका मेल ही समझना चाहिये ॥ ८ ॥

मानसिक शान्ति और जितेन्द्रियता आदि गुणोंसे सत्त्वगुणी पुरुषकी, कामना आदिसे रजोगुणी पुरुषकी और क्रोध-हिंसा आदिसे तमोगुणी पुरुषकी पहचान करे ॥ ९ ॥ पुरुष हो, चाहे स्त्री—जब वह निष्काम होकर अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मोंद्वारा मेरी आराधना करे, तब उसे सत्त्वगुणी जानना चाहिये ॥ १० ॥ सकामभावसे अपने कर्मोंके द्वारा मेरा भजन-पूजन करनेवाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रुकी मृत्यु आदिके लिये मेरा भजन-पूजन करे, उसे तमोगुणी समझना चाहिये ॥ ११ ॥ सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंका कारण जीवका चित्त है। उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हीं गुणोंके द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदिमें आसक्त होकर बन्धनमें पड़ जाता है ॥ १२ ॥ सत्त्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शान्त है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुणको दबाकर बढ़ता है, उस समय पुरुष सुख, धर्म और ज्ञान आदिका भाजन हो जाता है ॥ १३ ॥ रजोगुण भेदबुद्धिका कारण है। उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति। जिस समय तमोगुण और सत्त्वगुणको दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य दु:ख, कर्म, यश और लक्ष्मीसे सम्पन्न होता है ॥ १४ ॥ तमोगुणका स्वरूप है अज्ञान। उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धिकी मूढ़ता। जब वह बढक़र सत्त्वगुण और रजोगुणको दबा लेता है, तब प्राणी तरह-तरहकी आशाएँ करता है, शोक-मोहमें पड़ जाता है, हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा-आलस्यके वशीभूत होकर पड़ रहता है ॥ १५ ॥ जब चित्त प्रसन्न हो, इन्द्रियाँ शान्त हों, देह निर्भय हो और मनमें आसक्ति न हो, तब सत्त्वगुणकी वृद्धि समझनी चाहिये। सत्त्वगुण मेरी प्राप्तिका साधन है ॥ १६ ॥ जब काम करते-करते जीवकी बुद्धि चञ्चल, ज्ञानेन्द्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेन्द्रियाँ विकारयुक्त, मन भ्रान्त और शरीर अस्वस्थ हो जाय, तब समझना चाहिये कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है ॥ १७ ॥ जब चित्त ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा शब्दादि विषयोंको ठीक-ठीक समझनेमें असमर्थ हो जाय और खिन्न होकर लीन होने लगे, मन सूना-सा हो जाय तथा अज्ञान और विषादकी वृद्धि हो, तब समझना चाहिये कि तमोगुण वृद्धिपर है ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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