बुधवार, 25 जनवरी 2023

भक्त का वैराग्य प्रेम से उत्पन्न होता है

|| श्रीहरिशरणम् ||

भक्तियोग कुछ त्याग करने की शिक्षा नहीं देता। वह यही कहता है कि उस परम पुरुष में आसक्त हो‍ओ और जो उस परम पुरुषके प्रेम में उन्मत्त हैं, उनकी स्वाभाविक ही नीच विषयोंमें कोई आसक्ति नहीं रह सकती। मैं तुम्हारे सम्बन्धमें और कुछ भी नहीं जानता, केवल यही जानता हूं कि तुम मेरे हो। तुम सुन्दर हो, आहाहा! तुम परम सुन्दर हो, तुम स्वयं सौन्दर्य-स्वरूप हो। भक्तियोग कहता है ‘हे मनुष्य! सुन्दर वस्तुके प्रति स्वाभाविक ही तुम आकर्षित होते हो, भगवान्‌ परम सुन्दर हैं, तुम उन्हें प्राणोंसे बढ़कर प्रेम करो।’ मनुष्यके चेहरेमें, आकाशमें, तारागणोंमें और चन्द्रमामें जो सौन्दर्यका विकास देखनेमें आता है सो कहांसे आया? वह उस भगवान्‌के सर्वतोमुखी यथार्थ सौन्दर्यका आंशिक प्रकाश मात्र है। उसीके प्रकाशसे सबका प्रकाश है ( तस्य भासा सर्वमिदं विभाति, श्रुति ) भक्तिकी इस ऊंची भूमिपर खड़े हो‍ओ, यह तुम्हारे क्षुद्र ‘मैं पन’ को भुला देगी। जगत्‌की क्षुद्र स्वार्थमयी आसक्तियोंका त्याग करो | साक्षीरूपसे स्थित होकर प्रकृतिके सारे खेल देखो। मनुष्यके प्रति आसक्ति मत करो। देखो, जगत्‌में यह प्रेमकाप्रबल प्रवाह क्या काम करता है? संभव है कभी एक धक्का लगे, उसे भी उस परमप्रेमको प्राप्त करनेके प्रयत्नमें एक आनुपङ्गिक मात्र समझो। संभव है कहीं द्वन्द्व हो जाय. किसीका पैर फिसल पड़े, पर ये सभी उस परम प्रेम तक पहुंचनेकी सीढ़ियां हैं। कितनेही द्वन्द्व क्यों न हों, कितना भी संघर्ष क्यों न आवे, तुम साक्षी बनकर जरा दूर खड़े रहो। जबतक तुम इस संसारके प्रवाहमें पड़े हो, तभीतक तुम्हारे यह धक्के लगते हैं। जब तुम इससे निकलकर साक्षी बनजाओगे, तब तुम्हें दिखायी देगा कि भगवान्‌ ही अनन्त प्रकारसे प्रेमके स्वरूपमें प्रकट हो रहे हैं।

भक्तियोगी जीवन-संग्रामका अर्थ समझते हैं। वे उसे लांघकर आते हैं-इससे उसका लक्ष्य उन्हें विदित रहता है। इसीसे वे प्राणपणसे यही चाहते हैं कि कहीं विषयोंके आकर्षणरूपी भंवरमें पड़कर डुबकियां न खानी पड़ें। वे सब आकर्षणोंके मूल कारणस्वरूप श्रीहरिके समीप सीधे जाना चाहते हैं। भक्तका यही त्याग है। भगवान्‌के प्रति होनेवाला महान्‌ आकर्षण उनकी अन्यान्य समस्त आसक्तियोंका नाश कर देता है। यह प्रबल अनन्त प्रेम उनके हृदयमें प्रवेशकर अन्य सभी आसक्तियोंको वहांसे निकाल बाहर करता है। जब भक्त स्वयं भगवान्‌-रूप प्रेम-समुद्रके जलसे अपने हृदयको भरा हुआ देखते हैं, तब अन्यान्य आसक्तियां वहां टिक भी कैसे सकती हैं? वहां छोटे छोटे प्रेमोंके लिये स्थान नहीं रह जाता। सारांश यह कि भक्तका वैराग्य यानी भगवान्‌के सिवा अन्य समस्त विषयोंमें अनासक्ति भगवान्‌के प्रति परम प्रेमसे ही उत्पन्न होती है।

जब भक्तके हृदयमें महान्‌ प्रेम-समुद्र प्रवेश कर जाता है तब उन्हें मनुष्यके अन्दर मनुष्य नहीं दीखता। उन्हें दीख पड़ता है सर्वत्र ही अपना प्रियतम! वे जिसकी ओर दृष्टि करते हैं, उसीमें उन्हें श्रीहरिका प्रकाश दीख पड़ता है। सूर्य और चन्द्रमाका प्रकाश भगवान्‌का ही प्रकाशमात्र दीखता है। जहां भी कोई सौन्दर्य या महत्त्व देखनेमें आता है, उनकी दृष्टिमें वह सब भगवान्‌का होता है। इस प्रकारके भक्त संसारमें अब भी हैं। जगत्‌ कभी ऐसे भक्तोंसे शून्य नहीं रहता। ऐसे ही भक्त सांप काटनेपर कहते हैं ‘हमारे प्रियतम के यहां से दूत आया था’। ऐसे ही लोग सार्वभौम भ्रातृभावके सम्बन्धमें कुछ कहनेका आधिकार रखते हैं। उनके हृदयमें कभी क्रोध, घृणा या ईर्ष्या नहीं होती | जब वे प्रेमबलसे अतीन्द्रिय सत्यको सदा देख सकते हैं तब उनमें क्रोधकी संभावना ही कहां है?

स्वामी विवेकानन्द 
………..००३. १०. वैशाख कृष्ण ११. सं० १९८६.कल्याण (पृ० ९१२)


1 टिप्पणी:

  1. 🌼🌿🌺जय श्री हरि: !!🙏🙏
    हरि:शरणम् हरि:शरणम् हरि: शरणम्

    जवाब देंहटाएं

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...