अन्त में हम एक बात और कहकर इस लेख को समाप्त करते हैं। दुःखरूप संसार से
छूटने का एक सर्वोत्तम उपाय है-परमात्मा की शरण लेकर विवेक और वैराग्ययुक्त बुद्धि
से दु:ख,
शोक, भय और चिन्ता का त्याग । इसपर यदि कोई कहे कि दुःख-सुख तो प्रारब्ध के अनुसार
भोगने ही पड़ते हैं तो इसका उत्तर यह है कि दुःख-सुख के निमित्तों का प्राप्त होना
और हट जाना ही प्रारब्ध का फल है, उन निमित्तों को लेकर हमें जो चिन्ता, शोक, भय एवं विषाद होता है वह हमारी मूर्खता से होता है, अज्ञान से होता है। उनके होने में प्रारब्ध हेतु नहीं है।
पुत्र का वियोग हो जाना, धनका अपहरण हो जाना, व्यापार में घाटा लग जाना, इज्जत-आबरू का चला जाना, बीमारी और अपकीर्ति का होना- ये सब घटनाएँ प्रारब्ध के कारण होती हैं;
परंतु इनसे जो हमें विषाद होता है, उसमें हमारा अज्ञान हेतु है, प्रारब्ध नहीं। यदि हम स्वयं इन घटनाओं से दुःखी न हों तो
इन घटनाओं की ताकत नहीं कि वे हमें दुःखी कर सकें। यदि इन घटनाओं में दुःखी करने की
शक्ति होती तो उनसे ज्ञानियों को भी दुःख होता; परन्तु ज्ञानी जीवन्मुक्त महापुरुषों के लिये शास्त्र डंके की
चोट पर यह कहते हैं कि उन्हें अप्रिय-से-अप्रिय घटना को लेकर भी दुःख नहीं होता,
वे सुख-दु:ख से परे हो जाते हैं। उनकी दृष्टि में
प्रिय-अप्रिय कुछ रह नहीं जाता। उनके विषय में श्रुति कहती है-'तरति शोकमात्मवित्। (छा० ७।१ । ३) आत्मा को जान लेने वाला शोक से तर जाता है। ‘हर्षशोकौ जहाति'
(कठ० १।२।१२) -ज्ञानी पुरुष हर्ष और शोक का त्याग कर देता है,
दोनों ही स्थितियों को लाँघ जाता है। 'तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः'
(ईश०७)- सर्वत्र एक परमात्मा को ही देखने वाले आत्मदर्शी
पुरुष के लिये शोक और मोह का कोई कारण नहीं रह जाता। भगवान् भी गीता में अर्जुन से
अपने उपदेश के प्रारम्भ में ही कहते हैं-
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥
...(२। ११)
'हे अर्जुन ! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्यों के लिये शोक करता
है और पण्डितों के-से वचनों को कहता है; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते।'
इससे यह सिद्ध होता है कि शोक न करना हमारे हाथ में है। यदि ऐसी बात न होती और
इसका सम्बन्ध प्रारब्ध से होता तो ज्ञानोत्तर काल में ज्ञानी को भी शोक होता और
भगवान् भी शोक छोड़ने के लिये अर्जुन को कभी न कहते। शरीरों का उत्पत्ति-विनाश और
क्षयवृद्धि तथा सांसारिक पदार्थों का संयोग-वियोग ही प्रारब्ध से सम्बन्ध रखता है;
उनके विषय में जो चिन्ता, भय और शोक होता है वह अज्ञान के कारण ही होता है। सांसारिक
विपत्ति के आने पर भी जो शोक नहीं करते-रोते नहीं, उनकी उससे कोई हानि नहीं होती। अतः परमात्मा की शरण ग्रहण
करके प्रमाद,आलस्य,पाप,भोग,शोकमोह,विषाद,चिन्ता एवं भय का त्याग कर हमें परमात्मा के स्वरूप में अचलभाव से स्थित हो
जाना चाहिये।
......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक
से
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क्या है परलोक?
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